धर्मायण- शतांक तक की गौरवमयी यात्रा
“धर्मायण” के 100वें अंक का सम्पादकीय
महावीर मन्दिर की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की मासिक पत्रिका “धर्मायण” का 100वाँ अंक सुधी पाठकों के कर-कमलों में समर्पित करते हुए अपार हर्ष की अनुभूति हो रही है। अभी तक सुधी पाठक इस पत्रिका में निहित विचारों से लाभान्वित होते रहे हैं। हम यह विश्वास दिलाना चाहेंगे कि आगे भी अपने सिद्धान्तों का अनुसरण करती हुई यह पत्रिका केवल धनात्मक विचारों से ओतप्रोत रहती हुई समाज को धनात्मकता की ओर प्रेरित करती हुई इस विराट् कार्य में अपना योगदान करती रहेगी और सुधी पाठकगण इसे पसंद करते रहेंगे।
‘धर्मायण’ पत्रिका का प्रवेशांक विक्रम संवत् 2047, ज्येष्ठ मास तदनुसार मई, 1990 ई. में प्रकाशित हुआ। महावीर मन्दिर के सचिव एवं प्रसिद्ध आई.पी.एस. पदाधिकारी आचार्य किशोर कुणाल की यह परिकल्पना थी।
प्रवेशांक में पृष्ठ संख्या 45 पर ‘शब्द-सम्पदा’ शीर्षक के अंतर्गत ‘रामायण’ शब्द की विवेचना के उपरान्त आचार्य किशोर कुणाल इस पत्रिका के नामकरण का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-
“रामायण के अनुसरण पर ही हमने ‘धर्मायण’ शब्द को गढ़ा और ईश्वर का अनुग्रह कि हमारे द्वारा भेजे गये 21 नामों में से यहीं ‘धर्मायण’ नाम पत्रिका को मिला। उपर्युक्त विवेचन (‘रामायण’ शब्द का विवेचन) के आलोक में ‘धर्मायण’ शब्द का अर्थ होगा (क) धर्म का मार्ग (ख) धर्म का निवास तथा धर्म का प्रयाण (March)”
प्रख्यात संस्कृत विद्वान् डा. काशीनाथ मिश्र के सम्पादकत्व में इस पत्रिका का प्रकाशन-कार्य आरम्भ हुआ। अपने प्रवेशांक से ही यह विशुद्ध उदात्त विचारों को प्रसारित करनेवाली पत्रिका बनी। भारतीय वाङ्मय से ऐसे-ऐसे प्रसंग निकाल कर छापे गये, जो सामाजिक समरसता, एकता, उदात्तता तथा समस्त मानवीय मूल्यों के संवाहक थे। प्रवेशांक का संपादकीय ही था- “सब सो सनेह सबको सनमानिए”।
इसके प्रथम अंक से ही बिहार के तत्कालीन गौरवशाली साहित्यकार आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, आचार्य सीताराम चतुर्वेदी, डा- सीताराम झा श्याम आदि जुड़े। स्वयं आचार्य किशोर कुणाल ने अनेक नामों से कई आलेख लिखे। इसी अंक में सामाजिक एवं धार्मिक समरसता के प्रकाश के लिए बौद्ध, जैन, ईसाई तथा इस्लाम धर्म के उदात्त विचारों से सम्बन्धित आलेख प्रकाशित हुए। संस्कृत भाषा का प्रचार-प्रसार भी इस पत्रिका का एक उद्देश्य रहा।
प्रथम अंक में पत्रिका के व्यापक उद्देश्य की घोषणा करते हुए लेखकों से निवेदन किया गया है कि “पत्रिका का उद्देश्य पाठकों को भारतीय इतिहास, संस्कृति धर्म एवं साहित्य से सुपरिचित कराना है, अतः प्रामाणिकता के साथ-साथ लेख को रोचक भी होने चाहिए।”
यह प्रसन्नता का विषय है कि प्रवेशांक से आज तक यह पत्रिका अपने इन घोषणाओं के प्रति सजग रही है। प्रस्तुत अंक के साथ हम अंक संख्या 1 से 99 तक के सभी अंको के आलेखों की सूची भी प्रकाशित कर रहे हैं। इन आलेखों की सूची को हम महावीर मन्दिर के वेबसाइट पर भी डाटाबेस के रूप में डाल रहे हैं, जहाँ क्रमशः उसे अधिकतर सूचनाओं से समृद्ध करने का अवसर मिलता जायेगा।
इस सूची का अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि लगभग 200 लेखकों के 1500 से अधिक स्तरीय आलेख इस पत्रिका में प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक ऐसे लेखक हैं, जिनके 20 से अधिक आलेख प्रकाशित हैं। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की एक पुस्तक “सुन्दरे किं न सुन्दरम्” का धारावाहिक प्रकाशन हुआ है, जो आज तक अन्यत्र अप्रकाशित है। हम शीघ्र ही उसे पुस्तकाकार उपलब्ध कराने जा रहे हैं। उन्ही का एक दीर्घ आलेख “रामः विविध आयाम” का भी प्रकाशन धारावाहिक रूप में हुआ है। इसके अतिरिक्त उनके रामकथा विषयक अनेक आलेख प्रकाशित हुए हैं।
इसी प्रकार साहित्यवाचस्पति श्रीरंजन सूरिदेव, डा. जनार्दन यादव, प्रो. रामाश्रय प्रसाद सिंह, श्री अरविन्द मानव (कविता), आरसी प्रसाद सिंह (कविता), डा. एस.एन.पी. सिन्हा, डा. डी. आर. ब्रह्मचारी, श्री परमानन्द दोषी, डा. भुलन सिंह, डा. युगल किशोर पाण्डेय, डा. युगेश्वर, श्री रघुनाथ प्रसाद विकल, श्री राजेन्द्र झा, डा. रामविलास चौधरी, डा. श्यामसुन्दर घोष आदि स्वनामधन्य विद्वानों के दशाधिक आलेख प्रकाशित हुए। आचार्य सारंगधर ने शब्द-सम्पदा के नाम से धारावाहिक आलेख लिखे, जिनमें व्यावहारिक हिन्दी की अशुद्धियों की ओर ध्यान दिलाते हुए शुद्ध हिन्दी प्रयोग की साधनिका बतलायी।
‘धर्मायण’ पत्रिका का गौरव रहा है कि इसके सम्पादन से आचार्य सीताराम चतुर्वेदी, प्रो. काशीनाथ मिश्र, श्रीरंजन सूरिदेव, आचार्य किशोर कुणाल जुडे़ रहे। इसकी अंक संख्या 3 से श्रीरंजन सूरिदेव सह-सम्पादक के रूप में जुड़े और जब तक वे जीवित रहे, उनका निर्देशन हमें मिलता रहा। अंक संख्या 28 में पं. वंशदेव मिश्र इसके सम्पादन से जुडे। वे काशी की परम्परा के संस्कृत के उच्च कोटि के विद्वान् थे। वे अंक संख्या 55 तक धर्मायण से जुडे रहे। इसके बाद पं. मार्कण्डेय शारदेय सह-सम्पादक बनाये गये। ये अंक संख्या 66 तक सम्पादक-मण्डल के निर्देशन में समस्त दायित्व निभाते रहे।
बीच में अंक संख्या 64 में इन पंक्तियों के लेखक भवनाथ झा को प्रधान सम्पादक का दायित्व सौंपा गया। इस प्रकार अंक संख्या 64 से वर्तमान तक वे सम्पादन कर रहे हैं। इस बीच अनेक अन्य व्यस्तताओं के कारण बहुत दिनों तक पत्रिका अनियमित रही। चूँकि इस पत्रिका के आलेख स्थायी महत्त्व के रहे, अतः हमने अंकों की संख्या पर विशेष ध्यान दिया। इस पत्रिका के कुछ अंक त्रैमासिक रूप में निकले, कुछ संयुक्तांक भी निकाले गये, किन्तु अंकसंख्या नियत क्रम से बढ़ती रही। विगत 30 वर्षों में इसके 100 अंक प्रकाशित हुए हैं।
सन् 2020 के आरम्भ में निर्णय लिया गया कि पत्रिका को अब नियमित मासिक रूप में प्रकाशित करना है। साथ ही, यह देखा गया कि एक केन्द्रीय विषय पर लिखनेवाले विशेषज्ञ आज भी बहुत मिल जायेंगे। अतः पत्रिका के सभी अंक विशेषांक के रूप में निकालने की नीति निर्धारित की गयी। एक केन्द्रीय विषय पर मौलिक आलेखों का प्रकाशन एक सुखद स्थिति है। हम आशा करते हैं कि तत्तद्विषयों पर जो आलेख संकलित हैं, वे भविष्य में शोधार्थियों के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध होंगे।
विक्रम संवत् 2077 के चैत्र मास का ‘रामनवमी विशेषांक’ निकला। इसकी प्रिंटिंग भी करायी गयी, लेकिन इसके तुरत बाद कोविड-19 की महामारी फैली और लॉकडाउन हो गया। इस स्थिति में निर्णय लिया गया कि सभी अंक पी.डी.एफ. रूप में महावीर मन्दिर के वेबसाइट पर डाल दिया जाये। आज इस दूरगामी संचार माध्यम का उपयोग करनेवाले बहुत बढे़ हैं। अब मोबाइल पर भी आसानी से ई-पत्रिकाएँ पढ़ी जातीं हैं, अतः इस ई-पत्रिका के रूप में ‘धर्मायण’ का स्वागत विदेशों से अधिक हुआ। अमेरिका, इंगलैंड आदि देशों में रह रहे प्रवासी हिन्दी-भाषियों ने अपनी प्रतिक्रियाएँ भेजकर हमारा उत्साहवर्द्धन किया। वर्तमान में इसी ई पत्रिका के रूप में “धर्मायण” का प्रकाशन हो रहा है, जिसे हम अपने वेबसाइट पर निःशुल्क उपलब्ध करा रहे हैं। कोविड-19 की स्थिति सामान्य होते ही इन अंकों का मुद्रित संस्करण भी उपलब्ध कराने की योजना है।
वर्ष के आरम्भ में ही आगामी सभी अंकों के केन्द्रीय विषय की घोषणा कर दी गयी है, जिससे हमारे विशेषज्ञ लेखक उस विशेषांक के लिए अपने आलेख भेजते रहते हैं। हमारा एक यह भी उद्देश्य है कि हम नये लेखकों को प्रामाणिकता के साथ लिखने के लिए प्रेरित करें। ऐसे नये लेखकों का विशेष रूप से स्वागत है। लगभग हर अंक में एक नये लेखक को हम ले रहे हैं। अब भारत के विभिन्न स्थानों से विद्वान् हमारे सम्पर्क में हैं तथा विशेषज्ञ संगत विषय पर आलेख उपलब्ध करा रहे हैं, जिसके लिए उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
यह अंक “सूर्योपासना विशेषांक” के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें विश्व इतिहास में तथा प्राचीन भारत में सूर्योपासना के स्वरूप पर विमर्श प्रस्तुत किया गया है। आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान की दृष्टि सूर्य किरणों के महत्त्व पर हमने डा. परेश सक्सेना का विशेष आलेख आमन्त्रित किया था। डा. सक्सेना मूल रूप से आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान के अधीती हैं। इसी प्रकार, कार्तिक मास का महत्त्व तथा सूर्योपासना से जुडे गणितीय तथ्यों को प्रकाशित करने के लिए प्रसिद्ध गणितज्ञ श्री अरुण कुमार उपाध्याय का प्रामाणिक आलेख यहाँ संकलित किया गया है।
इसी प्रकार, कार्तिक मास महावीर हनुमानजी के जन्मोत्सव का मास है। रामानन्द-परम्परा में हनुमत्-जन्मोत्सव कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी तिथि को मान्य है। इस अंक में वर्तमान प्रधान सम्पादक आचार्य किशोर कुणाल का विस्तृत आलेख हनुमानजी पर संकलित है। हमें विश्वास है कि अन्य विशेषांकों तरह यह अंक भी पाठकों के लिए उपयोगी होगा।
।।महावीरो हनूमान् विजयतेतराम्।।
विनयावनत
-भवनाथ झा
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक