धर्मायण

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      Dharmayan vol. 88

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    • Dharmayan vol. 89 cover

      Dharmayan vol. 89

      January 2, 2021
      1
    • धर्मायण अंक संख्या 85, माघ-चैत्र 2071 वि.सं., जनवरी-मार्च 2015 ई.

      Dharmayan vol. 85

      May 10, 2020
      1
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      May 10, 2020
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      Dharmayan vol. 83

      May 10, 2020
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    • “धर्मायण” की अंक संख्या 82

      Dharmayan vol. 82

      May 10, 2020
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      May 9, 2020
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  • अंक 91-100
    • धर्मायण अंक संख्या 100 का मुखपृष्ठ

      dharmayan vol.100 Surya-Upasana Ank

      October 30, 2020
      4
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      Dharmayan vol. 97 Nag-puja Ank

      July 5, 2020
      6
    • Dharmayan vol. 96

      June 12, 2020
      0
    • आवरण धर्मायण, अंक 95

      Dharmayan vol. 95 Ganga Ank

      May 7, 2020
      2
    • धर्मायण अंक संख्या 94, वैशाख 2077 वि.सं.

      Dharmayan, vol. 94

      April 20, 2020
      2
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    • Dharmayan vol. 91
  • अंक 101-110
    • Dharmayan, vol. 110 Saptarshi Ank

      धर्मायण अंक संख्या 110, सप्तर्षि अंक

      August 22, 2021
      1
    • Dharmayan, vol. 110 Saptarshi Ank

      धर्मायण अंक संख्या 110, सप्तर्षि विशेषांक

      August 22, 2021
      1
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      Dharmayan vol. 110 Saptarshi Ank

      August 16, 2021
      1
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      धर्मायण अंक संख्या 109 पी.डी.एफ

      July 24, 2021
      1
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      July 24, 2021
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      July 5, 2021
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धर्मायण अंक संख्या 142 गृहस्थ-आश्रम-विशेषांक

By सम्पादक-धर्मायण पत्रिका-महावीर मन्दिर, पटना
June 8, 2024
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धर्माण अंक सं. 142

अंक 142, वैशाख, 2081 वि. सं., 24 अप्रैल-23 मई, 2024ई..

श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के रूप में https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।

  • (Reg. 52257/90, Title Code- BIHHIN00719),
  • धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की पत्रिका,
  • मूल्य : पन्द्रह रुपये
  • संरक्षक : आचार्य किशोर कुणाल
  • सम्पादक भवनाथ झा
  • पत्राचार : महावीर मन्दिर, पटना रेलवे जंक्शन के सामने पटना- 800001, बिहार
  • फोन: 0612-2223789
  • मोबाइल: 9334468400
  • सम्पादक का मोबाइल- 9430676240 (Whtasapp)
  • E-mail: dharmayanhindi@gmail.com
  • Web: www.mahavirmandirpatna.org/dharmayan/
  • पत्रिका में प्रकाशित विचार लेखक के हैं। इनसे सम्पादक की सहमति आवश्यक नहीं है। हम प्रबुद्ध रचनाकारों की अप्रकाशित, मौलिक एवं शोधपरक रचनाओं का स्वागत करते हैं। रचनाकारों से निवेदन है कि सन्दर्भ-संकेत अवश्य दें।
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इस अंक के आलेखों की सूची एवं विवरण

धन्यो गृहस्थाश्रमः- सम्पादकीय

गृहस्थ आश्रम की मर्यादा भारतीय परम्परा में बहुत अधिक है। इनमें से गृहस्थ चूँकि संसाधनों के उत्पादक होते हैं अतः इनकी महत्ता सर्वोपरि है। इसी आश्रम में मानवोपयोगी सभी सामग्रियाँ उत्पन्न की जाती है जिसका उपभोग सभी आश्रमों के लोग करते हैं अतः इसे श्रेष्ठ कहा गया है। यहाँ विचारणीय है कि सनातन परम्परा की दृष्टि में आज हमारा समाज कहाँ जा रहा है? हम किन किन विन्दुओं पर अपनी परम्परा को छोड़कर भटक गये हैं? गार्हस्थ्य जीवन के किन किन मूल विषयों की हानि हो रही है? इन्हीं कुछ विषयों पर हम यहाँ विवेचन करेंगे।

न लिङ्गं धर्मकारणम्- डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य

विशेष चिह्न को लिङ्ग कहते हैं। जैसे किसी के माथे पर जटा है तो हम समझ लेते हैं कि यह संन्यासी है। इस प्रकार संन्यासी को पहचानने का एक चिह्न है जटा। यही लिङ्ग कहलाता है। मनु ने कहा है कि धर्म का कराण यह लिङ्ग नहीं है। हम बाहर से भले जटा बढ़ा लें गेरुआ वस्त्र पहन लें इससे हम संन्यासी नहीं हो जायेंगे। इसके विपरीत यदि अन्य आश्रम में रहते हुए हम ऐसे चिह्नों को विकसित कर लेते हैं तो इसे दम्भ कहा गया है और इस दम्भ से हम लोक-वंचन का पाप कर बैठते हैं। लेखक ने स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि हमें गृहस्थ आश्रम में रहते  हुए ऐसे लिङ्गों— चिह्नों से बचना चाहिए। यदि हमारे अंदर समत्व का भाव है तो हम विना किसी विशेष आडम्बर के मोक्ष के अधिकारी हो जाते हैं। इनमें गृहस्थ यदि समत्व भाव से यथासम्भव उत्पादन, पालन तथा पोषण में लगा रहे तो उसे इसी आश्रम में परम पद की प्राप्ति हो जायेगी। सभी जीवों के प्रति दया, करुणा, दान, भर-पोषण उसका प्रमुख कर्तव्य है।

गृहस्थाश्रम पर पाश्चात्त्य संस्कृति का दुष्प्रभाव- डा. काशीनाथ मिश्र

भारतीय परम्परा में गृहस्थाश्रम की महिमा सर्वत्र गायी गयी है। यहाँ ब्रह्मचर्य बिताने के बाद न्यायतः धन उपार्जन कर, सन्तति-परम्परा को अविच्छिन्न रखते हुए जीवों के परिवार, समाज तथा कुटुम्ब के भरण-पोषण का आश्रम गृहस्थाश्रम है। इसमें विवाह प्रमुख है। भारत का विवाह-विधान दैवी सम्बन्ध माना जाता है, जिसमें एक-दूसरे के साथ जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध होता है। आधुनिक काल में इस अवधारणा में जो कमी आयी है उसका कारण है पाश्चात्त्य संस्कृति। पश्चिमी देशों में विवाह एक समझौता मात्र है। इसके कारण पश्चिमी देशों में बिखरते परिवार की भयावह स्थित हो गयी है। कुछ समय पहले अमेरिका में एक लाउंड्री का विज्ञापन निकला था कि “आप विवाह क्यों करें, जब हम आपके कोट का बटन लगाने की जिम्मेदारी ले लेते हैं!” इस प्रकार, पाश्चात्त्य संस्कृति का दुष्प्रभाव भारत पर पड़ रहा है। हम आज लिव इन रिलेशनशिप की ओर बढ़ रहे हैं। विडम्बना है कि पाश्चात्त्य जगत् जिस खामियाजा को भुगतकर पुनः सुदृढ परिवार की ओर अग्रसर हुआ है, वहीं हम भारतीय अपने सुदृढ़ परिवार की परम्परा को भुलाते जा रहे हैं।

गृहस्थ आश्रम में तप एवं ब्रह्मचर्य- श्री राधा किशोर झा

सामान्य रूप से लोग समझते हैं कि विवाह न करना तथा स्त्री-संपर्क से दूर रहना ब्रह्मचर्य का पालन करना है। साथ ही, विवाह होने के साथ ब्रह्मचर्य भंग हो जाने की स्थिति में उसे हीन मान लिया जाता है। धर्मसंबंधी कार्यों में व्यावहारिक रूप से जहाँ ब्रह्मचारी तथा संन्यासियों की श्रेष्ठता मानी जाती है, वहीं गृहस्थों तथा वानप्रस्थियों के लिए दृष्टि बदल जाती है। इतना ही नहीं, तपस्या का भी आश्रम सामान्य रूप से लोग संन्यास आश्रम को मानते हैं। तपस्वी शब्द का व्यवहार भी संन्यासी के पर्याय के रूप में होता है। लेकिन यदि हम शास्त्रों को देखें तो कोई व्यक्ति नियमों का पालन कर विवाह करने के बाद भी पत्नी-सम्पर्क करने के बाद भी ब्रह्मचर्य तथा तपस्या का पालन सकता है और ब्रह्मचारी तथा तपस्वी कहलाने का अधिकारी हो सकते है, वह ब्रह्मस्थ भी हो सकता है। गृहस्थ होते हुए भी ब्रह्मचर्य, तप तथा ब्रह्मस्थ होने के नियम यहाँ शास्त्रानुसार प्रतिपादित किए गये है।

अथर्ववेदीय गृहस्थाश्रम की भूमिका- म.म. ब्रह्मर्षि श्रीपाद दामोदर सातलवेकर

श्रीपाद दामोदर सातवलेकर कृत अथर्ववेद हिन्दी भाष्य का तीसरा खण्ड गृहस्थाश्रम को प्रतिपादित करने वाले अथर्ववेदीय मन्त्रों का संकलन है। इसका प्रथम प्रकाशन स्वाध्याय मण्डल, पारड़ी, जिला बरसाड, गुजरात से हुआ था। इसकी भूमिका के आरम्भ में उन्होंने गृहस्थाश्रम के महत्त्व तथा मूलभूत तत्त्वों का मसावेश किया है। इसी भूमिका मे आगे उन्होंने एक-एक विषय को लेकर विस्तार से प्रतिपादन किया है। यहाँ भूमिका का आरम्भिक भाग प्रस्तुत है।

गृहस्थ-आश्रम पर दयानन्द सरस्वती के विचार- डॉ. सरोज शुक्ला

आधुनिक काल के धर्मसुधारकों में दयानन्द सरस्वती सर्वाधिक चर्चित रहे हैं। उनके ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का हिन्दी भाषाभाषी क्षेत्र में सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। यद्यपि उनके द्वारा प्रतिपादित सभी सिद्धान्त सनातन की धारा के अनुकूल नहीं हैं, तथापि गार्हस्थ्य-जीवन पर उनका विचार आधुनिक समाज पर पर्याप्त प्रभाव डाल चुका है। अतः उन्हें देखना आवश्यक हो जाता है। उन्होंने मूलतः मनुस्मृति का आश्रय लेकर शिक्षित युवा-युवती के बीच वैवाहिक संबन्ध की वकालत की है। व्यवहार में भलें आर्यसमाज मन्दिरों में होने वाले विवाह संदेह के घेरे में आ रहे हैं किन्तु उनके ग्रन्थ में प्रतिपादित सिद्धान्त अवलोकनीय हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती के द्वारा प्रतिपादित गार्हस्थ्य-धर्म के साथ साथ यहाँ अनेक सूक्तियों का संग्रह भी किया गया है, जिनमें गृहस्थाश्रम की रूपरेखा के साथ उसके लिए प्रशंसात्मक वचन हैं।

मनुस्मृति में गृहस्थाश्रम-श्री संजय गोस्वामी

 भारतीय जीवन शैली की विशेषता है कि यहाँ सम्पूर्ण जीवन को चार भागों में बाँटकर एक दूसरे के साथ सम्बद्ध करते हुए मानव-कल्याण के अनुरूप व्यवस्थित किया गया है। स्मृतिकारों ने इस आश्रम-धर्म पर पर्याप्त विवेचन किया है। इनमें से गृहस्थ-आश्रम की मर्यादाओं पर विशेष ध्यान दिया गया है, क्योंकि यहाँ अनुचित कर्म में लिप्त होने के लिए विशेष अवसर मिल  जाते हैं। गृही समाज में रहते हैं, उन्हें सामाजिक सरोकार निभाना होता है अतः संसर्ग के कारण उत्पन्न दोष-गुणों से वे असंपृक्त नहीं रह सकते। अतः गृहस्थ आश्रम के लिए विशेष रूप से मनुस्मृति तथा विष्णुपुराण में समेकित विवरण दिया गया है। मिथिला के 14वीं शती के धर्माधिकरणिक म.म. चण्डेश्वर ने गृहस्थरत्नाकर नामक एक विशाल ग्रन्थ की ही रचना कर दी। स्मृतिकारों ने गृहस्थाश्रमियों के लिए बहुत कुछ रियायत दी है, उन्हें पंचमहायज्ञ करने के कारण पंचसूना दोष से मुक्त कर दिया है। इन सब वि।यों पर यहाँ विवेचन प्रस्तुत है।

पुराणों में गार्हस्थ्य धर्म की महत्ता- डॉ. शैलकुमारी मिश्र

पुराणों के सम्बन्ध कोई चाहे कुछ भी कहें उनमें लोक अवधारणाओं को कथा के माध्यम से जन सामान्य तक पहुँचाने की क्षमता है। सामान्य जन भले स्मृति के वचनों को सही से न समझ सकें, वेद के मन्त्रों का आशय ठीक-ठीक समझ न सकें किन्तु पुराणों की शैली में कही गयी बातें उनके मन को छू लेती है। पुराण की कथाओं के ऊपर चमत्कार तथा अतिरंजन का मुलम्मा चढा हुआ है जो लोक की शैली है, इस शैली की जवनिका को हटाकर जब हम अंदर प्रवेश करते हैं तो वहाँ ज्ञान का अक्षय भण्डार हमें मिलता है। यह ज्ञान वेदों तथा स्मृतियों में उक्त ज्ञान से पृथक् या नवीन नहीं है, बल्कि उसी परम्परा की सर्वसुलभ व्याख्या है। अतः इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि यदि मनुस्मृति में यदि तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही है तो पुराण भी “चतुर्णामाश्रमाणां च गार्हस्थ्यं पुण्यदं स्मृतम्”, कहता है। पुराण मित्रसम्मित उपदेशात्मकता भरपूर है, जहाँ कथाओं के माध्यम से हमें कल्याणमय पथ पर ले जाने के लिए सारा प्रपंच रचा गया है। पुराणों में वर्णित गार्हस्थ्य-धर्म यहाँ प्रस्तुत है।

गृहस्थ धर्म की आवश्यकता और कर्तव्य- आचार्या कीर्ति शर्मा

गृहस्थ आश्रम कठिन परीक्षा का आश्रम है। विवाह के बाद से ही एक विशाल नदी को पार करने की उत्प्रेक्षा गृहस्थाश्रम से की जा सकती है, जहाँ पति-पत्नी तथा बच्चे होते हैं। माता-पिता के प्रति कर्तव्य, परिजन, कुटुम्ब, समाज तथा परिवार के प्रति कर्तव्यों का सिलसिला यही से आरम्भ होता है। इसके लिए हमारे स्मृतिकारों ने देश, काल तथा पात्र के अनुरूप व्यवस्था दी है जिससे हम सबके साथ ताल-मेल मिलाकर उस वेगवती नदी को पार कर सकें। यद्यपि आज विशेष रूप से शहरी जीवन में यह सारी अवधारणा ध्वस्त हो चुकी है। विडम्बना है कि बगल वाले फ्लैट में हुई मृत्यु की सूचना भी हमें कई दिनों के बाद मिल पाती है। यह ध्रुवीकरण हमारी परम्पराओं पर आघात पहुँचा रही है, हम एकाकी होते जा रहे हैं, जिसके कारण वर्तमान गार्हस्थ्य जीवन कठिनतर होता जा रहा है। अतः आज आवश्यकता है कि हम अपने आदर्शों का पालन करते हुए अपने जैविक तथा अजैविक वातावरण में घुल-मिल जायें ताकि हमारा एकाकीपन दूर हो। व्यष्टि को समष्टि में समाहित कर देना गार्हस्थ्य को सुन्दरतर बना देगा। हमारे स्मृतिकार इसका उपाय बतला गये हैं। उन उपायों का संकलन यहाँ हम देखें।

गृहस्थ के कर्तव्य पर जैनमत में हेमचन्द्राचार्य के विचार- श्री अरुण कुमार उपाध्याय

जैनमत में सागारधर्म की परिभाषा- सागरधर्मामृत ग्रन्थ से संकलित

ईसा की 13वीं शती के पूर्वार्द्ध में जैनमत के विद्वानों में पं. आशाधर का नाम आदर के साथ लिया जाता है। इनके लिखे 20 ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इनमें अनागारधर्मामृत तथा सागारधर्मामृत तथा उनकी स्वोपज्ञ टीका जैनमत के आचारों का पूर्णतः संकलन है। संस्कृत में लिखे ये ग्रन्थ पर्याप्त प्रसिद्ध हैं। अनागारधर्मामृत मे जैन यतियों के आचार संकलित हैं तो दूसरे में आगार यानी गृह में रहने वाले श्रावकों- गृहस्थों के आचारों का संकलन है। यह ग्रन्थ सिद्धान्ताचार्य पं. कैलासचन्द्र त्रिपाठी के सम्पादन में भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से 1978ई. में प्रकाशित है। इसमें सागारधर्मामृत (मूल), उसकी ग्रन्थकार द्वारा ही की गयी ज्ञानदीपिका नामक व्याख्या तथा सम्पादक द्वारा हिन्दी अनुवाद प्रकाशित है, जिसके कारण ग्रन्थ अत्यधिक स्पष्ट है। वस्तुतः सागारधर्मामृत 10वें अध्याय से 17वें अध्याय तक है, जिसे द्वितीय खण्ड कहा गया है। इसके आरम्भ में 11वें श्लोक में सागारधर्म यानी गृहस्थधर्म की परिभाषा दी गयी है। इस एक श्लोक की व्याख्या का भी हिन्दी अनुवाद यहाँ पाठकों के लिए उद्धृत किया गया है। इसके अवलोकन से हम देखते हैं कि जैनमत में भी ऐसी कोई विशेष बात नहीं है, जो सनातन की परम्परा में नहीं कही गयी हो। अन्ततः सभी भारतीय परम्परा की आधारशिलाएँ ही तो हैं!

पीपल का एक पत्ता टूटने का दण्ड- (लोककथा)

बौद्धमत में गृहस्थों के कर्तव्य- सिगालोवाद सुत्त का हिन्दी अनुवाद

बौद्धमत भी अपने अपने उत्कर्ष काल में सामान्य जनता के बीच प्रसिद्ध रहा। बहुत सारे गृहस्थ भी नगरों तथा गाँवों में इसका अनुपालन करते रहे। फलतः बौद्ध तिपिटक में अनेक स्थलों पर गृहस्थों के लिए उपदेश किए गये हैं। सुत्त निपात के धम्मिअ सुत्त में भी गाथा संख्या 18 से 29 तक गृहस्थों के लिए कटिनता से अनुपालनीय धर्मों का वर्णन किया गया है। वहाँ आरम्भ में ही कहते हैं कि न हेसो लब्भा सपरिग्गहेन, यानी  उसका पालन सपरिग्रही (गृहस्थ) से नहीं किया जा सकता है। वास्त वें वहाँ भी गृहस्थ धर्म का पालन ही कहा गया है, जिनमें मुख्यतः हिंसा, चोरी, परस्त्रीगमन, मिथ्या बोलना आदि का परिहार किया गया है। इसी प्रकार दीघ निकाय के 31वें सुत्त सिङ्गाल, सिगाल या सिगालोवाद सुत्त में गृहस्तों के लिए व्यावहारिक उपदेश किए गये हैं। उन्हें समझाया गया कि हम गृहस्थ के रूप में भी क्लेशों का नाश कैसे करते हैं, माता, पिता, गुरु, समाज, भाई-बन्धु, मित्र, दास आदि के प्रति हम अपना व्यवहार कैसे रखें। साथ ही मृत पूर्वजों के प्रति भी हमारे कर्तव्य बनते हैं। माता-पिता के निमित्त श्राद्ध करने का भी उपदेश यहाँ किया गया है। यहाँ बुद्ध कहते हैं कि प्रातःकाल केवल छह दिशाओं को प्रणाम करना ही काफी नहीं हैं हमारे माता-पिता, गुरु, भृत्य आदि हमारी दिशाएँ हैं जो हमें सुरक्षित रखते हैं उनके प्रति दायित्वों का पालन करमे से हमारी दिशाएँ सुरक्षित रहेंगी और हमारा गार्हस्थ्य जीवन सुरक्षित रहेगा।  यहाँ राहुल सांकृत्यायन का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है।

‘मानस’ में गृहस्थ-आश्रम और भगवत्-प्राप्ति- डॉ. कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव

यह अत्यन्त गौरव का विषय है कि भारत की तीन साहित्यिक कृतियों को यूनेस्को के ‘मैमोरी ऑफ़ द वर्ल्ड एशिया-पैसिफ़िक रीजनल रजिस्टर’ में जगह मिली है, इनमें एक गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस भी है। सही है कि रामचरितमानस ने अपनी रचनाकाल से भारतीय समाज को जोड़ने का कार्य किया है, जिसका सर्वाधिक प्रभाव भारतीय जनता पर पड़ा है। इस ‘मानस’ में भी भारतीय गार्हस्थ्य जीवन को बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम एक गृहस्थ हैं, वे माता, पिता, पत्नी, गुरु, अनुज, वनवासी, वन में रहने वाले मुनि-महात्मा- सबके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। आदर्श गार्हस्थ्य जीवन एक उदाहरण बन जाता है। लेखक ने रामचरितमानस के आलोक में गार्हस्थ्य-जीवन की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया है।

संस्कृत का महत्त्व : सनातन धर्म के सन्दर्भ में- डॉ. रवीन्द्र कुमार भारतीय

संस्कृत भाषा का ज्ञान सनातन धर्म के ज्ञान के लिए आवश्यक है। इसके ज्ञान के विना अनुवादों के माध्यम से प्राचीन ग्रन्थों की दुर्व्याख्या के कारण बहुत खामियाजा हम भुगत चुके हैं। अतः आज आवश्यकता है कि ग्रन्थों को हम मूल रूप से पढ़े तथा किसी खास एजेंडा से ऊपर उठकर उनका अवगाहन करें। संस्कृत भाषा हिन्दी, सिन्धी, बांग्ला, मराठी, पंजाबी, गुजराती, उड़िया, असमिया आदि सहित अधिकांश आधुनिक भारतीय भाषाओं के साथ ही नेपाली भाषा की भी जननी है तथा जिसका अन्य भारतीय भाषाओं –मलयालम, तेलुगु, तमिल तथा कन्नड़ पर गहन एवं कई एशियाई-यूरोपीय भाषाओं पर भी, न्यूनाधिक, प्रभाव है। लेखक का मन्तव्य है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थ अहिंसा, सहिष्णुता तथा परस्पर संबन्ध के आधार पर हमें एकसूत्र में बाँधने के लिए सही दिशा दिखाता है। इसी दृष्टि से हमें श्रीमद्भगवद्गीता का भी अध्ययन करना चाहिए।

‘मानस’ में आदर्श गृहस्थ जीवन- डॉ. राजेन्द्र राज

सनातन धर्म लोककल्याण का धर्म है। इसका लक्ष्य है कि जैविक तथा अजैविक वातावरण के साथ तालमेल बैठाकर हम कल्याण के पथ पर आगे बढ़े जिससे हमें सुख और शान्ति मिले। हम गाय को भी माता कहते हैं तो जलप्रवाह रूप नदी को भी माता कहते हैं। हमारी भूमि भी हमारी माता है। गार्हस्थ्य जीवन इन सबके प्रति हमारे दायित्वों की याद दिलाता है। इस आलोक में गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस का अध्ययन रोचक है। समष्टि में व्यष्टि को स्थापित कर लोककल्याण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए मानस में अनेक स्थल आये हैं। अतः आज आवश्यकता है कि पाश्चात्त्य जगत् का अंधानुकरण छोड़कर हमें अपने अतीत को देखना चाहिए तथा जो रास्ते हमारे पूर्वजों के द्वारा दिखाए गये हैं उन्हें फिर से अपने जावन में लाना चाहिए।

वीर माता सुमित्रा- डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता

रामकथा के प्रत्येक पात्र अपनी अपनी जगह आदर्श भूमिका का निर्वाह करते हैं। माहाराज दशरथ की तीनों रानियों में सबसे छोटी मगध के महाराज प्राप्तिज्ञ  पुत्री और लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न की माता रानी सुमित्रा आदर्श की प्रतिमूर्ति हैं। यह बात भिन्न है कि रानी कौशल्या तथा कैकेयी की भाँति उनका चरित व्यापक रूप से विवेचित नहीं हो सका है। गौरव का विषय है कि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में उनके भी चरित को गूढ़ रूप से गुम्पित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। माता सुमित्रा ममतामयीं हैं। वनवासगमन के समय जब लक्ष्मण भी वन जाने की प्रतिज्ञा करते हैं तो वाल्मीकि के शब्दों में माता सुमित्रा लक्ष्मण को उपदेश देती हैं कि वन में राम को राजा दशरथ के समान मानना, सीता को मेरे समान मानना और वन को अयोध्या के समान पानना- इन तीनों उपदेशों का पालन करते हुए तुम्हें जहाँ जाना हो जाओ- रामं दशरथं विद्धि इत्यादि वाक्य सुमित्रा की उक्ति है। ऐसी ममतामयी तथा त्यागशीलवती सुमित्रा का चरित यहाँ मानस के आधार पर लिखा गया है।

महावीर मन्दिर समाचार (अप्रैल-मई, 2024ई.)

 व्रत-पर्व (वैशाख, 2081 वि. सं.

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  • Dr. Mamata Misgra Dash

    Dr. Mamata mishra

    By सम्पादक-धर्मायण पत्रिका-महावीर मन्दिर, पटना
    February 23, 2021
  • डा. लक्ष्मीकान्त विमल

    Dr. Lakshmikant Vimal

    By सम्पादक-धर्मायण पत्रिका-महावीर मन्दिर, पटना
    April 1, 2021
  • अरुण कुमार उपाध्याय

    Arun Kumar Upadhyay

    By admin
    May 7, 2020
  • सम्पादक-धर्मायण पत्रिका-महावीर मन्दिर, पटना
    on
    March 21, 2022

    महावीर मन्दिर प्रकाशन

    सत्यनारायणपूजाप्रकाश की डिजिटल कापी ...
  • bharat Chandrabaghele
    on
    March 19, 2022

    महावीर मन्दिर प्रकाशन

    सर जी मुझे बृहत ...
  • सम्पादक-धर्मायण पत्रिका-महावीर मन्दिर, पटना
    on
    March 17, 2022

    महावीर मन्दिर प्रकाशन

    चण्डिकायन की अब कोई ...
  • अखिलेश कुमार मिश्र
    on
    February 24, 2022

    महावीर मन्दिर प्रकाशन

    मैं आपके द्वारा प्रकाशित ...
  • सम्पादक-धर्मायण पत्रिका-महावीर मन्दिर, पटना
    on
    January 10, 2022

    धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक

    कोई असम्भव नहीं है। ...

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धर्मायण अंक संख्या 104 आवरण
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विश्वस्य वृत्तान्तः धर्मायण समाचारः
Dharmayan vol. 101

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