धर्मायण

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      Dharmayan vol. 88

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    • Dharmayan vol. 89 cover

      Dharmayan vol. 89

      January 2, 2021
      1
    • धर्मायण अंक संख्या 85, माघ-चैत्र 2071 वि.सं., जनवरी-मार्च 2015 ई.

      Dharmayan vol. 85

      May 10, 2020
      1
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      May 10, 2020
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      Dharmayan vol. 83

      May 10, 2020
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    • “धर्मायण” की अंक संख्या 82

      Dharmayan vol. 82

      May 10, 2020
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      May 9, 2020
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  • अंक 91-100
    • धर्मायण अंक संख्या 100 का मुखपृष्ठ

      dharmayan vol.100 Surya-Upasana Ank

      October 30, 2020
      4
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      Dharmayan vol. 97 Nag-puja Ank

      July 5, 2020
      6
    • Dharmayan vol. 96

      June 12, 2020
      0
    • आवरण धर्मायण, अंक 95

      Dharmayan vol. 95 Ganga Ank

      May 7, 2020
      2
    • धर्मायण अंक संख्या 94, वैशाख 2077 वि.सं.

      Dharmayan, vol. 94

      April 20, 2020
      2
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    • Dharmayan vol. 91
  • अंक 101-110
    • Dharmayan, vol. 110 Saptarshi Ank

      धर्मायण अंक संख्या 110, सप्तर्षि अंक

      August 22, 2021
      1
    • Dharmayan, vol. 110 Saptarshi Ank

      धर्मायण अंक संख्या 110, सप्तर्षि विशेषांक

      August 22, 2021
      1
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      Dharmayan vol. 110 Saptarshi Ank

      August 16, 2021
      1
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      धर्मायण अंक संख्या 109 पी.डी.एफ

      July 24, 2021
      1
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      July 24, 2021
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      July 5, 2021
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धर्मायण, अंक संख्या 131, वनस्पति-उपासना अंक

By सम्पादक-धर्मायण पत्रिका-महावीर मन्दिर, पटना
May 9, 2023
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Dharmayan cover, vol. 131.

अंक 131, ज्येष्ठ, 2080 वि. सं.,6 मई4 जून, 2023ई

श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए वीर बहादुर सिंह, महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।

अंक संख्या 131
  • (Reg. 52257/90, Title Code- BIHHIN00719),
  • धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की पत्रिका,
  • मूल्य : पन्द्रह रुपये
  • संरक्षक : आचार्य किशोर कुणाल
  • सम्पादक भवनाथ झा
  • पत्राचार : महावीर मन्दिर, पटना रेलवे जंक्शन के सामने पटना- 800001, बिहार
  • फोन: 0612-2223798
  • मोबाइल: 9334468400
  • सम्पादक का मोबाइल- 9430676240 (Whtasapp)
  • E-mail: dharmayanhindi@gmail.com
  • Web: www.mahavirmandirpatna.org/dharmayan/
  • पत्रिका में प्रकाशित विचार लेखक के हैं। इनसे सम्पादक की सहमति आवश्यक नहीं है। हम प्रबुद्ध रचनाकारों की अप्रकाशित, मौलिक एवं शोधपरक रचनाओं का स्वागत करते हैं। रचनाकारों से निवेदन है कि सन्दर्भ-संकेत अवश्य दें।

इस अंक पर पम्पाक्षेत्र के स्वामी गोविन्दानन्द सरस्वती महाराज का आशीर्वचन

स्वामी गोविन्दानन्द सरस्वती

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वृक्ष-पूजा अंक की विषयसूची एवं विवरण-

1.    वनस्पतयः शान्तिः- सम्पादकीय आलेख

आज जब विकास के नाम पर, बढ़ती जनसंख्या के कारण बढ़ते आवासीय क्षेत्र के नाम पर वनों को काटकर सड़कें चौड़ी की जातीं हैं, बस्तियाँ बसायी जाती हैं तो कई जगहों पर गिरे-कटे विशाल वटवृक्ष, पीपल आदि की जड़ें मन को कचोट लेतीं हैं। हमें तब याद आता है कि यह बूढ़ा बरगद आसपास के इतिहास का एक गवाह था, जो सदा के लिए मिट गया। विज्ञान कहता है कि वृक्ष है तो मानव है अतः मरुस्थल में मानव सभ्यता की कल्पना नहीं की जा सकती है। मानव के अस्तित्व के लिए वृक्षों का होना अनिवार्य है और शायद इसीलिए सनातन धर्म में वृक्षों-वनस्पतियों में देवत्व की अवधारणा है। यह वनस्पति जगत् के लिए हमारी कृतज्ञता का ज्ञापन है।

2.    वनस्पतियों में दैविक दिव्यता- विद्यावाचस्पति महेश प्रसाद पाठक

भारतीय अवधारणा के अनुसार वनस्पति जगत् भी ईश्वर की 16 कलाओं में से एक कला से सम्पन्न है, अतः उनमें भी जीवन का संचार है।  वनस्पति के इस जीवन से हमारे ऋषि-मुनि परिचित रहे हैं। महाभारत में विशुद्ध वैज्ञानिक शैली में यह सिद्ध किया गया है कि वनस्पति जगत् में भी जीवन हैं, चेतना है- वे भी देखते हैं, सुनते हैं, सुख-दुःख का अनुभव करते हैं।  इनमें से बहुत वृक्ष ऐसे माने गये हैं जिनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध ईश्वर के साथ कहा गया है। आम के पौधे को सींचने से पितरों की तृप्ति होती है- “आम्राश्च सिक्ताः पितरश्च तृप्ताः एका क्रिया द्व्यर्थकरी प्रसिद्धा”- प्रचलित है। शनिदेव की कृपादृष्टि के लिए पीपल के नीचे तिल का तेल चढ़ाते हैं, तिल के तेल का दीपक जलाते हैं। इसी प्रकार सनातन धर्म में ऐसे अनेक वृक्ष हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध किसी न किसी देव से माना गया है। ऐसे पवित्र वृक्षों पर यहाँ विशद विवेचन प्रस्तुत है।

3.    उत्कलीय परम्परा में वृक्षपूजा- डा. ममता मिश्र ‘दाश’

वनस्पति-जगत् से मानव जगत् का सीधा सम्बन्ध है। मानव शरीर का अन्नमय कोष वनस्पति जगत् की देन है, अतः इसके बिना मानव जीवन सम्भव नहीं। स्वाभाविक है कि इस प्रत्यक्ष संबन्ध को देखते हुए हमारे आस्थावान् पूर्वजों ने वनस्पतियों -वृक्षों को देवता की संज्ञा दी। वस्तुतः वन के स्वामी ‘वनस्पति’ शब्द ही देवतावाची है। वेदों ने द्यौः, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, आपस्, ओषधि, विश्वेदेव, ब्रह्म के साथ वनस्पति के लिए भी शान्तिपाठ किया तो आगम की परम्परा ने इन्हें देवता मानकर विधिवत् पूजा-उपासना की विधि दी। लोक-परम्परा में अनेक पर्व भी वृक्ष-पूजन से सम्बन्धित प्रचलित हुए। साथ ही अनेक स्थानों पर विशिष्ट वृक्षों में देवत्व की अवधारणा प्रसिद्ध हुई। उड़ीसा की लोक-परम्परा तथा शास्त्रीय परम्परा में वृक्षपूजा पर यहाँ विस्तार से लिखा गया है।

4.    वनस्पति और हमारे लोकपर्व- श्रीमती शारदा नरेन्द्र मेहता

यह गौरव का विषय है कि सम्पूर्ण भारत की लोकसंस्कृति में भी एकात्मकता है। पिछले आलेख में हमने उड़ीसा की लोक संस्कृति में वृक्ष-पूजा पर विशेष विवेचन पढ़ा यहाँ हम उज्जैन एवं उसके आसपास की संस्कृति को देखते हैं। यहाँ भी वर्ष भर में अनेक पर्व हैं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वृक्ष-उपासना से जुड़े हुए हैं। यहाँ की कुछ लोक-परम्पराएँ अनूठी हैं। जैसे यहाँ “वर्ष प्रतिपदा (गुड़ी पड़वा) हिन्दू नववर्ष का प्रारम्भ पर्व है। इस दिन कड़वे नीम की पत्तियाँ चबाकर खाने की परम्परा है। इसे मिश्री तथा कालीमिर्च के साथ खाने का विधान है। दक्षिण भारतीय परिवारों में घर के ऊपर एक काष्ठ दण्ड पर लोटा रखकर उस पर साड़ी, शकर का हार तथा नीम की डाली पर पुष्प हार अर्पित कर टाँगा जाता है। श्रीखण्ड और पूरण पोली का नैवेद्य लगाया जाता है।” इसप्रकार की अनेक विशेषताएँ इस क्षेत्र में है किन्तु संस्कृति की एकात्मकता की झलक हमें भाव-विभोर कर देती है।

5.    पर्यावरण पर भारतीय चिंतन और वृक्षपूजन- डा. श्रीकृष्ण जुगनू

एक बहुप्रचलित शब्द है- ‘लोक-वेद’, जो शास्त्र एवं लोक का समन्वय प्रस्तुत करता है। हमारे पूर्वजों ने शास्त्र की पंक्तियों को किस रूप में पहचाना इसे समझने के लिए हमें लोक को देखना होगा। यदि हम पूर्वाग्रह से मुक्त होकर लोकपरम्परा को देखें तो स्पष्ट होगा कि शास्त्र का ही वह दृश्यमान प्रवाह है। वृक्ष-पूजा के सन्दर्भ में तो इसे अधिक दृढ़ता के साथ कहा जा सकता है। लेखक राजस्थान के क्षेत्र के हैं। इन्होंने शास्त्र के रूप में वृक्षायुर्वेद पर विशेष अध्ययन किया है। इसके कतिपय मूल ग्रन्थों का सम्पादन तथा अनुवाद करने का श्रेय इन्हें जाता है। दूसरी ओर इन्होंने अपने क्षेत्र की लोक-संस्कृत का अध्ययन कर दोनों के समन्वयात्मक रूप का अवलोकन अनेक सन्दर्भों में किया है। ये कतिपय सन्दर्भ यहाँ संकलित हैं, जो राजस्थान के क्षेत्र में वृक्षपूजा से सम्बन्धित ‘लोक-वेद’ को निरूपित करते हैं।

6.    वृक्ष एवं हिन्दी साहित्य के कतिपय सन्दर्भ- डा. राजेन्द्र राज

लोक एवं वेद के सन्दर्भ में पूर्व के आलेखों में हम वृक्ष एवं उनकी महिमा का वर्णन देख चुके हैं। इससे हिन्दी का साहित्य भी अछूता नहीं रहा है। भौतिक दृष्टि से देखें तो वृक्ष सब कुछ सहन कर मानव एवं मानवता के लिए समर्पित है। वह परोपकार, विनम्रता, दृढ़ता, संवेदनशीलता -सबका साकार रूप है। जब वृक्षों पर फल लद जाते हैं तो वे झुककर हमें वैभव के दिनों में भी नम्रता का पाठ पढ़ा जाते हैं। छायादार विशाल वृक्ष  विभिन्न चिड़ियों का आश्रय होता है, वह किसी के साथ कोई भेद नहीं करता, सबको अपना बना लेता है। वह भले गगनचुम्बी क्यों न हो जाये, अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है। हिन्दी के साहित्यकारों ने वृक्ष पर आधारित अनेक सूक्तियों की रचना कर मानव को दिशानिर्देश दिया है, जिनमें वृक्ष की गरिमा की झलक हमें मिल जाती है। ऐसे कतिपय सन्दर्भ यहाँ प्रस्तुत हैं।

7.    निसर्ग के सानिध्य में- डॉ. अजय शुक्ला

मानव अपनी सुख-सुविधा के लिए जितना भी प्रयोग करता जाता है, साधनों को जुटाता जाता है, वह दुःखों और कष्टों के जाल में घिरता जा रहा है। भले ही वह एक आदर्श उपभोक्ता बन जाए, किन्तु वह मानवीय गुण का त्याग करते जा रहा है; उससे नीरोगता उससे दूर होती जा रही है और अन्ततः वह जितना छटपटाता है, जाल कसता जाता है। ऐसी स्थिति में हमें प्रकृति की याद आती है। हम निसर्ग के सांनिध्य में जाकर उसी आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करते हैं, जिसके लिए हमारे पूर्वज वानप्रस्थ आश्रम अपनाते थे। एक और बात महत्त्वपूर्ण है कि प्राचीन ग्रन्थों में प्रयुक्त ‘वनवास’ शब्द के साथ भयावहता का संसार न होकर इसी प्रकृति के सांनिध्य का वातावरण है, जिसका वर्णन हम प्रस्तुत लेख में पाते हैं। रोग एवं औषधि-मुक्त जीवन का परिकल्पना भी वहीं जाकर साकार होती है।

8.    ‘भास्कराब्द’ के प्रवर्तक कामरूप के कुमार भास्कर वर्मन- श्री दिनकर कुमार

प्रस्तुत आलेख धर्मायण की अंक संख्या 128, ‘संवत्सर विशेषांक’ से सम्बद्ध है। वर्तमान में बंगाब्द, उत्कलाब्द तथा मिथिला का फसली संवत् और आसाम का भास्कराब्द इन चारों में केवल एक वर्ष का अंतर होता है। वह अंतर भी बंगाल में अकबर के शासनकाल से आना आरम्भ हुआ है। भ्रमवश फसली संवत् को लोग इस्लामिक वर्षगणना से सम्बन्धित मान लेते हैं, जबकि सत्यता है कि ये सभी संवत्सर आसाम के भास्कर वर्मन के चलाये हुए हैं। कुमार भास्कर वर्मन वर्मन राजवंश के अंतिम और सबसे महान शासक थे, जिन्होंने 594-650 ईस्वी तक असम के कामरूप पर शासन किया था। उन्होंने राजवंश के खोए हुए गौरव और आकर्षण को वापस हासिल किया था।  इसी भास्कर वर्मन के जीवन पर आधारित आसाम का इतिहास यहाँ प्रस्तुत है।

9.    श्रीहनुमज्जन्मभूमि-विमर्श- स्वामी गोविन्दानन्द सरस्वती

मानव के कल्याण हेतु आविर्भूत भगवच्चरित्रों का प्राकट्य भारतवर्ष के किन स्थलों पर हुआ, इनमें श्रीराम-श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य देवों के विषय में मतान्तर है। विभिन्न भू-भाग के वासी अपनी दृढ़ आस्था के कारण अपने ही क्षेत्र में देवों का आविर्भाव मानकर अथवा उनके साथ किसी न किसी प्रकार से सम्बन्ध जोड़कर गौरव का अनुभव करते हैं। यह तथ्य अन्ततः हमारी एकात्मकता को ही सिद्ध करता है, जो दुन्दुभि-घोष के योग्य है। श्रद्धेय स्वामी गोविन्दानन्द सरस्वती किष्किन्धा में हनुमानजी के जन्मस्थान के समर्थक हैं। उन्होंने वाल्मीकि-रामायण के प्रमाणों के आधार पर इसे सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने इसके लिए विशुद्ध शास्त्रार्थ शैली अपनायी है। गुहा में हनुमानजी का जन्म हुआ था, यह निर्विवाद है। इस आलेख में गुहा के साथ किष्किन्धा का समानाधिकरण्य सिद्ध करते हुए प्रमाण दे रहे हैं। किन्तु यहाँ केवलान्वयित्व प्रदर्शित है, व्यतिरेक-सम्बन्ध पर भी विमर्श आवश्यक प्रतीत होता है। हम आशा करते हैं कि देश के विद्वान् इस विषय पर अपना मत देंगे। जहाँ-जहाँ गंगा है, वहाँ-वहाँ नदी शब्द का प्रयोग तो होगा ही, किन्तु जहाँ-जहाँ नदी है, वहाँ-वहाँ भी गंगा का अर्थ लेना मतवाद का विषय है।

10. भारत के प्रसिद्ध वट-वृक्ष-स्थल- श्री रवि संगम

इस अंक के अनेक आलेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वृक्ष-उपासना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रही है। प्रत्येक प्राचीन गाँव में एक-दो एसे वृक्ष अवश्य मिल जायेंगे, जिनके नीचे लोग जाकर जल चढाते हैं, धूप-दीप जलाते हैं; परिवार किसी भी शुभ अवसर पर जाकर वहाँ दूध चढ़ाते हैं- इन्हें हम ब्रह्मथान, डिहबार-थान आदि के नाम से पुकारते हैं। इनके साथ ही, देश में व्यापक स्तर भी ऐसे अनेक वृक्ष हैं जो देवस्थान बन चुके हैं, दूर-दूर से यात्री आकर वहाँ दर्शन करते हैं। इनमें पीपल तथा वट के वृक्ष अधिक हैं।  प्रयाग का अक्षय वट, बोधगया का बोधिवृक्ष आदि ऐसे 8 पर्यटन स्थलों का यहाँ सांगोपांग विवेचन पर्यटन की दृष्टि से किया गया है। रवि संगमजी पर्यटन-सूचना के विशेषज्ञ हैं, अतः उनकी अपनी अलग लेखन शैली है।

11. लङ्केश रावण में भी बसे थे प्रभु श्रीराम- डा. विनोद बब्बर

यह पिछले रामलीला विशेषांक सम्बद्ध आलेख है। हमारी परम्परा में इष्टदेव की लीला का अनुकरण भक्ति नौ रूपों में से कीर्तन तथा श्रवण के भेद के रूप में महिमामण्डित है। इनमें यदि रामलीला के दर्शक श्रवण करते हैं तो अभिनेता भी कीर्तन के पुण्य के भागी होते हैं। इन अभिनेताओं में से न केवल आदर्श पात्र बल्कि खल-पात्र भी समान पुण्य के भागी होंगे, क्योंकि नाट्यशास्त्र की दृष्टि से वे सभी अन्ततः आराध्य चरित के लिए आलम्बन एवं उद्दीपन विभाव बन जाते हैं। अतः रंगमंच पर जितने भी अभिनेता, सहायक आदि होते हैं वे सभी आराध्य की लीला के सहभागी हो जाते हैं। रामानन्द सागर द्वारा निर्मित रामायण धारावाहिक ने यद्यपि रंगमंचीय रामलीला को समाप्त कर दिया, किन्तु इलैक्ट्रॉनिक माध्यम से रामकथा को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया। आइए जानते हैं कि इस धारावाहिक में रावण की भूमिका निभानेवाले अरविंद त्रिवेदी क्या कहते हैं?

12.  श्री जगन्नाथ-रघुनाथ की संयुक्त आरती (कविता)- श्री घनश्याम दास ‘हंस’

13. वृक्ष क्यूँ मौन  ….(कविता)- डा.कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव

14. भारत-दर्शन (कविता)- श्री गौरीशंकर वैश्य ‘विनम्र’

15. रामचरितमानस की रामकथा- आचार्य सीताराम चतुर्वेदी

यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं।

16. अवध क्षेत्र में 19वीं शती की विवाह-विधि (‘रीति-रत्नाकर’ ग्रन्थ से संकलित)

जयंती का विवाह- पिछले अंक में आपने पढ़ा कि 19वीं शती में विवाह होने के दिन किस प्रकार बारात आने की धूम होती थी। पिछले अंक में कन्यादान से पैर-पुजाई तक की विधि दी गयी थी। इस अंक में दूल्हे के साथ प्रश्नोत्तरी, खिचड़ी खाना तथा बारात जीमने की कहानी पढ़ें। सर्वत्र लोकाचार में सादगी की प्रधानता है।

19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक ‘रीतिरत्नाकर’ का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं।

इस पुस्तक में एक प्रसंग आया है कि किसी अंगरेज अधिकारी की पत्नी अपने बंगला पर आसपास की पढ़ी लिखी स्त्रियों को बुलाकर उनसे बातचीत कर अपना मन बहला रही है। साथ ही भारतीय संस्कृति के विषय में उनसे जानकारी ले रही है। इसी वार्ता मंडली में वर्ष भर के त्योंहारों का प्रसंग आता है। पण्डित शुक्लाजी की पत्नी शुक्लानीजी व्रतों और त्योहरों का परिचय देने के लिए अपनी दो चेलिन रंगीला और छबीला को आदेश देतीं हैं।

यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह ग्रन्थ अवध प्रान्त के सांस्कृतिक परिवेश में लिखा गया है। इसमें अनेक जगहों पर बंगाल प्रेसिंडेंसी को अलग माना गया है।

सन् 1872 ई. के प्रकाशित इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा में बहुत अन्तर तो नहीं है किन्तु विराम, अल्प विराम आदि चिह्नों का प्रयोग नहीं हुआ है जिसके कारण अनेक स्थलों पर आधुनिक हिन्दी के पाठकों को पढ़ने में असुविधा होगी। इसलिए यहाँ भाषा एवं वर्तनी को हू-ब-हू रखते हुए विराम-चिह्नों का प्रयोग कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ स्थलों पर अनुच्छेद परिवर्तन भी किए गये हैं। जिन शोधार्थियों को भाषा-शैली पर विमर्श करना हो, उन्हें मूल प्रकाशित पुस्तक देखना चाहिए, जो Rītiratnākara के नाम से ऑनलाइन उपलब्ध है।

17. पुस्तक समीक्षा- अनमोल अमृत वचन, संकलनकर्ता- डा. बृजेन्द्र नारायण माथुर,

इस ग्रन्थ में भारतीय परम्परा की दार्शनिक गुत्थियों से बिल्कुल अलग सरल एवं सुबोध हिन्दी भाषा में इस साधना के मार्गों एवं तथ्यों का संकलन इस सम्पूर्ण पुस्तक में है। हरियाणा के अम्बाला शहर के निवासी सन्त स्वामी दयानन्द गिरि (1919ई.-2004ई.) ऐसे सन्त थे, जिन्होंने भारतीय परम्परा की साधना प्रक्रिया से स्थावर-जंगमात्मक जगत् के सन्तुलन से मानव-जीवन को सुखमय बनाने का रहस्य जान चुके थे। सम्पादक महोदय ने उन्हीं के वचनों का सुगम संकलन किया है ताकि आम पाठक, जिन्हें साधना तथा दर्शन की थोड़ी-सी भी जानकारी नहीं है, वे भी इन वचनों से लाभान्वित हो सकें। इस प्रकार, सनातन परम्परा के आलोक में जीवन-दर्शन से सम्बद्ध यह पुस्तक पठनीय है।

18. महावीर, मन्दिर समाचार, (अप्रैल, 2023ई.)

19. व्रत-पर्व, ज्येष्ठ, 2079-2080 वि. सं. (6 मई-4जून, 2023ई.)

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    March 17, 2022

    महावीर मन्दिर प्रकाशन

    चण्डिकायन की अब कोई ...
  • अखिलेश कुमार मिश्र
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    February 24, 2022

    महावीर मन्दिर प्रकाशन

    मैं आपके द्वारा प्रकाशित ...
  • सम्पादक-धर्मायण पत्रिका-महावीर मन्दिर, पटना
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    January 10, 2022

    धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक

    कोई असम्भव नहीं है। ...

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धर्मायण अंक संख्या 104 आवरण
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विश्वस्य वृत्तान्तः धर्मायण समाचारः
Dharmayan vol. 101

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