धर्मायण अंक संख्या 144 अन्न-विशेषांक
अंक 144, आषाढ़, 2081 वि. सं.,23 जून-21 जुलाई 2024ई.
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शीर्षक एवं विषय-वस्तु
1. तिब्बती यात्री धर्मस्वामी का नालंदा विवरण- हिन्दी अनुवादक, डॉ. काशीनाथ मिश्र
धर्मस्वामी तिब्बत से नेपाल होते हुए 1234ई. में नालंदा पहुँचे थे। तबतक नालंदा मुख्य रूप से तुर्कों द्वारा उजाड़ा जा चुका था लेकिन उसका कुछ अंश बचा हुआ था, जहाँ राहुलश्रीभद्र अपने ब्राह्मण अनुयायी जयदेव तथा स्थानीय राजा भद्रसेन के द्वारा उपलब्ध कराये गये संसाधनों से बचे खुचे बिहारों को किसी तरह जीवित रखे हुए थे। उस समय भी 80 छात्र पढ़ रहे थे। धर्मस्वामी उन्हीं में से एक छात्र थे। उनहोंने नालंदा के विषय में जो कुछ लिखा है वह आँखों देखा हाल है। उन्होंने मगध में दो वर्ष व्यतीत किया।
नालंदा कैसे टूटा, इस पर हाल में विवाद खड़े किए जा रहे हैं। कुछ समुदाय के लोग इसके लिए ब्राह्मणों को उत्तरदायी बना रहे हैं, जिसके कारण यह विवाद समाज को विखण्डित करता जा रहे है। अतः हम चाहते हैं कि नालंदा से सम्बन्धित समकालिक स्रोत से इतिहास का संकलन किया जाए। इस क्रम में इस अंक में धर्मस्वामी का यात्रा वृत्तान्त अंगरेजी तथा उसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया जा रहा है। धर्मस्वामी का मूल वृत्तान्त तिब्बती में है। तिब्बती से अंगरेज अनुवाद करने का श्रेय जार्ज रिओरिच को जाता है। यह अनुवाद मूल तिब्बती के रोमन लिप्यन्तरण के साथ काशीप्रसाद जायसवाल रिसर्च इंस्टीच्यूट, पटना से डा. ए.एस. अल्तेकर की भूमिका के साथ 1959ई. में प्रकाशित है। धर्मायण पत्रिका के लिए इस अंगरेजी से हिन्दी अनुवाद डा. काशीनाथ मिश्र के द्वारा किया गया है। प्रामाणिकता के लिए यहाँ हमने एक कालम में अंगरेजी भी दे दिया है। आशा करता हूँ कि इस समकालिक स्रोत से नालंदा के विनाश सम्बन्धी बहुत विवाद समाप्त होंगे।
इस वृत्तान्त में प्रकाशित प्रति में उपशीर्षक नहीं हैं। यहाँ पाठकों की सुविधा के लिए सम्पादन के क्रम में उपशीर्षक जोड़े गये हैं ताकि विषयानुसार पढ़ने में सुविधा हो।
2. नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार -डॉ सरोज शुक्ला
भारत अनेक बार विनाशकारी आक्रमणों को झेल चुका है। आक्रमणकारी यहाँ से बहुत कुछ लूटकर ले गये हैं। नालंदा भी तुरुष्कों के आक्रमण का शिकार हुआ। यहाँ के मन्दिरों के पत्थर तक उठा लिए गये। अग्निकाण्ड हुआ, जिसके पुरातात्त्विक साक्ष्य मिले हैं। लेकिन उसे पुनरुज्जीवित करने का प्रयास हर प्रकार से अभिनन्दनीय है। वर्तमान में नालन्दा विश्वविद्यालय को नया रूप दिया गया। बहुत हद तक उसकी आकृति को सुरक्षित रखने का प्रयास किया जा रहा है, यह बिहार के लिए गौरव का विषय है। यह प्राचीन काल में भी शिक्षा का ऐसा केन्द्र था, जहाँ देश और विदेश के लोग शिक्षा के लिए आते थे। आज इस विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार भी इसी संकल्पना के साथ किया गया है, जो स्वागत योग्य है। हमेशा टूट-फूट की मरम्मत होती रही है। नालंदा में ही दशवीं शती में दुर्घटनावश आग लगी थी तो राजा देवपाल ने देयधर्म्म देकर इसका पुनरुद्धार कराया था- एसा शिलालेख यहीं से मिला है। नालन्दा का यह नवीन स्वरूप हमें ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करे यही आशा है।
3. उपनिषदों में अन्न-महिमा- विद्यावाचस्पति श्री महेश प्रसाद पाठक
ऐतरेय ब्राह्मण के हरिश्चन्द्रोपाख्यान में कहा गया है- अन्नं ह प्राणाः, अर्थात् अन्न प्राण है। हम अन्न ग्रहण कर प्राण का संरक्षण करते हैं। ‘अन्न’ शब्द अद् धातु से क्त प्रत्यय कर बना है, जिसका अर्थ होता है जो खाया गया हो। यहाँ अन्नाण्णः सूत्र से निपातन से अन्न शब्द बनता है। स्पष्ट है कि हम जो खाते हैं उसका प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है और हम उसी दिशा में अग्रसर हो जाते हैं। प्राचीन परम्परा में न केवल अन्न का स्वरूप बल्कि अन्न को खाने की विधि के आधार पर इसके गुण-दोष का विवेचन किया गया है। आज हम भोजन के सन्दर्भ में जूठन तक को भूल चुके हैं। लेकिन यहाँ अपैत, अपैत वस्तु से स्पृष्ट अन्न की बात क्या करें, अब तो प्रचलन में आयी हुई “बुफे व्यवस्था” हमें जूठा तक से परहेज नहीं करने देती है। हमारी भारतीय परम्परा तो भोजन से पूर्व गायत्री से मंडल कर तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि। धामनामासि प्रियं देवानामनाधृष्टं देवयजनमसि॥ इस मन्त्र से अन्न को जल से सिक्त कर भोजन करने की विधि बतलाती है, जो कि अन्न के प्रति हमारी असीम निष्ठा का प्रतीक है।
4. गीता में अन्न का माहात्म्य- डॉ. कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव
गीता हमारे सुखमय जीवन के लिए आचार संहिता का कार्य करती है। इसके उपदेश अत्यन्त सूक्ष्म रूप में किन्तु स्पष्ट शब्दों में कर्तव्य और अकर्तव्य का पाठ पढ़ाते हैं। अन्न एवं भोजन के सम्बन्ध में गीता का स्पष्ट उपदेश है कि उच्छिष्ट और अमेध्य अन्न खाना तामसिक आहार है। आज हम घर में देवता को भोग लगाने के लिए प्रसाद बनाने हेतु अलग बर्तन रखते हैं, जिसकी पवित्रता का पूरा ध्यान रखते हैं। क्योंकि उसमें मेध्य अर्थात् देवताओं को अर्पित करने योग्य अन्न सिद्ध किया जाता है और स्वयं खाने में इस बात का कोई विचार नहीं रखते। गीता कहती है कि जो अमेध्य है वह हमें स्वयं भी नहीं खाना चाहिए, वह तामसिक आहार है। अतः हमें भोजन से पूर्व विचार कर लेना चाहिए कि क्या इसे हम देवता को भोग लगा सकते हैं? यदि आपका मन कहे कि हाँ, लगा सकते हैं तो उसे आप स्वयं भी खा सकते हैं, यदि नहीं, तो गीता के अनुसार वह भी तामसिक आहार है, अन्न नहीं है।
5. जितिया पर्व : जीमूतक-पर्व या जीमूतवाहन की उपासना?- श्रीमती रंजू मिश्रा
जिउतिया या जितिया पर्व महिलाओं के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह आश्विन कृष्णपक्ष की सप्तमी तिथि से आरम्भ होकर अष्टमी तिथि में व्रत कर नवमी में पारणा के साथ सम्पन्न होता है। वर्तमान में इसे राजा जीमूतवाहन के साथ जोड़ दिया गया है, जिसमें यह कथा कही जाती है कि इस व्रत का संकल्प लेकर बीच में तोड़ देने पर अगले जन्म में पुत्रों का विनाश हो जाता है। लेखिका का कथन है कि यह बाद की कथा है। प्रारम्भ में यह व्रत मूलतः जीमूतक-पान से जुड़ा हुआ है जो आयुर्वेद का विषय है। सतपुतिया झिंगुणी को जीमूतक कहते हैं। इसके खाने से या इसका रस पीने से गर्भाशय सम्बन्धी रोग दूर हो जाते हैं। यहीकारण है कि आज भी इस जिउतिया व्रत में झिंगुणी के फल और पत्ते का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार, हमारे अनेक पर्व-त्योहार ऐसे हो सकते हैं जिनका सम्बन्ध भोजन से हो लेकिन हम धीरे-धीरे उन्हें सरलीकृत करते-करते उनका मौलिक स्वरूप बिगाड़ चुके हैं।
6. भारत का दक्षिण सौंदर्य श्रीलंका- डॉ. राजेश श्रीवास्तव
भारत के दक्षिण में अतीत में रामसेतु से जुड़ा हुआ सिंहल द्वीप जो वर्तमान में श्री लंका के नाम से विख्यात है, कला एवं संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में भारत का दक्षिण सौन्दर्य कहलाने का अधिकारी है। रामायण में वर्णित स्थल यहाँ भारत से जाने वाले धार्मिक पर्यटकों का मन मोह लेते हैं और उन्हें भक्तिमय बना देते हैं। समुद्र के बीच में स्थित यह देश अतीत में कभी गमित ज्योतिष के लिए शून्य अक्षांश परस्थित माना गया और भारत के किसी भू-भाग में राश्युदय मान निकालने के लिए लंकोदय मान को गणना का आधार माना गया। वहाँ भी भारतीय संस्कृति के अनुरूप देवताओं की पूजा होती रही है। अशोक वाटिका के समीप के पर्वत का शिखर ऐसा प्रतीत होता कि मानों वहाँ हनुमानजी लेटे हुए हैं!
7. सामवेद के प्रति समर्पित पण्डित सत्यव्रत सामश्रमी- अनु. भवनाथ झा
उत्तर भारत में आधुनिक काल में सामवेद के सबसे बड़े अध्येता के रूप में पं. सत्यव्रत सामश्रमी का नाम आता है। उन्होंने एसियाटिक सोसायटी के लिए सामवेद के संपादन में बड़ी भूमिका निभायी है। ये मूल रूप से बंगाल के थे, किन्तु इनका जन्म पटना में हुआ था। उस समय तक बंगाल में वेद -अध्ययन की परम्परा पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी थी और वाराणसी के कोई वैदिक बंगालियों को वेद पढाने में रुचि नहीं रखते थे। ऐसे समय में इनके पिता इन्हें लेकर वाराणसी गये और इन्होंने वहाँ सरस्वती मठ में रहते हुए ब्राह्ममुहूर्त से रात्रि 12 बजे तक विद्या-अध्यवसाय में लगे हुए केवल 20 वर्ष की अवस्था में सामवेद का व्यापक अध्ययन किया। फिर ये ज्ञान की खोज में हिमालय की दुर्गम घाटी तक भी गये। ऐसे आधुनिक काल के विद्वान् का परिचय एवं उनकी दिनचर्या छात्रों के लिए प्रेरक प्रसंग हैं।
8. आभार का मास है आषाढ़- डॉ मयंक मुरारी
शुक्लयजुर्वेद अध्याय 22 में प्रार्थना है- “पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः।” मेघ बरसे और हमारे फल हमारे लिए हितकारी हों। गीता कहती है कि अन्न से प्राणी की अस्तित्व होता है और अन्न पर्जन्य से उत्पन्न होते हैं। अन्न तथा मेघ में कार्यकारणभाव सम्बन्ध माना जा सकता है, वह अन्न का निमित्त कारण है। इस प्रकार आषाढ़ का यह मास मेघ तथा अन्न के संबन्ध को प्रकट करता है। यह पृथ्वी की तृप्ति का मास है, जब वनस्पतियाँ उगती हैं। अतः कवियों ने इसका बड़े चाव से वर्णन किया है। “जल ही जीवन है, तो आषाढ़ इस जल का दान देने के लिए तत्पर रहता है। परोपकार के लिए अपने को उपस्थित रखने की सीख आषाढ़ देता है। ”
9. लोक साहित्य में वर्षा की जानकारी- श्री संजय गोस्वामी
लोक को वर्षा की आवश्यकता है। वर्षा जल का प्रमुख स्रोत है और जल जीवन का आधार है। मनु ने तो यहाँ तक कह दिया है सबसे पहले जल की उत्पत्ति हुई और उसी में सृष्टि का बीज उत्पन्न हुआ। आधुनिक वैज्ञानिक शोध भी इस निष्कर्ष पर बहुत हद तक पहुँच चुका है कि जल और धूलकण पृथ्वी के बनने का कारण है और उस पर हमरा जीवन निर्भर है। अतः लोक का कारण भी जल है। अन्न उत्पादन, स्वास्थ्य, प्रदूषण नियन्त्रण सब के लिए वर्षा चाहिए अतः स्वाभाविक है कि वर्षा कब होगी इसके लिए लोक में चिन्तन हुआ है। डाक, घाघ, भड्डरी की कहावतें इसके बारे में प्रचलित हैं, ज्योतिष के योग भी इसकी विवेचना करते हैं।
10. देवभूमि उत्तराखंड का एक प्रसिद्ध देव मन्दिर- श्री अंशुल सिंह राणा
हिमालय के बारे में महाकवि कालिदास ने कहा है कि वह पृथ्वी को मापने का पैमाना है- स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः। यह भले उसकी विशालता का मात्र संकेत हो लेकिन इसी श्लोक में हिमालय के लिए प्रयुक्त देवतात्मा शब्द निश्चित रूप से उसे देवभूमि घोषित करता है। प्राचीन काल से आधुनिक काल तक ऋषि-मुनि-महात्मा यहाँ की कंदराओं में तपस्या करते आ रहे हैं। अनेक धार्मिक कथाएँ पुराणों में वर्णित हैं तो बहुत सारी कथाएँ यहाँ के लोककंठ में ही रची बसी है। हिमालयीय लोकसंस्कृति में अपने सनातन धर्म के प्रति गहरी निष्ठा है अतः जहाँ कहीं लोकजीवन है वहाँ एक मन्दिर अवश्य है। यहाँ महर्षि अगस्त्य की भी लोककथाएँ हैं तथा उनके बारह राजर्षि शिष्यों की कथाएँ हैं जिन्हें समाज अपना रक्षक मानती हैं। इन्हीं में से एक हैं- कर्माजीत। इनका मन्दिर रुद्रप्रयाग जिले के पिल्लू भैर गाँव में है। इस मन्दिर के बारे में लोककथा यहाँ प्रस्तुत है।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक