‘ढोल गंवार क्षुद्र पशु नारी’ ही सही पाठ है-आचार्य किशोर कुणाल
प्रेस-विज्ञप्ति
‘ढोल गंवार क्षुद्र पशु नारी’ ही सही पाठ है
– आचार्य किशोर कुणाल
संवत् 1631 यानी 1574 ई० में रामनवमी के दिन भक्तशिरोमणि तुलसीदास ने अयोध्या के राममन्दिर में रामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की थी। अगले वर्ष यानी 2024 की रामनवमी के दिन इसके 450 वर्ष पूरे होंगे। इस ऐतिहासिक अवसर को धूमधाम से इस वर्ष की रामनवमी से लेकर 2025 की रामनवमी यानी दो वर्षों तक ‘रामायण शोध संस्थान’ के तत्त्वावधान में सभी उपलब्ध पाण्डुलिपियों के गहन अध्ययन के बाद समग्र तुलसी साहित्य का प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित किया जायेगा ।
हाल में, रामचरितमानस की कुछ पंक्तियों पर मानस का मर्म नहीं समझने वाले अल्पज्ञों द्वारा आक्षेप किये जा रहे हैं। ‘ढोल गँवार सूद्र पसु नारी’ ऐसी ही एक पंक्ति है जिसपर विवाद होता रहा है। किन्तु लोगों को यह जानकर ताज्जुव होगा कि सन् 1810 ई० में कोलकता के विलियम फोर्ट से पं० सदल मिश्र द्वारा सम्पादित ‘रामचरितमानस’ छपा था उसमें यह पाठ ‘ढोल गँवार क्षुद्र पशु नारी’ के रूप में छपा था । यहाँ सूद्र शब्द के बदले क्षुद्र शब्द है। पं० सदल मिश्र बिहार के उद्भट विद्वान् और मानस के मान्य प्रवचनकर्ता थे। यह मानस की सबसे पुरानी प्रकाशित पुस्तक है।
1810 ई० के बाद 1830 ई० में कोलकता के एसिएटिक लिथो कम्पनी से “हिन्दी एन्ड हिन्दुस्तानी सेलेक्सन्स’ नाम से एक पुस्तक छपी थी जिसमें रामचरितमानस का पूरा सुन्दरकाण्ड छपा है। इसमें भी पाठ ‘ढोल गंवार क्षुद्र नारी’ ही है। इस 494 पृष्ठ वाली पुस्तक के सम्पादक विलियम प्राइस, तारिणीचरण मिश्र, चतुर्भुज प्रेमसागर मिश्र थे।
दि. 4 मई, 1874 को बंबई (मुंबई) के सखाराम भिकसेट खातू के छापेखाने से अयोध्या के पास स्थित नगवा गाँव के विद्वान् देस सिंह द्वारा सम्पापित ‘तुलसीकृत रामायण’ का प्रकाशन हुआ था। इसमें भी पाठ ‘ढोल गँवार क्षुद्र पशु नारी’ ही है। इसका फिर से मुद्रण 1877 ई. में हुआ था जिसकी प्रति प्राप्त हुई है और इसमें भी पाठ क्षुद्र ही है; शूद्र नहीं। इस पुस्तक की एक और विशेषता है इसमें रामायण की घटनाओं को दिखाते हुए बहुत सारे चित्र भी प्रस्तुत किये हैं। इस पुस्तक में इस प्रसंग का चित्र नीचे दिया हुआ है-
इसके अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि भगवान् राम धनुष चढ़ाये हुए हैं और समुद्र करबद्ध मुद्रा में विनय कर रहा है। ‘ढोल गँवार – वाली उक्ति भयभीत समुद्र की है, जो राम को राह नहीं दे रहा था और उसे सोख जाने की घोषणा भगवान् ने की थी । अतः यहाँ नारी शब्द का अर्थ समुद्र ही संगत बैठता है। संस्कृत में नार का अर्थ जल होता है और गुण से गुणी की तरह नार (जल) से नारी (समुद्र) बनता है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से प्रकाशित तथा रामचन्द्र शुक्ल द्वारा सम्पादित तुलसी ग्रन्थावली के तृतीय खण्ड ‘मूल्यांकन’ में शम्भु नारायण चौबे का लेख ‘रामचरितमानस’ प्रकाशित है। इसमें विद्वान् लेखक ने लिखा है कि 1874 में जो मुंबई से प्रकाशित उक्त पाठ है, वैसा पाठ दो और प्रकाशित पुस्तकों में है। उनमें से पहली पुस्तक 28 अप्रैल, 1866 को और दूसरी पुस्तक 1873 में फतेहगढ़ से 1873 ई. में छपी हुई थी। ये दोनों पुस्तकें अभी देखने को नहीं मिली हैं । किन्तु विद्वान् लेखक ने आज से जब 55 साल पहले जब इन पुस्तकों को देखकर लिखा कि तीनों पुस्तकों का पाठ एक – जैसा है और सभी सचित्र हैं, तो यह सहज अनुमान किया जाना चाहिए कि उन दोनों प्रकाशित पुस्तकों में भी ‘क्षुद्र’ पाठ ही रहा होगा।
इसी प्रकार 1883 ई० में बाबू रामदीन सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ‘बिहार- दर्पण’ छपी जिसपर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की सम्मति भी है। इसमें बिहार की 24 विभूतियों की जीवनी है। पहली जीवनी प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के अमर योद्धा वीर कुँअर सिंह के पूर्वज नारायण मल्ल की है। उन्हें मुगल सम्राट् शाहजहाँ ने बिहार की भोजपुर रियासत की जमींदारी थी। उनकी मृत्यु सन् 1629 ई० में हुई थी । नारायण मल्ल तुलसी – साहित्य से सूक्तियों का संकलन था। उसे अविकल रूप से बिहार दर्पण में नारायण मल्ल की जीवनी के साथ छापा गया है। इसके पृ. 64 पर ‘ढोल गंवार क्षुद्र पशु नारी’ पाठ ही मिलता है। नारायण मल्ल की लिखी हुई मूल सूक्ति अभी नहीं मिली है; किन्तु बाबू रामदीन सिंह ने जब 1881-83 में छापा था, तब उनके पास यह संकलन था । यदि यह पुस्तक मिल जाती है, तब इसका रचनाकाल तुलसी के समय का ही माना जायेगा, क्योंकि तुलसी का निधन 1623 ई० में हुआ था। नहीं मिलने पर भी इतना निर्निवाद है कि 1883 ई० के पाठ में भी ‘क्षुद्र’ पाठ है,
सूद्र नहीं।
इस प्रकार, 1810, 1866, 1873, 1874, 1877, 1883 में प्रकाशित पुस्तकों में पाठ ‘ढोल गँवार क्षुद्र पशु नारी’ था और लगता है कि 1880 या 1890 के दशक के बाद भूल से या जानबूझकर क्षुद्र को सूद्र बनाया गया और गीता प्रेस द्वारा 1930 के दशक में प्रकाशित पुस्तक घर-घर पहुँच जाने के बाद यही पाठ प्रचलित हो गया। किन्तु 1883 ई. तक ‘ढोल गँवार क्षुद्र पशु नारी’ पाठ ही प्रामाणिक था ।
अत: तुलसीदास पर किसी प्रकार का आरोप लगाना बेबुनियाद है।
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