धर्मायण अंक संख्या 145 उपाकर्म-विशेषांक
अंक 145, श्रावण, 2081 वि. सं., 22 जुलाई -19 अगस्त 2024ई.
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शीर्षक एवं विषय-वस्तु
1. कृतस्य तु विशोधाय उपाकर्म समाचरेत्- सम्पादकीय
पुराणों में इस उपाकर्म के प्रति लोगों को आकृष्ट करने के लिए कथाएँ लिखी गयी हैं। ब्रह्मपुराण का मानना है कि इसी श्रावणी पूर्णिमा के दिन हयग्रीव रूप में विष्णु ने सामवेद का गायन किया था अतः इस दिन उपाकर्म कर वेदारम्भ करना चाहिए।
कालिका पुराण ने भी एक अन्य कथा लिखी है कि श्रावण शुक्ल चतुर्दशी को मधु एवं कैटभ दैत्यों का जन्म हुआ। उन्होंने वेदों को ब्रह्मा से छीन लिया और उन्हें लेकर पाताल चले गये। पाताल में रहने वाले उन दोनों भाइयों मधु एवं कैटभ को मार कर भगवान् विष्णु ने वेदों को छुड़ाया और ब्रह्मा को सौप दिया। ब्रह्मा को सौंपने का यह कार्य सूर्योदयव्यापिनी पूर्णिमा तिथि में हुई थी। अतः चतुर्दशी से युक्त पूर्णिमा तिथि में उपाकर्म नहीं करना चाहिए।
2. उपाकर्म : महत्त्व एवं विधान-विद्यावाचस्पति महेश प्रसाद पाठक
पतंजलि ने महाभाष्य के आरम्भ में लिखा है कि ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च। छह अंगों के साथ वेदाध्यन करना ब्राह्मणों का स्वाभाविक धर्म है, यानी नित्यकर्म है। स्वाध्यायोऽध्येतव्यः और स्वाध्यायस्तपः ये सब इसी भाव के परिपोषक अनुशासन हैं। यहाँ पर कहा गया है कि श्रावण मास से पौष मास पर्यन्त दोनों पक्षों में वेद की संहिता का अध्ययन किया जाना चाहिए। इसके बाद पौष से पुनः श्रावण पर्यन्त केवल शुक्लपक्ष में संहिता का अध्ययन तथा कृष्णपक्ष में अन्य वेदाङ्गों अध्ययन करना चाहिए। वेद-संहिता के अध्ययन का जो मुख्य काल है इसका आरम्भ उपाकर्म से होता है और उस पवित्र अवधि का अन्त उत्सर्जन काल से होता है। यह वेदाध्ययन की प्राचीन परम्परा थी। इस पवित्र काल का आरम्भ प्रायश्चित्त कर मन एवं शरीर से शुद्ध होकर किया जाता था। वर्तमान में उपाकर्म भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में किए जाते हैं, किन्तु वेदाध्ययन गौण हो गया है तथा शरीर एवं मन की शुद्धि महत्त्वपूर्ण हो चला है। इस उपाकर्म के सैद्धान्तिक महत्त्व पर यहाँ विमर्श प्रस्तुत है।
3. उत्तराखण्ड में श्रावणी उपाकर्म- डॉ. ललित मोहन जोशी
देवभूमि उत्तराखण्ड हिमालय की दुर्गम शृंखलाओं के कारण परम्परा को सुरक्षित रखने में अग्रणी है। यहाँ बहुत कुछ प्राचीन परम्परा आज भी सुरक्षित है। श्रावण की पूर्णिमा के दिन को रक्षाबन्धन का दिन न कहकर आज भी यहाँ कुमाउँनी भाषा में ‘जन्योपुन्यू’ यानी यज्ञोपवीत पूर्णिमा कहा जाता है। ध्यातव्य है कि यही शब्द नेपाल में भी हिमालयीय क्षेत्रों में ‘जनै-पूर्निमा’ के रूप में प्रचलित है। स्पष्ट है कि इन क्षेत्रों में यज्ञोपवीत बदलने की विधि के साथ किया जाने वाला उपाकर्म लोकप्रचलन में है। दक्षिण भारत में भी ‘अवनि-अवित्तम्’ इस उपाकर्म को कहते हैं। इसका अर्थ है कि हिमालय से लेकर सुदूर दक्षिण तक यह उपाकर्म तथा वेदाध्ययन लोक-परम्परा में समाहित है। यहाँ उत्तराखण्ड में उपाकर्म की पारम्परिक विधि का विस्तार से वर्णन किया गया है।
4. भारत के विभिन्न क्षेत्रों में उपाकर्म
उपाकर्म सनातन धर्म का प्रसिद्ध पर्व है। यह सामान्यतः रक्षाबन्धन यानी श्रावण की पूर्णिमा में मनाया जाता है। विशेष परिस्थिति आने पर अर्थात् यदि उसी दिन संक्रान्ति हो अथवा ग्रहण लग जाए तो दस दिन पहले ही पंचमी को किया जाता है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से हमने उपाकर्म पर लघु आलेख का संकलन किया है। दक्षिण भारत में जो अवनि अवित्तम् के नाम से उपाकर्म मनाया जाता है उसपर टी. एस. षण्मुख शिवाचार्य एवं दीपा दुराइस्वामी लिखित विशाल आलेख धर्मायण की अंक संख्या 21 में पूर्व प्रकाशित है। इसके अतिरिक्त यहाँ चार लघु लेख एक साथ संकलित किए गये हैं- 1. पश्चिम भारत में उपाकर्म 2. झारखण्ड में उपाकर्म 3. सरस्वती तीर्थ पर उपाकर्म एवं 4. हरियाणा में उपाकर्म। इन चारों लेखों के साथ लेखकों द्वारा प्रेषित चित्र भी हैं। इन्हें पढ़ने से स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि सम्पूर्ण भारत में आज भी उपाकर्म मनाने की परम्परा है। इसकी विशेषता है कि दशविधस्नान, तीर्थस्नान, हेमाद्रि-संकल्प, यज्ञोपवीत-पूजन, पितृतर्पण, ऋषितर्पण तथा देवतर्पण सामान्य रूप से हर स्थान की परम्परा में है।
5. चान्द्र संवत्सर : एक विमर्श- डॉ. रामाधार शर्मा,
वर्तमान संवत् 2081 के संवत्सर का नाम लेकर पर्याप्त विवाद हो चुका है। कुछ लोग इसका नाम पिंगल मानते हैं तो कुछ क्रोधी मानते हैं, कुछ काल या कालयुक्त मानते हैं। यह विवाद क्या है? यह बहुत महत्तवपूर्म प्रश्न है क्यों कि आज भी भारत के सभी स्थानों पर संकल्प में संवत्सर के नाम का प्रयोग होता है। हस्तलिखित ग्रन्थों की पुष्पिकाओं में वर्षगणना के साथ-साथ इन संवत्सरों का भी उल्लेख कम से कम पाँच सौ वर्षों से हमें मिल रहा है। ऊपर एक पाण्डुलिपि का फोटो है, जिसमें संवत् 1623 में भाव नामक संवत्सर का उल्लेख हुआ है।
सिद्धान्त ज्योतिष तथा आधुनिक खगोल शास्त्र के अधिकारी विद्वान् डा. रामाधार शर्मा की मान्यता है कि भारत में साठ संवत्सरों का चक्र चलता है, जसकी गणना की परम्परा दक्षिण भारत में अलग है तथा उत्तर भारत में अलग है। इसलिए भी नामकरण में अन्तर आ जाता है। दूसरा सबसे बड़ा कारण है कि बार्हस्पत्य एवं चान्द्र संवत्सर दो अलग-अलग हैं। ज्योतिष की गणना में बार्हस्पत्य संवत्सर का व्यवहार होता है तो संकल्प आदि में चान्द्र संवत्सर का। इसी चान्द्र संवत्सर पर यहाँ प्रकाश डाला गया है।
6. उपासना से संस्कृति तक की यात्रा-स्मृतियाँ- श्रीमती रंजू मिश्रा
लोक-परम्परा जीवन्त धारा की तरह चलती है, चाहे वह लोकगाथाओं की धारा हो चाहे उपासना की धारा। यदि हम उस लोक से जुड़े होते हैं और परम्परा का पालन करते जाते हैं तो हमें शास्त्र से जुड़ने की आवश्यकता नहीं रह जाती है। लेकिन यह सब तभी सम्भव हो पाता है जब निश्छल भाव से उपासना को अपने में आत्मसात् करने की क्षमता आ जाए। इस लोकधारा में उपास्य प्रतिक्षण हमारे सुख-दुःख के सहचर होते हैं और उनकी उपस्थिति का अनुभव हमें होते रहता है। यही कारण है कि जाड़े के महीने में हम पत्थर अथवा धातु की मूर्ति को भी ऊनी कपड़ा से ढकते हैं, जैसे उन्हें भी जाड़े का अनुभव हो रहा हो। इस एकात्मकता की स्थिति आने पर भक्त भगवान् के साथ संयुक्त हो जाता है और यही भक्ति की पराकाष्ठा है। यह पूरा आलेख इसी परिवेश और धारा की कथा है, जहाँ शिव, राम, शक्ति तथा कृष्ण उपासना की संस्कृति विकसित हो चुकी है। लेखिका स्वयं इस परिवेश में अपना जीवन बिता चुकीं हैं।
7. धर्मस्वामी के वृत्तान्त में उल्लिखित ज्ञाननाथ मन्दिर की पहचान- श्री मनोज कुमार,
8. नालन्दा विश्वविद्यालय के विध्वंस का समकालीन साक्ष्य (‘मिनहाजुद्दीन सिराज लिखित “तबकात-ए-नासीरी”)- हिन्दी अनुवादक- भवनाथ झा
पिछले अंक में हमने नालन्दा विश्वविद्यालय के ध्वंस की गाथा तिब्बती यात्री धर्मस्वामी के यात्रा-वृत्तान्त से सुनायी थी। इसका अनुवाद एवं अंगरेजी दोनों पूर्व अंक में प्रकाशित हैं। यहाँ बख्तियार खिलजी के साथ चलने वाले योद्धा शमसुद्दीन के मुँह से सुनकर मिनहाजुद्दीन सिराज ने तबकात ए नासीरी में जो विवरण दिया है वह संकलित है।
‘मिनहाजुद्दीन सिराज” (मिनिहाजुद्दीन अबू-उमर-बिन सिराजुद्दीन अल जुजियानी) ने कुल 23 अध्यायों में इस्लामी दुनिया का विस्तृत इतिहास ‘तबकात-ए-नासिरी’ लिखा था। इस की रचना 1260 ई. में पूरी हुई है। इसमें लेखक ने निकट भूतकाल में हुई घटनाओं का वर्णन किया है। बहुत स्थलों के लेखन में उन्होंने स्रोत का भी नाम इमानदारी से दिया है, अतः इसकी प्रामाणिकता मानी जाती है।
इस विशाल फारसी ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद मेजर एच.जी. रवेर्टी द्वारा फारसी की पाण्डुलिपियों के आधार पर किया गया है। इसका प्रकाशन 1875ई. में एसियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल से दो भागों में हुआ है। इसके पहले भाग के 20वें खण्ड का पाचवाँ अध्याय है जिसमें बख्तियार खिलजी के द्वारा बिहार, बंगाल, आसाम तथा तिब्बत पर आक्रमण का विवरण है। मिनहास ने स्पष्ट किया है कि “वहाँ फरगना के दो भाई विद्वान् थे, एक निजाम-उद-दीन और दूसरा शमशाम-उद-दीन [नाम से], जो मुहम्मद-ए-बख्त-यार की सेवा में थे; और इस पुस्तक के लेखक (मिनहाजुद्दीन सिराज) ने 641 हिजरी में लखनावती में शम-उद-दीन से मुलाकात की, और यह विवरण उन्हीं से लिया गया है।”
इस विवरण में स्पष्ट है कि बख्तियार खिलजी ने पटना समीप स्थित मनेर घाट तथा बिहार अर्थात् बिहारशरीफ एवं नालंदा का सम्मिलित क्षेत्र में अनेक बार लूट-पाट मचाता था। अंतिम बार कुतुबुद्दीन ऐबक के द्वारा प्रेरित होकर वह सेना को संगठित कर नालंदा पहुँचा और वहाँ उसने सबकी हत्या कर डाली तथा नालंदा को लूटकर सारा धन दिल्ली दरबार पहुँचा आया। नालंदा से वह आगे बढ़कर नदिया पहुँचा जहाँ बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन रहते थे। लक्ष्मणसेन को भागकर जगन्नाथपुरी में शरण लेनी पड़ी। इसके बाद वह आसाम की बढ़ा। वर्धमान, कामरूप, होते हुए बह तिस्ता नदी को पार कर तिब्बत की घाटी में पहुँचा, जहाँ बुरी तरह उसे हार मिली और वह लौट गये। लौटते समय कामरूप के राजा ने तिस्ता को पार करने वाले पुल को ध्वस्त कर दिया। नदी में उतर कर उसने पार करने की कोशिश की तो उसके सारे सैनिक बह गये। बख्तियार का सहायक और मार्गदर्शक अली मेज बची-खुची सेना के साथ किसी तरह बख्तियार खिलजी को दीवकोट यानी दक्षिणी-पश्चिमी दिनाजपुर के पास स्थित कोटीश्वर ले आता है, जहाँ उसकी मृत्यु या तो बीमारी से हो जाती है या उसी का एक सिपहसालार अली-ए-मरदान उसकी हत्या कर देता है।
यहाँ पूरा अंश हिन्दी अनुवाद के साथ दिया जा रहा है। उपशीर्षक वर्तमान सम्पादक द्वारा जोड़े गये हैं।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक