Sarasvati Puja 2020
महावीर मन्दिर में मनायी गयी सरस्वती पूजा
आज दिनांक 30 जनवरी को माघ शुक्ल पंचमी वसन्त पंचमी के उपलक्ष्य में महावीर मन्दिर में सरस्वती की पूजा की गयी। महावीर मन्दिर में सरस्वती की विशाल प्रतिमा स्थायी रूप से स्थापित है। इसी प्रतिम की पूजा हर वर्ष सरस्वती पूजा के दिन वार्षिक उत्सव के रूप में की जाती है।
आज प्रातःकाल 8.30 बजे पूजा आरम्भ हुई। महावीर मन्दिर के शोध एवं प्रकाशन प्रभारी पं. भवनाथ झा स्वयं पूजा पर बैठे हुए थे। महावीर मन्दिर के ही आचार्य श्री रामदेव पाण्डेयजी ने पूजा करायी। पूजा के क्रम में सरस्वती के हजार नामों से सहस्रनामावलि मन्त्रों से हवन भी किया गया। पूजा लगभग 12.30 बजे सम्पन्न हुई। इसके बाद आरती की गयी। परिसर में सभी उपस्थित भक्तों के बीच प्रसाद की वितरण हुआ।
पूजा के दौरान अनेक भक्तों ने बच्चों का अक्षरारम्भ यानी खली पकड़ाने की पूजा भी सम्पन्न की।
वाग् वै सरस्वती
माता सरस्वती को ज्ञान-विज्ञान की देवी माना गया गया है। वैदिक काल में भी वाणी, जिह्वा, संगीत आदि से सम्बद्ध देवता के रूप में वाग्देवी सरस्वती स्थापित हो चुकी थी। पंचविंश ब्राह्मण में मन्त्र को सरस्वती के रूप में प्रतिष्ठा दी गयी है। साथ ही, यज्ञ में इस वाक् को भी आहुति देने का विधान किया गया है। कथा इस प्रकार है- एक बार वाग्देवी देवताओं से दूर चली गयी। देवताओं ने जब उन्हें पुकारा तब वाग्देवी ने कहा कि मुझे तो यज्ञ में भाग नहीं मिलता। तब मैं क्यों आपके साथ रहूँगी। देवों ने वाक् से पूछा कि आपको हममें से कौन भाग देंगे। वाक् ने कहा कि उद्गाता हमें भाग देंगे। अतः उद्गाता वाग्देवी को उद्दिष्ट कर हवन करते हैं (6.7.7)। यहाँ स्पष्ट रूप से वाग्देवी सरस्वती का उल्लेख हुआ है। इसी ब्राह्मण में वाग्वै सरस्वती (16.5.16) भी कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ से पुरुष की उत्पत्ति के सन्दर्भ में उस पुरुष के अवयवों का वर्णन करते हुए वाक् को सरस्वती कहा गया है- मन एवेन्द्रो वाक् सरस्वती श्रोत्रे अश्विनौ (13.9.1.13)। इसी स्थल पर चिह्वा को सरस्वती माना गया है- प्राण एवेन्द्रः जिह्वा सरस्वती नासिके अश्विनौ (12.9.1.1)
बौधायन-गृह्यसूत्र में भी देवी सरस्वती की पूजा का विधान किया गया है। यहाँ विद्यारम्भ के पहले सरस्वती-पूजा करने का उपदेश किया गया है। यहाँ उन्हें वाग्देवी, गीर्देवी, सरस्वती तथा ब्राह्मी कहा गया है। प्रत्येक मास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी तिथि को उपासना का दिन माना गया। प्रत्येक मास में विद्याकांक्षी लोगों के द्वारा इनकी अर्चना करने का विधान किया गया है। (बौधायन गृह्यसूत्र- 3.6)
कालिदास ने भी मालविकाग्निमित्रम् नाटक में उल्लेख किया कि कला के उपासक तथा शिक्षक सरस्वती को लड्डू चढाते थे तथा प्रसाद के रूप में उसे खाते थे। नाटक के पहले अंक में ही विदूषक आचार्य गणदास से कहते हैं कि जब आपको देवी सरस्वती को चढाया हुआ लड्डू खाने को मिल ही रहा है तो फिर आपस में क्यों झगड़ रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि कला के उपासक उन दिनों भी सरस्वती की पूजा करते थे।
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