धर्मायण, अंक संख्या 128, संवत्सर-विशेषांक
अंक 128, फाल्गुन, 2079 वि. सं., 6 फरवरी, से 7 मार्च, 2023ई
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1. भारतीय संवत्सरों का चक्रव्यूह (सम्पादकीय)
2. सृष्टि और प्रलय के वर्तुल में संवत्सर – डा. मयंक मुरारी
काल क्या है? भारतीय वैशेषिक दर्शन के अनुसार वह पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल. दिक् आत्मा तथा मन इन नौ द्रव्यों में से एक द्रव्य है। द्रव्य है तो इसके गुण भी हैं। काल का गुण क्या है? इसपर दर्शन शास्त्र में पर्याप्त मतभेद हैं। यहाँ विवेचनीय हो जाता है कि काल के बारे में आधुनिक वैज्ञानिक क्या कहते हैं? काल भी एक गति है। यह एक अवधारणा है। भारतीय परम्परा में संवत्सर शब्द में ‘सरति’ क्रिया है जिसका अर्थ है- सरकना, जाना- इसी से संसार शब्द भी बना है। वही एक कालचक्र है, जो निरन्तर गतिमान है। इस चक्र में ज्यों ज्यों हम परिधि से केन्द्र की ओर बढ़ते जायेंगे हमारा काल उतना ही सूक्ष्म होता जाएगा दिशाएँ भी संकुचित होती जाएगी और उसके केन्द्र बिन्दु यानी मोक्ष की अवस्था में काल और दिशा दोनों स्थिर हो जायेंगे, यही ब्रह्मलीन होने की अवस्था होगी। भारतीय परम्परा में ईश्वरत्व यही अवस्था है- दिशा और काल से रहित परमतत्त्व। आइए यहाँ हम भारतीय और पाश्चात्त्य मत से काल का दर्शन समझें
3. आयुर्वेद में आदित्यायन आधारित संवत्सर काल – डा. विनोद कुमार जोशी
संवत्सर शब्द दर्शन शास्त्र की दृष्टि से भले गतिशील चक्र का बोध कराता हो पर इस संसार में एक वर्ष की अवधि में जब हम सूर्य के किरणों के आपात कोण में परिवर्तन के कारण ऋतुओं का चक्र देखते हैं तो वह एक चक्र हमें पूर्णता की ओर सोचने के लिए विवश कर देता है। उसे व्यावहारिक रूप से हम वर्ष कहते हैं, जो वर्षा के एक चक्र का भी बोध कराता है। वह वर्ष एवं संवत्सर प्रत्येक ऋतु में हमारे शरीर के चक्र को भी प्रभावित करता है। उष्मा का ग्रहण, शोषण और त्याग हमारे शरीर को गति प्रदान करता है। भारतीय आयुर्वेद की परम्परा की विशेषता है कि वह वेदों में प्रतिपादित सिद्धान्त के अनुरूप मानव जीवन की व्याख्या करती है। इस दृष्टि से प्राणियों का शरीर केवल रक्त, मज्जा, वसा, मांस, अस्थि, मेद का समूह नहीं; बल्कि ब्रह्माण्डीय ‘ऋत’ से संयुक्त होकर उत्पन्न और विनष्ट होता है। आयुर्वेद के दो स्तम्भ चरक एवं सुश्रुत ने ऋतुचर्या के परिप्रेक्ष्य में संवत्सर की व्याख्या कर प्राणि-शरीर पर पड़नेवाले प्रभावों का वर्णन किया है।
4. राष्ट्रीय पंचाग जिसे हम भूल गये – पं. गोविन्द झा
आज जब 01 जनवरी के दिन नववर्ष की बधाइयाँ देने पर बहुत लोग भारतीय परम्परा के अनुसार नववर्ष मनाने की बात करने लगते हैं और एक-दूसरे पर छींटाकशी की स्थिति तक पहुँच जाते हैं तो विचार करना स्वाभाविक है कि स्वतंत्रता के बाद ही सही, भारत में अपने परम्परागत पंचांग के लिए क्या कार्य किए गये? आज वित्तीय वर्ष की गणना अप्रैल से होती है, ईस्वी सन् का व्यवहार जनवरी से करते हैं, धार्मिक कैलेंडर चैत्र से आरम्भ होता है। ज्योतिष की गणना मेष संक्रान्ति होती है। इन विविधताओं और भ्रान्तियों के निवराण के लिए भारत में किए गये उपायों पर प्रकाश दे रहे हैं- प्राच्यविद्या के पण्डित गोविन्द झा।
यह आलेख पूर्व में ‘धर्मायण’ की अंक संख्या 78 में प्रकाशित है, जिसे प्रासंगिक देखते हुए इस विशेषांक में हमने संकलित किया है। वर्तमान में पं. झा 101 वर्ष के हो चुके हैं तथापि वे कम्प्यूटर के माध्यम से लेखन कार्य में सक्रिय हैं। हम उनके स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं।
5. संवत्सर का काल-गणना में योगदान – श्री महेश प्रसाद पाठक
भारतीय कालगणना के सन्दर्भ में संवत्सर और उसके विभाग का विवेचन करने पर अनेक प्रकार के तथ्य सामने आते हैं। चन्द्रमा, सूर्य तथा बृहस्पति ये तीन ग्रह संवत्सर गणना में अपनी भूमिका निभाते है, अतः भारत में बृहस्पति के एक चक्र पर आधारित 60 संवत्सरों की गणना भी की गयी है। हम प्रत्येक धार्मिक कार्य में संकल्प के समय जब “अमुक संवत्सरे” कहते हैं तो वहाँ बार्हस्पत्य संवत्सर का ही बोध होता है। अक्सर कई वर्ष इन संवत्सरों के नाम के कारण अर्थ का अनुसंधान करते हुए विवाद भी हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में हमारे विविध प्रकार के भारतीय संवत्सरों का सैद्धान्तिक ज्ञान आवश्यक हो जाता है। पाठक की इस आवश्यकता को पूर्ण करनेवाला यह आलेख विशेष रूप से पठनीय है। यहाँ दी गयी अनेक तालिकाओं को कंठस्थ कर लेने की भी आवश्यकता होगी।
6. विश्व इतिहास का प्रारम्भिक कालक्रम- जेम्स उशर की कपोल-कल्पना – श्री गुंजन अग्रवाल
अक्सर हम कहते हैं कि यूरोपीयन विद्वानों ने भारतीय इतिहास के लेखन में कालगणना में भ्रान्ति फैलायी। हमारे 10,000 वर्ष के इतिहास को 2.5 हजार वर्षों में सिमट कर रख दिया। आखिर यह किस सिद्धान्त को अपनाने के कारण हुआ? वस्तुतः भारत में ऋग्वेद, गौतम बुद्ध और ईसा का जन्म इन तीनों युगों ( Epoch) के आधार पर यूरोपीय विद्वानों ने कालगणनाएँ की, जिनमें ईसा के जन्म के युग को श्रेष्ठ दिखाने के चक्कर में हमारे सारे भारतीय युगों को या तो पुरा-कथाएँ कहने की स्थिति आ गयी या उन्हें ईसा के जन्म के युग से नजदीक रखकर सारी गणनाएँ की गयी। इसके पीछे का आधार था- जेम्श उशर की परिकल्पना, जिन्होंने भारतीय इतिहास को पढ़े बिना इसके युगों का निर्धारण कर दिया था। इसी कपोल-कल्पना का विवरण यहाँ दिया जा रहा है।
7. भारतीय कालगणना एवं नवसंवत्सरोत्सव– आचार्य चन्द्रकिशोर पाराशर
नव संवत्सर एक उत्सव का दिवस होता है। आज 01 जनवरी को लोग काफी उत्साहित होते हैं। यद्यपि आज इस्वी सन् की गणना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य तथा विस्तारित हो चुका है, हम व्यवहार में सभी गणनाएँ इसी कैलेंडर से करते हैं, किन्तु लेखक का मानना है कि हमें अपनी भारतीय परम्परा कदापि भूलनी नहीं चाहिए। भारत में संवत्सर और वर्ष का व्यापक स्वरूप है। इस अर्थ में वह न केवल व्यवहार के लिए अपितु हमारे अतीत को जानने के लिए भी उपयोगी है। सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्मा प्रजापति की अवधारणा, ब्रह्माण्ड का आयाम आदि की गणना के लिए भी संवत्सर शब्द का प्रयोग हुआ है। यदि हम इस भारतीय कालगणना प्रणाली पर ध्यान देते हैं तो हमारे पुराणों में वर्णित कालानुक्रम को जानने में सुविधा होगी।
7. नवसंवत्सर और प्रजापति ब्रह्मा – श्री महेश शर्मा ‘अनुराग’
ब्रह्मा को प्रजापति कहा गया है। वे सृष्टिकर्ता हैं। अतः सृष्टि के आरम्भ का दिन ब्रह्मा का दिन माना गया है तथा उनकी उपासना उस दिन करने का विधान हमें मिलता है। इस सृष्ट्यादि का दिन भी चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को माना गया है। भले हमें कुछ पुराणकारों ने विष्णु और शिव को श्रेष्ठ दिखाने के क्रम में ब्रह्मा के महनीय विवेचन का परित्याग कर दिया हो, और जनमानस में भी कर्मान्त में ब्रह्मा की पूजा का विधान मिलता हो, किन्तु जहाँ सृष्टि, संवत्सर, सृष्ट्यादि की बात चलती हो तो ब्रह्मा के अपने गौरवमय स्वरूप का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। इस प्रकार, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन आज भी महाराष्ट्र में ब्रह्मा की पूजा प्रचलित है। लोग वर्ष भर परिवार की समृद्धि की आकांक्षा से ब्रह्मा की पूजा करते हैं। वस्तुतः यदि ब्रह्माण्ड पुराण का कथन मानें तो पड़िबा तिथि के देवता ब्रह्मा सिद्ध होते हैं। इतना ही नहीं, मिथिला में शारदीय नवरात्र की भी जो प्राचीन पद्धति विद्यापति कृत मिलती है, उसमें भी प्रतिपदा यानी कलशस्थापन के दिन सर्वप्रथम ब्रह्मा की पूजा करने का विधान है, क्योंकि ब्रह्मा सृष्टिकर्ता प्रजापति हैं।
8. उत्कलीय परम्परा में मातृकाओं में संवत्सर का प्रयोग
– डा. ममता मिश्र ‘दाशʼ
अक्सर जब हम किसी पाण्डुलिपि अथवा अभिलेख में अलग प्रकार की तिथि देखते हैं तो भ्रम में पड़ जाते हैं। वर्तमान प्रचलित तिथि में उसे परिवर्तित करने में अत्यन्त सावधानी रखनी पड़ती है। सर्वप्रथम तो यह देखना पड़ता है कि तिथिलेखन भारत के किस सांस्कृतिक क्षेत्र में हुआ है। यदि देखा जाये तो आसाम, बंगाल, उड़ीसा तथा मिथिला इन चारों क्षेत्रों में प्रचलित भास्कराब्द, बंगाब्द, कलिंगाब्द तथा फसली सन् के बीच मात्र एक वर्ष का अंतर है। संभावना है कि इन चारों का मूल Epoch Point एक ही हो। मान्यता है कि आसाम का भास्कराब्द ही इन क्षेत्रों में प्रसृत हुआ। यह पूर्वोत्तर भारत की विशिष्ट संवत्सर-लेखन की पद्धति है। कलिंग क्षेत्र के साथ एक अन्य विशेषता है कि यहाँ वर्ष गणना में 6, 16.20,26,30 आदि वर्षसंख्या की गिनती नहीं होती है। फलतः यदि 40वाँ शासन वर्ष लिखा जाये तो वह 49 वर्ष के बराबर हो जाता है। इस विशिष्ट गणना पद्धति पर यहाँ विशेष विवेचन किया गया है।
9. भारतीय कैलेण्डर और पञ्चाङ्ग -श्री अरुण कुमार उपाध्याय
कैलेंडर तथा पंचांग का उपयोग प्रत्येक घर में होता है। आज प्रचलित कैलेंडर 01 जनवरी से प्रारम्भ होकर 31 दिसम्बर तक रहता है। लेकिन भारत में विभिन्न प्रकार की संवत्सर गणना की पद्धतियाँ मिलती हैं। अतः भारत में भी स्थानीय धार्मिक कार्यों को करने के लिए अनेक प्रकार के कैलेंडर होते हैं। पंचांग इसी का व्यापक रूप है। पंचांग में क्या-क्या जानकारियाँ दी जाती है तथा उनके क्या तात्पर्य तथा उपयोग हैं, इसे जानने के लिए गणित शास्त्र की दृष्टि से भारतीय तिचार करना आवश्यक हो जाता है। हम पंचांग का नाम सुनते ही यह समझ बैठते हैं कि यह ज्योतिषीजी के उपयोग के लिए है, लेकिन मेरा विश्वास है कि इस आलेख को पढ़ लेने के बाद स्वयं आप कालगणना की पद्धति से अवगत हो जायेंगे। लेखक के विस्तृत आलेख में से एक अंश यहाँ इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रकाशित किया जा रहा है।
10. कर्मकाण्ड में संकल्प के सन्दर्भ में संवत्सर – पं. मार्कण्डेय शारदेय
किसी भी कर्मकाण्ड में संकल्प का अत्यधिक महत्त्व होता है। संकल्प के पाँच अंग होते हैं- देश, काल, पात्र, साधन तथा साध्य। इसी क्रम में काल का भी विवेचन होता है। परम्परागत रूप से हेमाद्रि-कृत चतुर्वर्ग-चिन्तामणि में विस्तृत संकल्पवाक्य मिलता है। इसका संक्षिप्त रूप प्रचलन में है। इसमें भी ब्रह्मा के दिन से लेकर पूजा के दिन की तिथि आदि का उच्चारण किया जाता है। यह कालगणना की भारतीय पद्धति है, जिसमें ब्रह्मा के दिन के दूसरे परार्द्ध में श्वेतवाराह कल्प में, वैवस्वत नामक मन्वन्तर में, अठाइसवें कलियुगे, बौद्धावतार में, तात्कालिक, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि तथा उस दिन प्रत्येक ग्रह की राशियों में अवस्थिति का उल्लेख किया जाता है। यह संकल्पवाक्य का महत्त्वपूर्ण अंग है। इसका विवेचन यहाँ किया जा रहा है।
11. जैनियोंके पद्मपुराण में रामायण-कथा – आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं।
– प्रधान सम्पादक
12. अवध क्षेत्र में 19वीं शती की विवाह-विधि – संकलित
19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक ‘रीतिरत्नाकर’ का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं।
इस पुस्तक में एक प्रसंग आया है कि किसी अंगरेज अधिकारी की पत्नी अपने बंगला पर आसपास की पढ़ी लिखी स्त्रियों को बुलाकर उनसे बातचीत कर अपना मन बहला रही है। साथ ही भारतीय संस्कृति के विषय में उनसे जानकारी ले रही है। इसी वार्ता मंडली में वर्ष भर के त्योंहारों का प्रसंग आता है। पण्डित शुक्लाजी की पत्नी शुक्लानीजी व्रतों और त्योहरों का परिचय देने के लिए अपनी दो चेलिन रंगीला और छबीला को आदेश देतीं हैं।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह ग्रन्थ अवध प्रान्त के सांस्कृतिक परिवेश में लिखा गया है। इसमें अनेक जगहों पर बंगाल प्रेसिंडेंसी को अलग माना गया है।
सन् 1872 ई. के प्रकाशित इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा में बहुत अन्तर तो नहीं है किन्तु विराम, अल्प विराम आदि चिह्नों का प्रयोग नहीं हुआ है जिसके कारण अनेक स्थलों पर आधुनिक हिन्दी के पाठकों को पढ़ने में असुविधा होगी। इसलिए यहाँ भाषा एवं वर्तनी को हू-ब-हू रखते हुए विराम-चिह्नों का प्रयोग कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ स्थलों पर अनुच्छेद परिवर्तन भी किए गये हैं। जिन शोधार्थियों को भाषा-शैली पर विमर्श करना हो, उन्हें मूल प्रकाशित पुस्तक देखना चाहिए, जो Rītiratnākara के नाम से ऑनलाइन उपलब्ध है।
13. पुस्तक समीक्षा– सुन्दरकाण्ड पं. सदल मिश्र संम्पादित
14. मन्दिर समाचार (जनवरी, 2023ई.)
15. व्रत-पर्व, फाल्गुन, 2079 वि. सं. (6 फरवरी से 7 मार्च, 2023ई.)
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक