धर्मायण, अंक संख्या 125, अगहन मास अंक
अंक 125, अगहन, 2079 वि. सं., 9 नवम्बर से 8 दिसम्बर, 2022ई.
श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए वीर बहादुर सिंह, महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।
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1. “मासानां मार्गशीर्षोऽहम्”- सम्पादकीय
2. हितकारी हेमन्त ऋतु- श्री महेश प्रसाद पाठक
वर्तमान में मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष से माघ कृष्ण पक्ष तक हेमन्त ऋतु होता है। माघ में शुक्लपक्ष का नवरात्र आरम्भ होने के साथ वसन्त ऋतु का आगमन मान लिया गया है, अतः उस नवरात्र की पंचमी को वसन्त पंचमी कहते हैं, जिस दिन सरस्वती पूजा होती है। चार पक्षों की यह अवधि अन्न के संग्रह के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। आज भले हम हाइब्रीड बीजों के प्रयोग के कारण हेमन्त आरम्भ होने से पहले भी धान काट लेते हों पर हैमन्तिक धान्य की जो विलक्षणता है, वह इऩमें नहीं है। भारतवर्ष की विशेषता है कि यहाँ सभी ऋतुएँ समय से निश्चित अवधि के लिए होती हैं अतः सबका विशिष्ट महत्त्व धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से है। यहाँ इस हेमन्त ऋतु का महत्त्व व्यापक रूप में प्रतिपादित किया गया है। यह आलेख इस अंक के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता है।
3. शीत और कुहासों से लिपटा अगहन मास- डा. मयंक मुरारी
अगहन मास का नाम लेते ही भोर का कुहासा याद आ जाता है। दूर-दूर तक फैले धान के खेत, कुहासों के कारण दिखाई नहीं देता। पतझड़ के गिरे पत्ते पर जब पेड़ से चूते ओसकण गिरते हैं तो टप! टप! की आबाज हमें किसी दूसरी दुनियाँ की सैर करा देती है। यही तो है अगहन मास!- सम्पादक
4. अगहन मास में बंगाल की लोक-परम्पराएँ- श्री तनमय कुमार मुखर्जी
भाषा एवं लिपि संरक्षित रहने के कारण बंगाल प्रदेश अपनी प्राचीन संस्कृति को सुरक्षित रखने में सफल रहा है। यहाँ के लोक-पर्व सीधे प्रकृति से जुड़े हैं जो आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में मुखर हैं। अगहन मास के दो पर्वों का यहाँ विवरण दिया गया है। नवान्न में पहला अर्पण अग्नि को करने की परम्परा आज भी विद्यमान है। साथ ही, सारे कर्मकाण्ड महिलाओं के द्वारा किये जाते हैं।
दूसरा इतु पर्व है, जिसमें के लिए उगाये जाने वाली फसलों के बीज बोकर उस पौधे की पूजा की जाती है। लेखक ने यद्यपि इसे सूर्य उपासना का पर्व माना है तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि यह मूल रूप में ‘ऋतुपूजा’ रही होगी। इससे इतु-पूजा शब्द बना है। इसमें अगहन के मौसम में दलहन के बीजों को बोया जाता है, जो आगे रब्बी फसल के लिए बीज का पूजन है। इसमें जो पौधे पूजे जाते हैं वे सभी अग्रिम फसल के प्रतीक हैं। इस प्रकार यह लोकपर्व भी मूलतः प्रकृति तथा कृषि से जुड़ा है। इतु-लक्ष्मी की पूजा इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि बंगाल की संस्कृति में भी वनस्पति तथा अन्न को देवी लक्ष्मी का रूप माना जाता है।
5. हेमन्त की मागधी महिमा- श्री अरविन्द मानव
भारतभूमि अध्यात्म की भूमि है। यहाँ हम मानते हैं कि ईश्वरीय शक्ति से हमारी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार संचालित है। वहीं ईश्वरीय शक्ति हमें अन्न के रूप में भोजन देती है। इस अन्न-संग्रह का काल हेमन्त है। इसमें हम अन्न को देवता मानते हैं, अन्न की उत्पत्ति पर उस ईश्वरीय शक्ति का आभार व्यक्त करते हैं। कृषि-संस्कृति का अध्यात्म के साथ जो ताना-बाना भारत में बुना गया है, उसकी झलक हमें हेमन्त ऋतु में मिलती है। इस सन्दर्भ में प्रत्येक क्षेत्र की लोक-परम्पराएँ भिन्न होती हुई भी एक केन्द्रीय भाव से जुड़ी हुई है औऱ वह है- प्राणियों के पोषण के लिए उत्पन्न अन्न को देवमय मानना। अतः मगध के क्षेत्र में नबान्न पर्व मनाया जाता है। विष्णुप्रीति के लिए अन्नदान किया जाता है। मगध क्षेत्र में कृषि एवं अध्यात्म के समन्वय को प्रस्तुत करता हुआ यह लेख पठनीय हो जाता है।
6. राजाधिराज महाकाल की सवारी- श्री महेश शर्मा ‘अनुराग’
कहा गया है कि भारतवर्ष का भौगोलिक केन्द्र उज्जैन है, जहाँ महाकाल आदिकाल से राजा हैं। कालिदास ने भी मेघ से आग्रह किया है कि यद्यपि रास्ता थोड़ा टेढा पड़ेगा, पर हे मेघ, उज्जयिनी में महाकाल का दर्शन करना लेना। यहाँ महाकाल के रूप में भगवान् शिव राजाधिराज के रूप में प्रतिष्ठित हैं। तो स्वाभाविक रूप से उन्हें अपनी प्रजा को देखने के लिए निकलना चाहिए। यही रथयात्रा है। अगहन मास में भी वे दो बार प्रजा के बीच विग्रह के रूप में निकलते हैं। महाकाल की यह सवारी यद्यपि प्राचीन काल से निकलती रही है किन्तु विगत आधा शतक से इसका व्यापक रूप हो गया है। इसे एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस आलेख के लेखक स्वयं विगत अनेक वर्षों से इस .यात्रा में भाग लेते रहे हैं। इन्होंने जो कुछ लिखा है, वह आँखों देखा हाल है, अतः इसकी प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध है।
7. सोमगुण प्रधान हेमन्त ऋतु- डा. विनोद कुमार जोशी
आयुर्वेद के अनुसार चन्द्रमा, सूर्य तथा वायु ये तीनों वनस्पति इत्यादि स्थावर तथा मनुष्य आदि जंगम प्राणियों के भरण-पोषण के कारक हैं। चन्द्रमा का तत्त्व सोमतत्त्व कहलाता है। ऋतुचर्या में यह विचारणीय हो जाता है कि किस मौसम में चन्द्रमा का तत्त्व प्रबल होता और किस मौसम में सूर्य का तत्त्व। सूर्यतत्त्व अग्नितत्त्व है। इन्हीं अग्नि तथा सोम से जगत् की सृष्टि हुई है तथा वायु उसका वाहक है, प्रेरक है; अतः वायु का एक नाम समीर है- प्रेरित करने वाला। यही “अग्नीषोमात्मकं जगत्” की आयुर्वेद शास्त्रीय व्याख्या है। लेखक ने स्पष्ट किया है कि हेमन्त ऋतु में सोमगुण की प्रधानता होती है औऱ वायु उसका जब वाहक वनता है तो विशेष प्रकार के भोजन, आवास तथा दिनचर्या की आवश्यकता स्वस्थ रहने के लिए होती है। हेमन्त ऋतु की दिनचर्या पर आयुर्वेद के प्रसिद्ध विद्वान् का यह आलेख पठनीय है।
8. भारत की धरा पर हेमन्त का नृत्य- डा. राजेन्द्र राज
हमें अपने पर गर्व होना चाहिए कि हम भारतवर्ष के निवासी है। हमें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि हमें उन्होंने ऐसा धरा पर उत्पन्न किया जहाँ सभी ऋतुएँ अटखेलियाँ करती हैं। हमारी धरती सुजला, सुफला तथा मलयजशीतला है। इस विविध सौन्दर्य से भरी भारत भूमि पर जब हेमन्त ऋतु उतरती है तो स्वाभाविक है वह एक नटी की तरह विविध प्रकार से नृत्य करती है। कवियों ने भारत की धरा तथा इसमें हेमन्त ऋतु की छटा को काव्यात्मक स्वर दिया है। आधुनिक साहित्य में आदर्शवादी लेखकों की दृष्टि में भारत की धरा पर हेमन्त का नृत्य व्यापक रूप से वर्णित हुआ है। विशेष रूप से हिन्दी साहित्य में इस व्रणन पर एक दृष्टिपात प्रस्तुत आलेख में किया गया है।
9. “हिन्दू धर्म और उसकी भित्ति”- कुमार गंगानन्द सिंह, एम.ए. (1898-1971) के द्वारा 1945ई. में दिया गया भाषण
यह कुमार गंगानन्द सिंह, एम.ए. बीसवीं शती के बिहार की राजनीति तथा शिक्षा जगत् के विख्यात स्तम्भ थे। उनके द्वारा 1945ई. में मिथिलेश-महेश-रमेश व्याख्यानमाला में दिया गया था। इसका शीर्षक “हिन्दू धर्म और उसकी भित्ति” इस पूरे व्याख्यान में तीन अवान्तर विषयों का विवेचन हुआ है- हिन्दू धर्म का प्रसार, हिन्दू धर्म की गतिविधि, एवं हिन्दू धर्म के सिद्धान्त। अन्त में पूरे व्याख्यान का सारांश उपसंहार के रूप में प्रदर्शित है। इस विशाल वक्तव्य को खण्डों में लगातार प्रस्तुत किया जा रहा है। कुमार सिंह ने ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ प्रस्तुत किया है कि सनातन धर्म में समन्वयवाद सबसे प्रबल रहा है। हमारे ऋषियों ने भेद-भाव से ऊपर उठकर शिक्षा तथा अध्यात्म का प्रचार किया। फलतः अनेक जनजातियाँ जो आदिकाल में अशिक्षित थीं शिक्षित होकर मुख्य धारा में आयीं। सनातन धर्म के इस लोक-संग्रह के स्वरूप पर प्रकाश देता हुआ यह भाषण बार-बार पढ़ा जाने वाला पाठ्य है।
10. ‘भट्टिकाव्य’ की रामायण-कथा-आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं। – प्रधान सम्पादक
11. पक्षियों के संसार में मानवीय भावनाओं का लोक-पर्व : सामा-चकेबा- श्रीमती रंजू मिश्रा
सामा-चकेबा मिथिला का लोकपर्व है। इसकी मूल-कथा कृष्ण, उनकी पुत्री साम्बा, पुत्र साम्ब, उनका एक गुप्तचर चूड़क, उनका क्रीडा-स्थल वृन्दावन तथा उसमें वास कर रहे पक्षियों के संसार के चारों ओर घूमती है। जब हम इसकी कथा तथा लोकपरम्परा के बीच तालमेल बैठाने का प्रयास करते हैं तो पक्षियों के संसार में मानवीय संवेदनाओं का अद्भुत समायोजन इस लोकपर्व में पाते हैं। इसका अंतिम संदेश है- पक्षियों के संसार में भी मानवीय भावनाएँ हैं, वहाँ भी बेटियों की बिदाई होती है! यह लोकपर्व हमें पक्षियों के संरक्षण की भावना उत्पन्न करने में पूरी तरह से समर्थ है। चकबा और चकई के वियोग शृंगार से तो पूरा भारतीय साहित्य भरा-पड़ा है। पर, यहाँ सतभैंया, डाहुक, मोर, गौरैया, मैना, सुग्गा सबकी भूमिका है।
मिथिला के लोकपर्व सामा-चकेबा की कथा को पक्षी संरक्षण की पृष्ठभूमि में व्याख्यायित करने की आवश्यकता है। लोक-संस्कृति-विमर्श की व्याख्यात्री श्रीमती रंजू मिश्रा का यह आलेख इस आवश्यकता को पूर्ण करता है।
12. 19वीं शती की कृति ‘रीतिरत्नाकर’ में पर्व-त्योहारों का विवरण (संकलित)
19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक ‘रीतिरत्नाकर’ का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं। इस पुस्तक में एक प्रसंग आया है कि किसी अंगरेज अधिकारी की पत्नी अपने बंगला पर आसपास की पढ़ी लिखी स्त्रियों को बुलाकर उनसे बातचीत कर अपना मन बहला रही है। साथ ही भारतीय संस्कृति के विषय में उनसे जानकारी ले रही है। इसी वार्ता मंडली में वर्ष भर के त्योंहारों का प्रसंग आता है। पण्डित शुक्लाजी की पत्नी शुक्लानीजी व्रतों और त्योहरों का परिचय देने के लिए अपनी दो चेलिन रंगीला और छबीला को आदेश देतीं हैं।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह ग्रन्थ अवध प्रान्त के सांस्कृतिक परिवेश में लिखा गया है। इसमें अनेक जगहों पर बंगाल प्रेसिंडेंसी को अलग माना गया है। सन् 1872 ई. के प्रकाशित इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा में बहुत अन्तर तो नहीं है किन्तु विराम, अल्प विराम आदि चिह्नों का प्रयोग नहीं हुआ है जिसके कारण अनेक स्थलों पर आधुनिक हिन्दी के पाठकों को पढ़ने में असुविधा होगी। इसलिए यहाँ भाषा एवं वर्तनी को हू-ब-हू रखते हुए विराम-चिह्नों का प्रयोग कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ स्थलों पर अनुच्छेद परिवर्तन भी किए गये हैं। जिन शोधार्थियों को भाषा-शैली पर विमर्श करना हो, उन्हें मूल प्रकाशित पुस्तक देखना चाहिए, जो Rīitiratnākara के नाम से ऑनलाइन उपलब्ध है।
13. बाल मन पर पड़ते बुरे प्रभाव- श्री अंकुर सिंह
आज की बाजारवादी वैश्विक व्यवस्था की दृष्टि में मनुष्य केवल एक उपभोक्ता रह गया है। इसके लिए हमारे बच्चे भी निशाने पर हैं, ताकि वे आगे चलकर उस अकेलापन का शिकार बने और बाजार पर ही निर्भर रहे। ऐसी हालत में हमें बच्चों पर नजर रखनी होगी और उन्हें मानवीय मूल्यों की दिशा में ले जाना होगा।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक