धर्मायण के श्रावण 2079 वि.सं. के प्रस्तावित केन्द्रीय विषय
‘धर्मायणʼ का अगला श्रावण मास का अंक इस बार रक्षाबन्धन-विशेषांक के रूप में प्रस्तावित है। श्रावण पूर्णिमा के दिन रक्षाबन्धन का पर्व मनाया जाता है। वर्तमान में यह भाई-बहन के पर्व के रूप में प्रसिद्ध हो गया है। इस रूप में रक्षाबन्धन की प्रसिद्धि कुछ दशकों से रही है।
इससे पहले यह ब्राह्मण पुरोहितों के द्वारा यजमान को रक्षिका बाँधने का पर्व था। इन पंक्तियों के लेखक को अपने बचपन में देखा हुआ है कि इस दिन तीन-चार वृद्ध ब्राह्मण घर पर आकर परिवार के सभी सदस्यों को रक्षिका बाँधते थे। बदले में उन्हें दक्षिणा दी जाती थी।
पौराणिक कथाओं के आलोक में राजा बलि को उनके गुरु शुक्राचार्य में रक्षा-सूत्र बाँधा था। शुक्राचार्य ने किन-किन जड़ी-बूटियों को बाँधकर वह पोटली बनायी थी, जिसे मणि कहा गया? क्या वे दिव्य औषधियाँ थीं? गम्भीर शोध से सम्भव है कि कहीं इसका उल्लेख मिल जाये कि मूलतः कौन-सी औषधि थी।
आषाढ में सर्पगन्धा की जड़ को कलाई पर बाँधने की परम्परा आज तक है।
यदि हम अथर्ववेद की बात करें तो वहाँ प्रतिसर-बन्धन का उल्लेख है। कहा गया है कि वीर व्यक्ति इसे दूसरे की कलाई पर बाँधता था, जिससे रक्षा होती थी। रक्षाबन्धन के सन्दर्भ में इसकी पूरी विकास-यात्रा हमारे सामने है।
दूसरी ओर विवाह के समय वर-वधू की कलाई में कंगन बाँधा जाता है। वर्तमान में आम के पत्ते में अक्षत डालकर पुरोहित इसे बनाते हैं तथा लाल रंग के धागे से वर-वधू की कलाई में बाँधते हैं। यह परम्परा इतनी पुरानी तो अवश्य है कि कालिदास ने कुमारसम्भव के सप्तम सर्ग में शिव-पार्वती परिणय के अवसर पर स्त्रियों के द्वारा कलाई में सूत्र बाँधने का उल्लेख किया है।
आज भी प्रत्येक पूजा के अवसर पर तथा विभिन्न तीर्थ स्थानों में यजमान के हाथों में रक्षासूत्र बाँधा जाता है। मन्त्र वही है जो रक्षाबन्धन के दिन रक्षिका बाँधने का है- येन बद्धो बली राजा इत्यादि।
लोकाचार में बच्चे को आश्विन प्रारम्भ होते ही ‘हींगराईʼ बाँधा जाता है। पीले रंग के कपड़ा में हींग और राई डालकर काले धागे से बाँधकर गला में या बाँह पर इसे बाँधते हैं। इस प्रकार की स्थानीय लोक परम्पराओं पर भी विवेचन अपेक्षित होगा जिससे यह पता चल सकेगा कि भारत के अन्य स्थलों में और कौन-सी वस्तु इस पोटली में डाली जाती है।
विवेचनीय है कि क्या ये सारी परम्पराएँ एक ही हैं? इससे सम्बन्धित विशेष विवेचन करते हुए आलेख आमन्त्रित हैं।
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महावीर मन्दिर प्रकाशन
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महावीर मन्दिर प्रकाशन
धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक