धर्मायण अंक संख्या 143 मन-विशेषांक
ज्येष्ठ, 2081 वि. सं. 24 मई-22 जून 2024 ई.
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अंक की आलेख-सूची एवं विवरण
1. भारतीय साहित्य में मन का व्यापक स्वरूप- श्री अरुण कुमार उपाध्याय
मन पर भारतीय परम्परा में अनेकविध विवेचन हुए हैं। मन के विभुत्व और व्यापकत्व का भी विवेचन हुआ है। एक ओर मन की आधुनिक परिभाषा उसे चेतन तत्त्व मानती है, किन्तु बुद्धि, आत्मा, विवेक, आदि के साथ अंतर को स्पष्ट करने में वह परिभाषा पर्याप्त नहीं है, वही भारतीय साहित्य में मन के व्यापक प्रयोगों को यदि हम एकत्र कर उसका विवेचन करें तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है। वेद, उपनिषद्, पुराण तथा अन्य शास्त्रीय वाङ्मय में मन का अनेक रूप में विवेचन हुआ है। मन की भारतीय परिभाषा में श्वो-वसीयस मन, अग्नि-जिह्वा मन, मन के परमाणु, व्यक्ति मन के विवेचन के साथ मन की परिभाषा दी गयी है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति का परिचय अनेक प्रकार से दिया जा सकता है उसी प्रकार मन का भी परिचय चन्द्रमा, पृथ्वी आदि गतिशील पदार्थों के सन्दर्भ में भी दिया जा सकता है। इस प्रकार मन का सम्बन्ध ग्रहों के साथ भी हो जाता है। मन को सामान्यतः चंचल कहा जाता है वस्तुतः वह उसकी गतिशीलता है और इसी गतिशीलता के सन्दर्भ में मनोजव शब्द का प्रयोग भारतीय साहित्य में हुआ है। इसका विवेचन यहाँ प्रस्तुत है।
2. वेदान्त-दर्शन में मन एवं उसका निग्रह- श्री राधा किशोर झा
मन एक इन्द्रिय है लेकिन प्रश्न उठता है कि वह कर्मेन्द्रिय है या ज्ञानेन्द्रिय? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि वह दोनों है उभयात्मक है, क्योंकि कर्मेन्द्रियाँ भी मन के विना कोई कार्य नहीं करती है। वाणी जो कि कर्मेन्द्रिय है मन के अनुसार ही कार्य करती है। इस सन्दर्भ में वाङ्मनस् संवाद शतपथ ब्राह्मण, 1.4.5.8-13. मार्मिक है। मन और वाणी में विवाद है जिस पर प्रजापति कहते हैं, मन ही श्रेष्ठ है। मन ही मनुष्यों के मोक्ष एवं बन्धन का कारण है। वेदान्त शास्त्र, जिसका उद्देश्य ज्ञान-प्राप्ति अथ च मोक्षप्राप्ति है मन की व्याख्या कर उसके निग्रह को ही परम उपाय मानता है। वैदिक संहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, मनुस्मृति, गीता, पुराण तथा शंकराचार्य के ग्रन्थों का उद्धरण देते हुए लेखक ने यहाँ वेदान्त के अनुसार मन का विवेचन किया है। लेखक ने दिखलाया है कि इसी मन के निग्रह के लिए चार आश्रमों की व्यवस्था दी गयी है ताकि मनुष्य धीरे-धीरे मन को नियन्त्रित कर परमशान्ति को पा सके।
3. न्याय-वैशेषिक तन्त्र में मनस्तत्त्व- पं. शम्भुनाथ शास्त्री ‘वेदान्ती’
भारतीय परम्परा में वेदों पर आधारित छह दर्शन है- न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग तथा मीमांसा-वेदान्त। इनमें न्याय-वैशेषिक पदार्थ-विज्ञान है, जो तत्त्वों तथा द्रव्यों की विवेचना करते हैं। इस दर्शन में विवेचित 7 पदार्थों में ईश्वर नहीं हैं। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष समवाय एवं अभाव इन्हीं पदार्थों के आधार पर यह विज्ञान सकल सृष्टि का तत्त्वदर्शन करता है। इनमें से प्रथम द्रव्य के अंतर्गत नौ तत्त्वों का विवेचन है- पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक् आत्मा एवं मन। इस प्रकार मन द्रव्य है, जिसके स्वरूप पर न्याय-वैशेषिक में विवेचन हुआ है। मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ- इस प्रकार के भाव मन में आते हैं और उसी से अनुकूलता एवं प्रतिकूलता का बोध होता है। न्याय-वैशेषिक का मानना है कि यह सुख-दुःख हमें एकांगी होता है, अतः मन का एकदेशित्व है। यही कारण है कि हम रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता को एक साथ अनुभव कर सकते हैं।
4. ‘गीता’ एवं ‘मानस’ में मन का विज्ञान- डॉ. कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव
श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषदों का सारभूत ग्रन्थ है तो तुलसीदास विरचित रामचरितमानस लोक-व्यवहार तथा शास्त्रों की भारतीय परम्परा का फल है। तुलसीदासजी ने शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को सरल भाषा में समझाने का महान् कार्य किया है। इन दोनों ग्रन्थ-मणियों में मन को अनेक प्रकार से विवेचित किया गया है। मन के चंचल होने का दुष्परिणाम को समझाया गया है तथा उसके निग्रह का उपाय बतलाकर मानव जीवन को ऊँचाइयों तक पहुँचाने का मार्ग प्रशस्त किया गया है। गीता तो मन को सर्वोपरि- सबसे महत्त्वपूर्ण मानती है। जहाँ भगवान् के विभुओं का वर्णन है वहाँ मन को इन्द्रियों में श्रेष्ठ माना गया है। मानस के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उन्होंने मन के विवेचन में वेदान्त की परम्परा का अनुसरण करते हुए इसकी चार वृत्तियाँ मान कर अंतःकरण-चतुष्टय का प्रतिपादन किया है। गीता भी मन के सन्दर्भ में वेदान्त की परम्परा को स्पष्ट करती है। इस प्रकार दोनों का विवेचन समान भावभूमि पर है। लेखक ने इसी तथ्य का प्रतिपादन किया है।
5. ‘धम्मपद’ में चित्त का निरूपण- श्री प्राणशङ्कर मजुमदार
भारतीय परम्परा के बौद्धमत में ‘धम्मपद’ सबसे महत्त्वपूर्ण तथा प्रामाणिक माना जाता है, क्योंकि इसे बुद्ध का प्रत्यक्ष वचन माना गया है। इसका आरम्भ ही मन या चित्त के विवेचन से हुआ है, क्योंकि इसे सभी प्रकार के कार्यों का अगुआ कहा गया है। सभी प्रवृत्तियाँ मन के पीछे-पीछे चलती है अतः मन यदि नियंत्रण हो जाये तो सभी कार्य संतुलित हो जाएँगे। मन के इसी स्वरूप को शतपथ ब्राह्मण भी प्रतिपादित करता है कि मन के विना कोई कार्य सम्भव नहीं है। बौद्ध दार्शनिक वसुवन्धु ने चित्त, मन, विज्ञान तथा विज्ञप्ति को पर्याय माना है और इसी चित्त को नियंत्रित कर जीवन को सुखमय बनाने का उपाय बतलाया है। बुद्धत्वप्राप्ति के समय मार-विजय की जो कथा बौद्धों में प्रचलित है वह भी मनोनिग्रह है जो विषयों की ओर दौड़ते हुए चंचल घोड़ा रूपी इन्द्रियों को वश में करने की कथा है। वास्तव में बौद्ध मत भी मन के विषय में मूलतः इन्हीं सिद्धान्तों का अनुसरण करता है, जो हमें शतपथ ब्राह्मण तथा कठोपनिषद् में मिलते हैं।
6. ज्योतिष शास्त्र में मन का चिन्तन- डॉ. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य
ज्योतिष शास्त्र पृथ्वी को चारों ओर दृश्यमान आकाश को जिसमें सभी ग्रह एवं नक्षत्र दिखाई पड़ते हैं उन्हें परावलय के रूप में प्रथमतः 27 भागों में विभक्त करता है जिन्हें हम नक्षत्रमण्डल कहते हैं। पुनश्च इन्हें 12 भागों में प्रत्येक 30 अंश को राशियाँ कहते हैं। गतिमान ग्रह एवं नक्षत्र जातक के जन्म समय में क्षितिज से कितने अंश पर अवस्थित हैं, उसकी रश्मियाँ कितने अंश कोण से पृथ्वी के किस अक्षांश-देशान्तर पर पड़ता है, इसी का विवेचन कर फलादेश किया जाता है। इनमें मन संबंधी गतिविधियों का फलादेश चन्द्रमा की गति के आधार पर होता है। लेखक ने विवेचन किया है कि शरीर कैसा होगा इसके लिए देखा जाता है कि उस समय क्षितिज पर कौन ग्रह है किन्तु उस जातक का चित्त कैसा रहेगा, जिसके आधार पर वह सहज, सुहृत्, रिपु, जाया, कर्म, धर्म, आय-व्यय आदि के साथ तालमेल बैठाएगा, इसके लिए चन्द्रमा को हम क्षितिज पर बैठाकर उससे विवेचन करते हैं जो चन्द्रकुण्डली कहलाती है। इस प्रकार, जातक की कुण्डली में सबसे अधिक प्रभावी चन्द्रमा होते हैं।
7. ज्योतिष शास्त्र में मन और चन्द्रमा का सम्बन्ध- आचार्या कीर्ति शर्मा
पिछले आलेख में हमने देखा कि ज्तिष शास्त्र के अनुसार चन्द्रमा की अवस्थिति को जातक के लिए फलादेश करने में सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसी सिद्धान्त के आधार पर हम केवल राशि यानी किस चन्द्रमा से युक्त राशि के आधार पर जातक का दैनिक राशिफल भी निकाल लेते हैं और वह बहुत हद तक सामान्य व्यक्तियों के लिए सटीक बैठ जाता है। अब प्रश्न उठता है कि चन्द्रमा के किस भाव में अवस्थित रहने पर क्या फल मिलेगा? इसका विवेचन आचार्य वराहमिहिर ने बृहज्जातक में किया है। वराहमिहिर के कथन को बाद के ज्योतिषियों ने हू-बहू उतार लिया है। वराहमिहिर ने कहा है कि यदि जिस राशि में चन्द्रमा अवस्थित हैं उसी राशि में जातक का जन्म हो जाये तो उसकी बोलने की शक्ति तथा सुनने की शक्ति क्षीण हो जाती है। इतना ही नहीं, उसका शरीर भी कफ से ग्रस्त हो जाता है। इस प्रकार, चन्द्रमा की गति के साथ जातक के मन का सम्बन्ध यहाँ स्पष्ट किया गया है।
8. मानव मस्तिष्क तन्त्रिका तन्त्र की इकाई न्यूरॉन- डॉ. तेज प्रकाश पूर्णानन्द व्यास
मानव मस्तिष्क का जब हम आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से विवेचन करते हैं तो हमें न्यूरॉन कोशिकाओं को देखना पड़ता है। पूरा मस्तिष्क इन्हीं कोशिकाओं से भरा है, जिसकी गतिविधि से हमारा मन नियन्त्रित होता है। इन्हीं न्यूरॉन कोशिकाओं में अनुभूतियाँ होती हैं और हम सुख-दुःख, वेदना आदि का अनुभव करते हैं। सामान्यतः ये कोशिकाएँ गतिशील रहती हैं, चंचल रहती है। लेकिन जब इन्हें एकजुट कर एक दिशा में गतिशील किया जाता है तब हम किसी विचार को संकल्प में बदल पाते हैं। लेखक का मानना है कि इन्हीं से जुड़े तन्त्रिका तन्त्र हमारी सभी गतिविधियों को नियन्त्रित करती हैं और हम देखने सुनने, सूँघने आदि की क्षमता पाते हैं, हमारी कर्मेन्द्रियाँ तथा ज्ञानेन्द्रियाँ कार्य कर पाती हैं। लेखक ने सिद्ध किया है कि इन्हें नियंत्रित करने के लिए हमें अपने आहार को नियन्त्रित करना पड़ेगा। यदि हम सात्त्विक आहार लेते हैं तो अल्प प्रयास से ही ये न्यूरॉन शान्त रह पाते हैं, एक दिशा में संगठित हो पाते हैं। अतः हमें रंगीन फलों तथा सब्जियों का व्यवहार अधिक से अधिक मात्रा में करना चाहिए ताकि मन पर नियन्त्रण पा सकें।
9. मन के विषय में आधुनिक चिन्तकों के विचार- डॉ. काशीनाथ मिश्र
भारतीय परम्परा में मन का विवेचन मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, न्याय-वैशेषिक दर्शनों में तथा ज्योतिष में हुआ है, जिनमें मन की श्रेष्ठता सिद्ध की गयी है और कहा गया है कि परम शान्ति के लिए मन को जानना तथा उसका निग्रह करना सबसे आवश्यक है। उसी के कारण हम विपत्तियों में फँसते हैं तथा अपने लक्ष्य से दूर भटक जाते हैं। उसी मन विभेद का भाव उत्पन्न होता है और यदि हम बुद्धि से उसको संयमित कर लेते हैं तो अभेद बुद्धि से आत्मा का दर्शन हो जाता है। मन के इस बल को आधुनिक विचारकों में विवेकानन्द ने बहुत निकट से पहचाना है। इस आलेख में भारतीय तथा पाश्चात्त्य आधुनिक दार्शनिकों के मत में मन का विवेचनकिया गया है। मन पर अंगरेजी भाषा में अनेक आधुनिक दार्शनिकों के ग्रन्थ हैं जिनमें प्रतिपादित विचारों को यहाँ एकत्र कर हिन्दीभाषी पाठकों के लिए सुलभ कराया गया है।
10. आश्रमों में श्रेष्ठ- गृहस्थाश्रम- विद्यावाचस्पति श्री महेश प्रसाद पाठक
भारतीय परम्परा मानव जीवन में चार चरणों का प्रतिपादन करती है, जो चार आश्रमों के रूप में प्रसिद्ध हैं। विद्याध्ययन तथा ब्रह्मचर्य के पालन की अवस्था ब्रह्मचर्य-आश्रम है तो उत्पादन एवं भरण-पोषण का उद्देश्य लेकर गृहस्थ आश्रम है। लेखक ने सिद्ध किया है कि यह आश्रम रमणस्थल नहीं वास्तिविक रूप से तपःस्थल है। यदि हम वैदिक सिद्धान्त पर चलते हैं तो गृहस्थों का जीवन अत्यन्त कठिन है। रामकृष्ण परमहंस ने एक बार कहा था कि जैसे कटहल काटते समय कुशल गृहिणी हाथ में सरसों का तेल लगा लेती है ताकि लस्सा हाथ में न लगे, वैसे ही गृहस्थ जीवन में हमें विषयों का भोग करते हुए भी विषयों से निर्लिप्त रहना होता है। विष में हाथ डुबाना है,लेकिन हम विषाक्त न हों इसका ध्यान हमें गार्हस्थ्य जीवन में रखना होता है। इसके लिए मन का निग्रह एकमात्र उपाय है, जिसे हम कर सकते हैं। इस तरह गार्हस्थ्य जीवन सबसे कठिन अथच सबसे महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
11. आधुनिक मनश्चिकित्सा की विभिन्न विधियाँ- श्री संजय गोस्वामी
आधुनिक काल में बाजारवाद हमें तरह-तरह के उपभोग्य वस्तुओं को सामने लाकर लुभा रहा है। दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इन्द्रिय रूपी बिगड़ैल घोड़ों चारों ओर से चारा देकर उसे खीचा जा रहा है और हम उन इन्द्रियों को मन के लगाम से संयमित नहीं कर पा रहे हैं। फलतः मानसिक रोग दिनानुदिन बढते जा रहे हैं। आज हम अकेलापन की ओर बढ़ते जा रहे हैं और वह अकेलापन हमें असुरक्षित अनुभव करा रहा है। मनोरोगियों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोत्तरी का एक कारण यह भी है। इस आलेख में लेखक ने मनोरोग की चिकित्सा के अनेक आयामों का वर्णन किया है जिसके अध्ययन से हमें कारणों का भी पता चल जाता है। अतः मन को संयमित कर उन्नति के मार्ग पर चलना चाहिए।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक