धर्मायण

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    • पुस्तक समीक्षा- ‘भारतीय संकृति और गकार के प्रतीक।’

      पुस्तक समीक्षा- ‘भारतीय संस्कृति और गकार के प्रतीक।’ लेखक- डा. बिन्देश्वरी प्रसाद ...

      November 17, 2022
      0
    • Dharmayana Article Index

      धर्मायण के सभी अंकों में प्रकाशित आलेखों की सूची- खोज करें

      June 29, 2022
      0
    • पं. वंशदेव मिश्र

      धर्मायण के पूर्व संपादक पं. वंशदेव मिश्र का संक्षिप्त परिचय

      February 21, 2022
      0
    • Dr. Nagendra Kumar Sharma

      डा. नागेन्द्र कुमार शर्मा

      October 20, 2021
      1
    • डा. रामकिशोर झा विभाकर

      डॉ० रामकिशोर झा ‘विभाकर’

      October 13, 2021
      1
    • Mahesh Prasad Pathak

      श्री महेश प्रसाद पाठक

      October 2, 2021
      1
    • डा. सुन्दरनारायण झा

      डा. सुन्दरनारायण झा

      September 21, 2021
      1
    • डा. विजय विनीत

      डॉ० विजय विनीत

      September 21, 2021
      2
    • प. शम्भुनाथ शास्त्री वेदान्ती

      शत्रुघ्नश्रीनिवासाचार्य पंडित शम्भुनाथ शास्त्री ‘वेदान्ती’

      September 21, 2021
      2
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      Dharmayan vol. 88

      January 2, 2021
      0
    • Dharmayan vol. 89 cover

      Dharmayan vol. 89

      January 2, 2021
      1
    • धर्मायण अंक संख्या 85, माघ-चैत्र 2071 वि.सं., जनवरी-मार्च 2015 ई.

      Dharmayan vol. 85

      May 10, 2020
      1
    • Dharmayan vol. 84

      Dharmayan vol. 84

      May 10, 2020
      0
    • धर्मायण अंक संख्या 83

      Dharmayan vol. 83

      May 10, 2020
      0
    • “धर्मायण” की अंक संख्या 82

      Dharmayan vol. 82

      May 10, 2020
      1
    • Dharmayan vol. 81

      May 10, 2020
      0
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      May 9, 2020
      1
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  • अंक 91-100
    • धर्मायण अंक संख्या 100 का मुखपृष्ठ

      dharmayan vol.100 Surya-Upasana Ank

      October 30, 2020
      4
    • धर्मायण अंक 97

      Dharmayan vol. 97 Nag-puja Ank

      July 5, 2020
      6
    • Dharmayan vol. 96

      June 12, 2020
      0
    • आवरण धर्मायण, अंक 95

      Dharmayan vol. 95 Ganga Ank

      May 7, 2020
      2
    • धर्मायण अंक संख्या 94, वैशाख 2077 वि.सं.

      Dharmayan, vol. 94

      April 20, 2020
      2
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  • अंक 101-110
    • Dharmayan, vol. 110 Saptarshi Ank

      धर्मायण अंक संख्या 110, सप्तर्षि अंक

      August 22, 2021
      1
    • Dharmayan, vol. 110 Saptarshi Ank

      धर्मायण अंक संख्या 110, सप्तर्षि विशेषांक

      August 22, 2021
      1
    • Dharmayan, vol. 110 Saptarshi Ank

      Dharmayan vol. 110 Saptarshi Ank

      August 16, 2021
      1
    • pdf free book

      धर्मायण अंक संख्या 109 पी.डी.एफ

      July 24, 2021
      1
    • फ्लिक बुक पढें

      धर्मायण अंक 109 फ्लिप बुक

      July 24, 2021
      1
    • Dharmayan vol. 109 Brahma Ank

      Dharmayan vol. 109 Brahma Ank

      July 20, 2021
      2
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      July 5, 2021
      1
    • धर्मायण का जगन्नाथ विशेषांक

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      July 5, 2021
      0
    • Dharmayan vol. 107 Jala-vimarsha-Ank

      May 18, 2021
      1
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  • अंक 111- 120
    • धर्मायण, अंक संख्या 120, चातुर्मास्य-विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 119, व्रत-विधि-विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 118, वैशाख-विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 117, भरत-चरित विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 116 शिव-तत्त्व अंक
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    • धर्मायण, अंक संख्या 113, हनुमान अंक, 2
    • धर्मायण, अंक संख्या 112, कार्तिक 2078 वि.सं., हनुमद्-विशेषांक, भाग 1
    • धर्मायण, अंक संख्या 111, आश्विन मास का अंक
  • अंक 121-130
    • धर्मायण, अंक संख्या 129, रामचरितमानस अंक
    • धर्मायण, अंक संख्या 128, संवत्सर-विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 127, वायु-विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 126, आगम विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 125, अगहन मास अंक
    • धर्मायण, अंक संख्या 124, यम विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 123, ब्राह्म-मुहूर्त अंक
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धर्मायण, अंक संख्या 123, ब्राह्म-मुहूर्त अंक

By सम्पादक-धर्मायण पत्रिका-महावीर मन्दिर, पटना
September 10, 2022
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dharmayan 123 cover

अंक 123, आश्विन, 2079 वि. सं., 11 सितम्बर से 9 अक्टूबर, 2022ई.

श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए वीर बहादुर सिंह, महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।

dharmayan 123 cover
अंक सं, 123
  • (Reg. 52257/90, Title Code- BIHHIN00719),
  • धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की पत्रिका,
  • मूल्य : पन्द्रह रुपये
  • प्रधान सम्पादक  आचार्य किशोर कुणाल
  • सम्पादक भवनाथ झा
  • पत्राचार : महावीर मन्दिर, पटना रेलवे जंक्शन के सामने पटना- 800001, बिहार
  • फोन: 0612-2223798
  • मोबाइल: 9334468400
  • सम्पादक का मोबाइल- 9430676240 (Whtasapp)
  • E-mail: dharmayanhindi@gmail.com
  • Web: www.mahavirmandirpatna.org/dharmayan/
  • पत्रिका में प्रकाशित विचार लेखक के हैं। इनसे सम्पादक की सहमति आवश्यक नहीं है। हम प्रबुद्ध रचनाकारों की अप्रकाशित, मौलिक एवं शोधपरक रचनाओं का स्वागत करते हैं। रचनाकारों से निवेदन है कि सन्दर्भ-संकेत अवश्य दें।
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आलेखोॆ के शीर्षक एवं विषयवस्तु का विवरण

1. ब्राह्मं मुहूर्तं विज्ञेयम्- सम्पादकीय

ब्राह्म मुहूर्त का यह अंक उन सभी पाठकों को समर्पित है जो भारतीय ज्ञान परम्परा पर गर्व करते हैं और उसे उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने वाला मानते हैं। यह विशेषांक वस्तुतः समय-प्रबन्धन से सम्बन्धित है। एक दिन में 24 घंटे होते हैं, जिनमें हमें नींद भी भरपूर लेनी चाहिए ताकि शरीर तथा मन स्वस्थ रहे। हमें सारे दैनन्दिन कार्य भी इसीमें करना है, तो समय प्रबन्धन की बात मुख्य रूप से सामने आती है।

2. स्वस्थ जीवन और ब्राह्म-मुहूर्त- डा. विनोद कुमार जोशी

सनातन भारतीय ज्ञान परम्परा में स्वस्थ का अर्थ है– परमात्मा में अवस्थित होना अर्थात् ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाना। आयुर्वेद में शारीरिक स्वास्थ्य के माध्यम से आत्मस्थित अवस्था को ‘स्वस्थ’ होना कहा गया है। आयुर्वेद का प्रयोजन इसी स्वस्थ (आत्मस्थित)  का भाव ‘स्वास्थ्य’ का प्रतिपादन है, जो कि साधनावस्था है। वेदान्त का प्रयोजन इसी की साध्यावस्था में ‘स्वास्थ्य’ (आत्मस्थिति) का प्रतिपादन है। दोनों ही अवस्थाओं में सूर्योदय से 1 घंटा 36 मिनट से लेकर 48 मिनट तक की जो शुभ वेला है, जिसे ब्राह्म मुहूर्त कहा जाता है, सुख और आयु के लिए महत्त्वपूर्ण है। उक्त वेला में आयुर्वेद शय्या त्याग जागने को कहता है और जीर्ण–अजीर्ण आहार के विवेचन करने का निर्देश देता है जो स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक है। इस प्रकार, शरीर से लेकर अध्यात्म (अन्तरात्म भाव– स्वभाव) तक की यात्रा में ब्राह्म मुहूर्त में जागरण महत्त्वपूर्ण है।

3. ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत- श्री महेश प्रसाद पाठक

रात्रि को जब हम 15 भागों में बाँटते हैं तो प्रत्येक भाग रात्रि का मुहूर्त कहलाता है। इनमें प्रत्येक मुहूर्त के अलग-अलग नाम कहे गये हैः. इऩ्हीं में 14वाँ मुहूर्त ‘ब्राह्म मुहूर्त’ कहलाता है और 15वाँ मुहूर्त ‘वायु’ जब रात 12 घंटे की हो तो एक मुहूर्त का मान 12 घंटा ÷ 15 = 48 मिनट का होगा। इस प्रकार सूर्योदय काल से पहले 48 मिनट ‘वायु मुहूर्त’ होगा तथा उससे 48 मिनट पहले ‘ब्राह्म मुहूर्त’ कहलायेगा। प्रातःकाल का यह ब्राह्म मुहूर्त अनेक प्रकार से महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसका अपना प्राकृतिक तथा आध्यात्मिक महत्त्व है। आयुर्वेद की दृष्टि से भी इस समय उठ जाने पर अनेक प्रकार के फायदे गिनाये गये हैं। यहाँ लेखक ने इस काल के आध्यात्मिक तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी गुणवत्ता का वर्णन किया है।

4. ब्राह्म मुहूर्त : सबके लिए अमृत-काल- श्री धनञ्जय कुमार झा

ब्राह्म मुहूर्त में जागरण तथा नित्यकर्म करना भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी सफलता के लिए आवश्यक माना गया है। 1855 ई. में एक पुस्तक की रचना इंग्लैड में हुई थी, जिसका शीर्षक आज हमारे बच्चों को कविता के रूप में रटाकर प्रातःकाल जगना सिखाया जाता है। हमारे ऋषि-मुनि और शास्त्रकार प्राचीन काल से इसकी महत्ता का बखान करते आ रहे हैं, जो सम्पूर्ण मानव के लिए हितकारी है। यहाँ तक कि काव्य-रचना के लिए भी उन्होंने रात्रि के चौथे पहर को सबसे उपयुक्त माना है। इस प्रातःकाल का प्रमुख कृत्य संध्यावन्दन है, जिसके सम्बन्ध में कहा गया है कि तारा के रहते ही जो संध्यावन्दन किया जाता है, वह विशेष फलदायी होता है।

5. भारतीय समय-गणना एवं उषाकाल- डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य

काल गणना के लिए जब हम आधुनिक पद्धति देखते हैं तो वहाँ व्यवहार हेतु घंटा, मिनट तथा सेकेंड की गणना है। लेकिन इस स्थूल रूप में भी भारतीय पद्धति में ढाइ गुना सूक्ष्म गणना की गयी है। भारतीय पद्धति में दिन-रात को 60 भागों में बाँटा गया है, जिनमें एक भाग दण्ड अथवा घटी कहलाता है। इसी दो घटी अथवा दो दण्ड के समय को मुहूर्त कहते हैं। इस प्रकार मुहूर्त भी समय-गणना का एक ईकाई है। रात्रि का चौथा पहर यानी अंतिम तीन घंटा वह अमृत काल है, जिसके अन्तर्गत, ब्राह्म मुहूर्त, उषाकाल, अरुणोदय काल तथा सूर्योदय काल आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से चौथे पहर की सम्पूर्ण अवधि महत्त्वपूर्ण है, तथापि लेखक ने यहाँ व्यावहारिक काल-गणना की अनेक ईकाइयों को परिभाषित किया है। विभिन्न प्रकार के प्रयोगों में काल गणना की अनेक इकाइयों तथा कोणीय गणना की भारतीय पद्धति को इस आलेख में स्पष्ट किया गया है।

6. संध्याका अनुष्ठान- श्रीपाद दामोदर सातवलेकर (संकलित)[श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

आधुनिक काल में वेद के उद्धारक विद्वान् माने जाते हैं। सन् 1919 में उन्होंने औंध में “स्वाध्याय मण्डल” की स्थापना की। बाद में उन्होंने गुजरात के पारडी नामक गाँव को अपना निवास स्थान बनाया और स्वाध्याय मंडल की पुन: स्थापना कर वेदादि प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के परिष्कार एवं प्रचार-प्रसार के पुनीत कार्य में और भी अधिक दृढ़ता से संलग्न हो गये। सन् 1924 ई. में उन्होंने “सन्ध्याका अनुष्ठान” नामक एक पुस्तिका का लेखन तथा प्रकाशन किया। यह पुस्तिका सन्ध्या तथा ब्राह्म मुहूर्त के आध्यात्मिक महत्त्व को समझने के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहाँ हम भूमिका का कुछ भाग तथा मूल अंश से सन्ध्यापूर्व की तैयारी जिज्ञासुओं के लिए संकलित कर रहे हैं।]

7. तांत्रिक संध्या विधान- श्री अंकुर पंकजकुमार जोषी

सन्ध्यावंदन असल में सूर्य की उपासना है, जो प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। इसलिए सन्ध्या के प्रयोग न केवल वेद से अपितु आगम, तन्त्र तथा अन्य लोगों की गुरु परम्परा से प्रचलित हैं। कुछ दशकों से यह अवधारणा फैल गयी है कि सन्ध्या प्रयोग का केवल वैदिक विधान ही मिलता है। यदि हम शास्त्र और परम्परा देखें तो स्पष्ट होगा कि लगभग एक शताब्दी पूर्व तक सभी जातियों के लोगों के लिए अपनी-अपनी परम्परा थी और लोग इस गुरु-परम्परा का पालन करते हुए सनातन धर्म के अभिन्न अंग बने हुए थे। सन्ध्या मन्त्र लोकभाषा में भी हमें मिलते हैं, जिनमें गुरु-स्मरण से आरम्भ होता है। विगत शताब्दी में धर्म एवं अध्यात्म को लोकभाषा से विच्छिन्न कर केवल वेद तथा संस्कृत भाषा तक सीमित करने का कार्य किया गया, फलतः आज हम बिखर रहे हैं। आगमोक्त सन्ध्या-विधान और उसका वेद-मूलक स्वरूप हमें धार्मिक उदारवादी सिद्धान्त की झलक दिखाता है।

8. मेघराज प्रधान (1660ई.) विरचित भाषा अनंत व्रत कथा- सम्पादक- भवनाथ झा

(पाण्डुलिपि से सम्पादित)

शेषशायी भगवान् विष्णु की पूजा के रूप में अनन्त-पूजा का लोक स्वरूप बहुत बहुत महत्त्वपूर्ण है। संस्कृत में इस कथा की अनेक पाण्डुलिपियाँ भारत के विभिन्न क्षेत्रों से मिली है। साथ ही भाषा के सन्त कवियों ने भी इस कथा को जनभाषा में लिखकर प्रचारित करने का क्रय किया है। इससे प्रतीत होता है कि विष्णु की उपासना के रूप में यह सभी जातियों के लोकों द्वारा अनुष्ठीत था। जो लोग संस्कृत कथा नहीं पढ़ पाते थे, उनके लिए जनभाषा में कथाएँ लिखी गयीं।

यहाँ पर इस अनंत व्रत कथा का पाठ दिया जा रहा है। इसकी मूल प्रति पंजाब विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में संरक्षित है। पाण्डुलिपि Usha Haran Katha Hindi Mss No 1361 Alm 11 Shelf 2 Panjab Uni के नाम से ई-गंगोत्री के द्वारा डिजिटल प्रति के रूप में archive.org पर सार्वजनिक की गयी है। कुल 230 पत्रों की इस पाण्डुलिपि में तीन रचनाएँ हैं। इनमेंअनंत व्रत कथा- कुल 8 पृष्ठों में हैं। पूरी पाण्डुलिपि में समान अक्षर होने के कारण इसका भी काल 1866 ही सिद्ध होता है। इसके अंत में भी तिथि दी गयी है.

9. उषा-स्तुति- अनुवादक- श्री अरविन्द मानव

ऋग्वेद के उषःसूक्त काव्यात्मक सौन्दर्य एवं स्तुति की मूल अवधारणा से ओत-प्रोत हैं। इनमें भी प्रथम मण्डल के 48-49 सूक्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन दोनों सूक्तों का अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। श्री अरविन्द मानव को गेय छन्दों में अनुवाद करने की अद्भुत क्षमता है। इन्होंने सम्पूर्ण भागवत का अनुवाद इसी प्रकार किया है। श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक एवं साधक श्री मानव प्रतिदिन अपने आराध्य की स्तुति में कविता रचकर उन्हें समर्पित करते रहे हैं। मेरे आग्रह पर उन्होंने इन सूक्तों का अनुवाद भाव-संकोच के विना किया है। आशा है कि हिन्दी भाषा-भाषी मूल ऋग्वेद की पंक्तियों में निहित मूल भावना को हृदयंगम कर सकेंगे।

10.  हिंदी के कवियों का ब्राह्म-मुहूर्त- डा. राजेन्द्र राज

सुहानी भोर न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है बल्कि सौन्दर्य और सौम्यता और दृष्टि से भी जनमानस के साथ-साथ साहित्य़ में भी व्याप्त है। यहाँ न अंधकार होता, न सूरज की तीखी किरणें। जेठ-जैसी गर्मी के मौसम का सुबह तो और निराला होता है। यह काल अंधकार पर प्रकाश के विजय का महाकाव्य है, तो सही है कि सुनहरे भविष्य का स्वप्न देखने वाले कवि इसे उपमान बनाते हैं, लोगों को जगाते हैं। आदर्शवादी सन्त कवियों ने जहाँ रात्रि के अंत  अपने इष्टदेव के जागरण का गीत गाया है तो राष्ट्रवादियों ने इसे परतन्त्रता की बेड़ी को झटक कर तोड़ते हुए आगे बढ़ने का संदेश के लिए इस बिम्मब का उपयोग किया है। यथार्थवादी कवि ताराओं के समूह पर एक अधिनायक सूर्य के विजय की गाथा को भी प्रातःकाल से अभिव्यक्त किया है। इस प्रकार, प्रातःकाल कवियों की दृष्टि में विवध प्रकार के चित्र प्रस्तुत करते हैं।

11. मंगल हरि मंगला- सुश्री शैरिल शर्मा

वैष्णव परम्परा में सूर्योदय से पूर्व के कृत्य के लिए ‘मंगला’ शब्द का प्रयोग होता है। अतः मंगला आरती, मंगला-दर्शन आदि शब्द की अपनी गरिमा है, जो भोर के सन्दर्भ में प्रयुक्त है। वैष्णव कवियों ने भगवान् की स्तुति में ‘मंगला’ गीतों का भी निर्माण किया है जो प्रातःकाल से सम्बद्ध हैं। ये सारे शब्द भले प्रातःकाल के सन्दर्भ में रूढ़  गये हों, किन्तु शुभ वाचक ‘मंगल’ शब्द से बने हैं। रूढ़ शब्दों का प्रचलन में आ जाना भी हमें कभी कभी इसके महत्त्व का प्रतिपादन कर जाता है, जिसका उदाहरण यह ‘मंगला’ शब्द है।

निश्चित रूप से प्रातःकाल है तो मंगल है, मंगल के लिए मंगला है। आइए हम वैष्णव संत कवियों की वाणी में अपने दिन को मंगलमय बनाएँ।

12.  सुहावनी भोर- श्रीमती रंजू मिश्रा

भोर तो स्वयं में एक कविता है जो सबमें नयी उमंगें भर देती है। वह निर्माण की वह नींव है, जिस पर हमारा दिन रूपी महल खड़ा होता है। लाल क्षितिज, उससे ऊपर पीला और उससे भी ऊपर नीला आकाश, जिसमें टिमटिमा रहा हो भोर का तारा– भृगुवा यानी शुक्र ग्रह; इस दृश्य को जिसने देख लिया उसने मानों दिनभर के लिए बहुरंगी दुनियाँ पा लीं। कवियों ने कितने ही गान रचे, चित्रकारों ने कैनवास पर इसे उकेरने का प्रयास किया पर वे भी सृष्टि के सबसे बड़े चित्रकार ईश्वर की इस रचना को न तो शब्द ही दे सके, न रंगों में भर सके। चिड़ियों का गान, खिलते फूल, अंधकार को चीड़कर आती ही स्वर्णिम रश्मियाँ गान, राग और क्रान्ति तीनों का सम्मिश्रण है। श्रुतियाँ गाती हैं- नभ की दुहिता उषा सुन्दरी इठलाती-सी आती है। अपने पीछे-पीछे दिनकर की भी खींच लाती है। यह वेला जागरण की है, उन्नति की है, अंधकार के छँटने की है।

आइए, लेखिका के इन शब्दचित्रों में हम उस भोर का दर्शन करें।

13.  जीवित्पुत्रिका व्रत- सुश्री पुनीता कुमारी श्रीवास्तव

आश्विन मास के कृष्ण पक्ष  अष्टमी तिथि को संतान के जीवन की रक्षा के लिए माताओं के द्वारा किया जाने वाला यह महत्त्वपूर्ण व्रत तथा पूजा है। आज भी इसकी पुरानी परम्परा ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत कुछ बची हुई है। इसमें कुश से निर्मित जीमूतवाहन की प्रतिमा की पूजा करते हैं तथा इसकी था कहते हैं। कथा का जो संस्कृत रूप है, वह भाषा तथा प्रवाह की दृष्टि से बहुत पुराना नहीं लगता है। प्रतीत होता है कि लोकधारा में कही जाने वाली कथा को किसी संस्कृतज्ञ ने अनुवाद कर वर्षकृत्यों में डाल दिया है। अतः हमें इस कथा का लोक स्वरूप देखना चाहिए। यहाँ हमने बक्सर के क्षेत्र से जीमूतवाहन व्रत की लोक परम्परा का प्रलेखन प्रस्तुत किया है। लेखिका ने परिश्रम कर लोक-गीतों का भी संकलन किया है। आशा है कि इससे संस्कृति के अध्येता को लाभ होगा।

14.  हरदासीपुर- दक्षिणेश्वरी महाकाली-श्री अंकुर सिंह एवम् श्री निखिल सिंह रघुवंशी

अपने आसपास के मन्दिर के सम्बन्ध में किंवदन्तियों के साथ परिचय लिखकर हमें भेजें। मन्दिरों के प्रति हमारी श्रद्धा सनातनियों के लिए स्वाभाविक गुण है। विशेष रूप से जिस क्षेत्र में हम रह रहे हैं, वहाँ से सम्बन्धित अनेक किंवदन्तियाँ हमारे मन में घूमती रहती हैं। भलें ये किंवन्तियाँ इतिहास के प्रमाणों पर आधारित न हों, पर हमारी श्रद्धा को दर्शाती हैं। ऐसे मन्दिर, जहाँ हम बचपन से दर्शन कर रहे हैं, उनके बारे में हम जो जानते हैं, उसे लिखकर रख लेना चाहिए।

15.   कुमारी-पूजन विधि- सम्पादक भवनाथ झा

देवीपूजन में कुमारी प्रत्यक्ष देवी मानी गयी है अतः भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से कुमारी की पूजा प्राचीन काल से की जाती रही है। यहाँ जिज्ञासु जनों के लिए कुमारी-पूजन का शास्त्रीय-विधान दिया जा रहा है। इस सन्दर्भ में मुझे तिरहुता लिपि में लिखी हुई लगभग 200 वर्ष प्राचीन एक पाण्डुलिपि मिली, जिसमें विभिन्न उम्र की कन्याओं का नामकरण, पूजा का फल तथा उसके लिए मन्त्र का विधान किया गया है। ये श्लोक कहाँ से संकलित हैं, यह मैं नहीं जानता किन्तु इसकी प्रामाणिकता में सन्देह नहीं। इसके अतिरिक्त विद्यापति कृत दुर्गाभक्तितरंगिणी से कुमारी-पूजन-विधि यहाँ संकलित है।

16.  विविध रामायणों में रामकथा की विशेषताएँ- आचार्य सीताराम चतुर्वेदी

यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं। – प्रधान सम्पादक

17.  19वीं शती की कृति ‘रीतिरत्नाकर’ में पर्व-त्योहारों का विवरण- संकलित

19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक ‘रीतिरत्नाकर’ का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं। इस पुस्तक में एक प्रसंग आया है कि किसी अंगरेज अधिकारी की पत्नी अपने बंगला पर आसपास की पढ़ी लिखी स्त्रियों को बुलाकर उनसे बातचीत कर अपना मन बहला रही है। साथ ही भारतीय संस्कृति के विषय में उनसे जानकारी ले रही है। इसी वार्ता मंडली में वर्ष भर के त्योंहारों का प्रसंग आता है। पण्डित शुक्लाजी की पत्नी शुक्लानीजी व्रतों और त्योहरों का परिचय देने के लिए अपनी दो चेलिन रंगीला और छबीला को आदेश देतीं हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह ग्रन्थ अवध प्रान्त के सांस्कृतिक परिवेश में लिखा गया है। इसमें अनेक जगहों पर बंगाल प्रेसिंडेंसी को अलग माना गया है। सन् 1872 ई. के प्रकाशित इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा में बहुत अन्तर तो नहीं है किन्तु विराम, अल्प विराम आदि चिह्नों का प्रयोग नहीं हुआ है जिसके कारण अनेक स्थलों पर आधुनिक हिन्दी के पाठकों को पढ़ने में असुविधा होगी। इसलिए यहाँ भाषा एवं वर्तनी को हू-ब-हू रखते हुए विराम-चिह्नों का प्रयोग कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ स्थलों पर अनुच्छेद परिवर्तन भी किए गये हैं। जिन शोधार्थियों को भाषा-शैली पर विमर्श करना हो, उन्हें मूल प्रकाशित पुस्तक देखना चाहिए, जो Rīitiratnākara के नाम से ऑनलाइन उपलब्ध है।

18.  मन्दिर समाचार, (अगस्त-सितम्बर, 2022ई.)

19.  व्रत-पर्व, आश्विन, 2079 वि. सं. (11 सितम्बर से 9 अक्टूबर, 2022ई. )- पं. मुक्ति कुमार झा

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