धर्मायण, अंक संख्या 129, रामचरितमानस अंक
अंक 129, चैत्र, 2080 वि. सं., 8 मार्च से 6 अप्रैल, 2023ई
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रामचरितमानस अंक की विषयसूची एवं विवरण-
1. रामचरितमानस की दुर्व्याख्याएँ- सम्पादकीय
आज इसी मशीन की शैली में रामचरितमानस की दुर्व्याख्याएँ हो रही हैं। उद्देश्य स्पष्ट है- समाज को तोड़ना। जिस रामचरितमानस ने मॉरिशस गये गिरमिटिया मजदूरों को अपनी मातृभूमि से जोड़कर रखा, समाज के सभी वर्णों और वर्गों को एकसूत्र में बाँधकर रखा, उसका भी आज ‘मशीनी विवेचन’ हो रहा है। हमें सावधान रहना है।
2. ‘मानस’ में समन्वयवाद- श्री महेश प्रसाद पाठक
भारतीय परम्परा में कट्टरता कभी नहीं रही, तभी तो उपासना एवं धर्म के इतने रूप भारत में विकसित हो सके। सीधे शब्दों में कहा जाए तो बहुदेववाद इसी सर्वसमन्वय का परिणाम रहा। सबके अपने अपने इष्टदेव हुए, जिनका नाम तक गुप्त रखने की परम्परा चली। सभी उपास्य देवों को समान स्थान मिला, सबके बीच अद्वैत की भावना भी विकसित हुई। इस समन्वय से ही एकेश्वरवाद प्रेरित हुआ। हमारे सन्तों ने इस समनव्य को पूरी निष्ठा से निभाया। सन्तकवि तुलसीदास ने अपनी लेखनी से इसे व्यापक रूप दिया तथा जन-जन तक फैलाया। रामचरितमानस में शिव-पार्वती-राम-सीता इन सब के बीच अद्भुत समन्वय स्थापित किया गया। यही कारण है कि सम्पूर्ण भारत की जनता तथा उस काल के विद्वानों ने इसे स्वीकार किया। तुलसीदास के बारे में लौकिक/अलौकिक कथाएँ प्रचलित हुईं। वे कथाएँ सत्य हैं या नहीं, कहा नहीं जा सकता है, किन्तु इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि इस प्रकार की कथाएँ किसी सामान्य व्यक्ति के विषय में रची नहीं जातीं हैं। आइए पढते हैं गोस्वामीजी का समन्वयवाद।
3. “पूजिअ बिप्र सील गुन हीना” : एक विमर्श- डॉ. राधानंद सिंह
आज रामचरितमानस पर विवाद उठाये जा रहे हैं। यह ‘मशीनी विवेचना’ का प्रतिफल है। हम किसी ग्रन्थ की किसी एक पंक्ति या एक शब्द को लेकर उसकी विसंगति साबित नहीं कर सकते हैं। उँगली उठाने के लिए भी हमें पढ़ना पड़ेगा। कहा जाता है कि कुमारिल भट्ट बौद्धदर्शन का खण्डन करने के लिए छद्मवेष में भी बौद्ध बने थे। पर, आज जो लोग रामचरितमानस पर उँगली उठा रहे हैं, उन्हें पहले उन स्थलों पर लिखी गयी व्याख्याओं को पढना चाहिए। रामचरितमानस के पूर्ववर्ती टीकाकार उन सभी समस्याओं का समाधान कर चुके हैं, जिन्हें लेकर आज हंगामा खड़ा किया जा रहा है। एक ऐसे ही विख्यात प्रसंग पर पूर्ववर्ती व्याख्याकारों का अभिमत एवं सनातन धर्म की परम्परा के अनुकूल साम्प्रतिक विमर्श यहाँ प्रस्तुत है।
4. “सकल ताड़ना के अधिकारी” : एक विमर्श – डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’
रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड का सर्वाधिक विवादित स्थल जिसमें तथाकथित रूप से शूद्र तथा नारी का नाम लेकर ताड़न का अधिकारी कहा गया है, विमर्श के लिए दो दिशाओं में शोध की अपेक्षा रखता है। एक तो इसका मूल पाठ क्या है? शूद्र-क्षुद्र-छुद्र, ताड़न-ताड़ना क्या है? हमें इस स्थल पर पाठभेद मिलता है तो निश्चित रूप से प्रामाणिक पाठ का निर्धारण होना चाहिए। फिर ताड़न का अर्थ क्या है? क्या इसका अर्थ केवल पीटना है? तो फिर ताड़ना- भाँप लेना- अनुमान करना भी तो लोकप्रयुक्त अर्थ है? हो सकता है मूल शब्द ‘तारन’ रहा हो। समान उच्चारण के कारण ‘र’ ‘ड़’ में बदल गया! ‘तारन’ था तो फिर हमें “बूड़तै गज ग्राह तार्यौ, कियौ बाहिर नीर। दासि मीरा लाल गिरधर, दुख जहाँ तहाँ पीर।” का भी अर्थ देखना होगा। यह समुद्र की उक्ति है, वह आत्मसमर्पण कर रहा है, विनती कर रहा है, अपने किए पर पछता रहा है। अतः हमें सारी परिस्थितियों के आधार पर विमर्श करना होगा। एक विमर्श यहाँ भी संकलित है।
5. सबके राम एक हैं- डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
हिन्दी के आधुनिक आलोचकों ने सगुण-निर्गुण, रामाश्रयी शाखा, कृष्णाश्रयी शाखा आदि भेदोपभेद कर भारतीय समन्वय के सिद्धान्त को तहस-नहस कर डाला है। ज्ञान. योग, क्रिया, एवं चर्या में से ज्ञानपाद देवता के निर्गुणात्मक स्वरूप का वर्णन करता है, तो वहीं क्रिया एवं चर्यापाद में वे ही देव सगुण रूप में होंगे। ये चारों पाद भारतीय वाङ्मय में अन्तर्निहित अंग हैं। इनके बीच भेद-भाव करने पर भयंकर परिणाम होंगे। यहीं हुआ है, जब हम कहते हैं कि कबीर के राम और तुलसी के राम एक नहीं हैं। गुरु नानकदेव के राम को हमने निर्गुण धारा का नाम दे दिया, मीरा के राम को अलग कर दिया। पर यदि देखें तो वाल्मीकि, तुलसी, कबीर, मीरा, गुरु नानकदेव सबके राम एक ही हैं; सबके बीच एक समन्वय है; ज्ञान और क्रिया के अध्यायों में जिस प्रकार भेद का अध्यास हम पाते हैं, वैसा ही कुछ है। विद्वान् लेखक ने भली भाँति सिद्ध किया है कि सबके राम एक ही हैं।
6. मॉरिशस में रामायण- डा. श्यामसुन्दर घोष
सन् 1834 ई. में भारत से गिरमिटिया मजदूरों को इस्ट इंडिया कम्पनी मॉरिशस ले गयी। जाते समय उनपर किसी भी वस्तु को अपने साथ न ले जाने की पाबंदी थी। वे जब जाने लगे तो अपना सबकुछ छोड़कर भी रामचरितमानस की प्रति अपने साथ लेते गये और जब उन्हें रात को फुरसत मिलती थी उसका पाठ करते थे। यह है रामचरितमानस का लोकप्रभाव। मॉरिशस के पार्लियामेंट ने ‘रामायण अधिनियम’ बनाया, जिसके तहत आज भी वहाँ रामकथा एवं रामचरितमानस प्रचार-प्रसार के लिए सरकारी स्तर पर काम हो रहे हैं। पर जहाँ रामरतिमानस की रचना हुई, जहाँ मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम प्रकट हुए वहाँ इस पर उँगली उठायी जा रही है। इसी को कहते हैं- चिराग तले अँधेरा।
धर्मायण के अक्टूबर-दिसम्बर में पूर्वप्रकाशित डा. श्यामसुन्दर घोष का यह आलेख आज एकबार फिर प्रासंगिक हो चला है।
7. बनारस की रामलीला का वृत्तान्त- अंगरेजी से अनूदित
संस्कृत में बहुत सारे नाटक रामकथा के आधार पर लिखे गये हैं। वे सभी किसी न किसी खास अवसर पर मंचन के लिए ही लिखे गये थे। पर रामचरितमानस की रचना के बाद रामकथात्मक नाट्यशैली बदली हुई प्रतीत हो रही है। कहा जाता है कि तुलसीदास स्वयं रामलीला का मंचन कराते थे जिसमें वे अपने रचे गये पद, दोहा तथा चौपाई का गायन करते थे। कलकत्ता में दुर्गापूजा के दौरान 15 दिनों की रामलीला होती थी। बनारस में उसकी परम्परा आजतक विद्यमान है। यहाँ 1828ई. में रामलीला का वर्णन किया गया है। लेखक ने मुख्यतः बनारस की रामलीला का सूक्ष्मता से वर्णन किया है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि कलाकार पढ़े-लिखे नहीं हैं, वे केवल भड़कीले मुखौटे लगाकर अभिनय करते हैं। उसके दर्शक सभी लोग होते हैं। जब शोभायात्रा निकाली जाती है तो मुखौटे में छिपकर कई अंगरेज सिपाही भी घुस जाते हैं।
8. ‘हनुमद्-दीक्षा’ : प्रसिद्ध हनुमान-चालीसा अनुष्ठान- श्री अंकुर नागपाल
रामोपासना के सन्दर्भ में कहा गया है कि जो लोग इस संसार में सुख-शान्ति-समृद्धि चाहते हैं, उनके लिए हनुमानजी की उपासना पर्याप्त है। सम्पूर्ण भारत में हनुमान की उपासना के लिए हनुमान-चालीसा सबसे प्रख्यात स्तोत्र है, जो अपनी सरलता के कारण सर्वसुलभ है। न केवल उत्तर भारत में अपितु दक्षिण भारत में भी हनुमान-चालीसा का अनुष्ठान कई रूपों में किया जाता है। इसके अनुष्ठान में न तो अशुद्ध उच्चारण का कोई भय होता है, नही विशालता के काऱण समय की बाध्यता। समाज के सभी वर्ग के लोग चाहे वे शिक्षित हों या अशिक्षित, इसका अनुष्ठान करते हैं। उत्तर भारत में खोई हुई वस्तु की प्राप्ति, खोए हुए परिजन की सुरक्षित वापसी, लौकिक बन्धन से मुक्ति, शत्रुभय से मुक्ति आदि के लिए हनुमान-चालीसा का अनुष्ठान सर्वविदित है। यहाँ दक्षिण भारत में प्रचलित हनुमदुपासना की विख्यात विधि का वर्णन किया गया है।
9. ‘रामचरितमानस’ से शिक्षा- डा. विजेन्द्र कुमार राय
यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि रामचरितमानस का व्यापक प्रभाव हमारे समाज पर पड़ा है। इसमें तुलसीदास के कथाशिल्प की विशेषता है कि उन्होंने इसके कथा-शिल्प के माध्यम से समाज को संगठित, व्यक्ति को मर्यादित तथा राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने की दिशा में प्रयास किया है। एक प्रकार से कहा जाये तो तुलसीदास रामकथा के एसे सम्पादक हैं, जिन्होंने उपर्युक्त कार्यों को मूर्त रूप देने के लिए इसका लेखन किया तथा रामलीला, प्रवचन आदि के द्वारा इसे जन-जन तक फैलाया। आज की परिस्थिति में रामचरितमानस कैसे प्रासंगिक है, इसका विवेचन सामान्य शब्दों में किया जाना चाहिए। हमारी युवा पीढ़ी आज प्रैक्टिकल हो रही है, उसे दर्शन नहीं चाहिए, उसे धरातल की बातें चाहिए ताकि वह यह होना चाहिए यह नहीं होना चाहिए- के बीच अंतर स्पष्ट कर सके। इसी उद्देश्य से यह आलेख लिखा गया है।
10. ‘रामचरितमानस’ की सामाजिक व राष्ट्रीय सर्वव्यापकता- डा. राजेन्द्र राज
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम का चरित तो गंगा की धारा है, जिसमें सभी कवि स्नानकर अपनी वाणी को पवित्र करना चाहते हैं। यही कारण है कि रामकाव्य की धारा हर कालखण्ड में मुखर रही है। लोकभाषा में साहित्य-लेखन की जो धारा दूसरी सहस्राब्दी में फूटी और बृहत्तर होती गयी, उसमें भी रामकथा को आश्रय बनाकर केशवदास-जैसे कवि ने रामचन्द्रिका की रचना की। पर, तुलसीदास के रामचरितमानस की तरह उसकी ख्याति नहीं हो सकी। आखिर क्या कारण था? लेखक ने स्पष्ट शब्दों में दिखाया है कि तुलसी का ‘लोकसंग्रह’ एक ऐसा तत्त्व है, जो उन्हें एक युगप्रवर्तक बना देता है। लेखक ने लिखा है- “तुलसीदास पहले भक्त हैं और इसके बाद ही कवि। केशवदास तो पहले कवि हैं और उसके बाद भक्त। सचमुच तुलसी भारतीय जनता के प्रतिनिधि हैं। वे राष्ट्र नायक, मर्यादावादी और भारतीय वाङ्मय पुरुष हैं। सात कांडों में लिखा रामचरितमानस संस्कृति की पुनर्व्याख्या करनेवाला और लोकमंगल के समन्वय का ग्रन्थ है। इसमें मानवतावाद के उच्च आदर्शों को व्यवहारवाद के रूप में प्रतिबिंबित किया गया है। उपेक्षित जन समुदाय को आस्था एवं उत्साह के भाव से संचारित करनेवाला है।”
11. नव जीवन और वसंत- ऋतूनां कुसुमाकरः- श्रीमती रंजू मिश्रा
वसंत नवजीवन का संदेश देता है, तभी तो ऋग्वैदिक काल में जब कार्तिक महीने में वसन्त ऋतु होती थी तब भी इसी से वर्ष का आरम्भ माना जाता था। आज भी हम वसंतकाल से नववर्ष का आरम्भ करते हैं। इसमें सूर्य की सौरिका नामक रश्मि हमें नयी ऊर्जा प्रदान करती है। लेखिका की मान्यता है कि प्रसूति घर के लिए भारतीय भाषाओं में जो शब्द हैं, वे सौरिका से तालमेल रखते हैं।
12. बौद्ध साहित्य में रामकथा- आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं। – प्रधान सम्पादक
13. अवध क्षेत्र में19वीं शती की विवाह-विधि- रीतिरत्नाकर से
19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक ‘रीतिरत्नाकर’ का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं।
इस पुस्तक में एक प्रसंग आया है कि किसी अंगरेज अधिकारी की पत्नी अपने बंगला पर आसपास की पढ़ी लिखी स्त्रियों को बुलाकर उनसे बातचीत कर अपना मन बहला रही है। साथ ही भारतीय संस्कृति के विषय में उनसे जानकारी ले रही है। इसी वार्ता मंडली में वर्ष भर के त्योहारों का प्रसंग आता है। पण्डित शुक्लाजी की पत्नी शुक्लानीजी व्रतों और त्योहरों का परिचय देने के लिए अपनी दो चेलिन रंगीला और छबीला को आदेश देतीं हैं।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह ग्रन्थ अवध प्रान्त के सांस्कृतिक परिवेश में लिखा गया है। इसमें अनेक जगहों पर बंगाल प्रेसिंडेंसी को अलग माना गया है। सन् 1872 ई. के प्रकाशित इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा में बहुत अन्तर तो नहीं है किन्तु विराम, अल्प विराम आदि चिह्नों का प्रयोग नहीं हुआ है जिसके कारण अनेक स्थलों पर आधुनिक हिन्दी के पाठकों को पढ़ने में असुविधा होगी। इसलिए यहाँ भाषा एवं वर्तनी को हू-ब-हू रखते हुए विराम-चिह्नों का प्रयोग कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ स्थलों पर अनुच्छेद परिवर्तन भी किए गये हैं। जिन शोधार्थियों को भाषा-शैली पर विमर्श करना हो, उन्हें मूल प्रकाशित पुस्तक देखना चाहिए, जो Rītiratnākara के नाम से ऑनलाइन उपलब्ध है।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक