Dharmayan vol. 110 Saptarshi Ank
धर्मायण, महावीर मन्दिर, पटना की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की मासिक हिन्दी पत्रिका।
प्रधान सम्पादक- आचार्य किशोर कुणाल, सम्पादक- पण्डित भवनाथ झा।
- (Title Code- BIHHIN00719),
- धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की पत्रिका,
- मूल्य : पन्द्रह रुपये
- प्रधान सम्पादक आचार्य किशोर कुणाल
- सम्पादक भवनाथ झा
- पत्राचार : महावीर मन्दिर, पटना रेलवे जंक्शन के सामने पटना- 800001, बिहार
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भाद्र, 2078 विक्रम संवत् (23 अगस्त, 2021 ई. से 20 सितम्बर, 2021ई. तक)
महावीर मन्दिर पटना के द्वारा प्रकाशित धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की पत्रिका धर्मायण का सप्तर्षि विशेषांक। अंक संख्या 110। भाद्र, 2078 विक्रम संवत्।
प्रधान सम्पादक- आचार्य किशोर कुणाल। सम्पादक- पंडित भवनाथ झा।
महावीर मन्दिर के द्वारा वर्तमान में पत्रिका का केवल ऑनलाइन डिजटल संस्करण ई-बुक के रूप में निःशुल्क प्रकाशित किया जा रहा है।
सम्पादकीय– पं. भवनाथ झा
भारत ऋषियों की परम्परा का राष्ट्र है। यहाँ लिपि के विकास से बहुत पहले से ज्ञान-विज्ञान की मौखिक परम्परा रही है। व्यक्ति, कुटुम्ब, समाज, परिवार क्रमशः बृहत्तर ईकाइयों के प्रति हमारे कर्तव्य इन परम्पराओं में अनुस्यूत रहे हैं। व्यक्ति स्वयं है, एक साथ भोजन करने वाले कुटुम्ब हुए, एक ऋषि-परम्परा को मानने वाले यानी एक गोत्र के समूह समाज कहलाये और समस्त प्राणिमात्र परिवार कहलाये। हमारे ऋषियों ने वृक्ष, पर्वत, नदी आदि समस्त जैविक और अजैविक वातावरण के साथ व्यक्ति का अटूट सम्बन्ध माना है, उसके प्रति कर्तव्यों का निर्धारण किया है, जो आदिकाल में मौखिक परम्परा में दैनन्दिन में प्रचलित व्यवहार में रही, बाद में उसे किसी व्यक्ति ने अपनी भाषा दी, उसे लिपिबद्ध किया। तथापि, हम मूल प्रवर्तक को उसका श्रेय देते रहे। अतः सूत्रों, स्मृतियों, संहिताओं तथा धर्मशास्त्रों का हम उनके उपलब्ध पाठ के आधार पर पौर्वापर्य काल निर्धारित नहीं कर सकते।
सृष्टिकाल के आरम्भ से ही ऋषियों का अस्तित्व माना गया है। इनमें से दस ब्रह्मा के पुत्र माने गये हैं। इन्ही दस में से सात सप्तर्षि हैं। इन सप्तर्षियों ने हमारी सभ्यता के विकास में योगदान किया है। इन्होंने एक ओर नैतिक बल पर जोर दिया तो दूसरी ओर खेती करने, यज्ञ करने, रोगों की चिकित्सा करने के लिए हमारा मार्गदर्शन किया।
आज ‘ऋषि’ शब्द सुनते ही एक बँधी-बँधायी हुई तथाकथित ‘ब्राह्मणवादी’ व्यवस्था हमारे सामने दिखा दी जाती है। अतः आज आवश्यकता है कि हम ऋषि-परम्परा तथा सप्तर्षि की परम्परा को व्यापक रूप में देखें। हम उस पुलह और काश्यप ऋषि को भी जानें, जिन्होंने हमें खेती करना सिखाया। उस विश्वामित्र को भी जानें जो वास्तु-विज्ञान के प्रवर्तक रहे। यदि हम ऋषियों की मौलिक परम्परा को जानेंगे तो हमें स्पष्ट प्रतीत होगा कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के ही नहीं, बल्कि पूरी सृष्टि-प्रक्रिया के आधार हैं। और तब हम यह भी जान पायेंगें कि हम सब उन्हीं ऋषियों की प्रजा हैं- चाहे बिन्दुज प्रजा हों या ज्ञानज हों। इससे हमारे अंदर आज भी सामाजिक, राष्ट्रीय तथा वैश्विक एकता की भावना पल्लवित होगी। वसुधैव कुटुम्बकम् के पीछे जो मूल भावना छुपी हुई है, वह प्रस्फुटित होगी।
इसी उद्देश्य से यह अंक सम्पादित किया गया है। ऋषि तथा सप्तर्षि के विभिन्न आयामों पर विद्वान् लेखकों ने सन्दर्भ के साथ अपना आलेख देकर इसे समृद्ध किया है। आशा है कि पाठकगण इससे लाभान्वित होंगे तथा समता की अवधारणा को बल मिलेगा।
इस अंक के आलेखों की सूची तथा उनका विवरण इस प्रकार हैं-
1. ऋषि, सप्तर्षि एवं उनके स्वरूप– डॉक्टर रामाधार शर्मा
जब हम तारों से भरे आकाश को रात में देखते हैं तो कुछ तारों का समूह हमें दिखाई पड़ता है। इस पूरे समूह के स्थान समय के अनुसार परिवर्तित होते रहते हैं। हमारे पूर्वजों ने इसी का अवलोकन कर स्थान, समय तथा दिशा का निर्धारण कर ऋतु के साथ उसके सम्बन्धों को पहचाना और उसका लेखन ज्यौतिष शास्त्र के रूप में किया। इसके लिए उन्होंने प्रत्येक समूह का नामकरण पुराकथाओं के आधार पर किया। जिस समय तारा समूह का नामकरण हुआ सप्तर्षि हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग बन चुके थे। इसी सप्तर्षि मण्डल पर खगोल-शास्त्रीय आलेख पढ़ें।
2. ‘सप्तर्षिसम्मतस्मृति’ : एक अवलोकन– डॉक्टर ममता मिश्र दाश
स्मृति-ग्रन्थ भारतीय प्राचीन सामाजिक, नैतिक तथा दैनिक कर्तव्यों के लिखित दस्तावेज हैं। विडम्बना यह है कि इनमें से लिखित बहुत सारे उदार विचार 19वीं शती से लेकर आजतक अप्रचारित रहे तो दूसरी ओर अपनी इच्छा से श्लोक बनाकर स्मृतियों के नाम पर बाँटे गये। दोनों ही स्थितियों में हमें मूल को देखने की महती आवश्यकता है। इसके लिए हमें प्राचीन पाण्डुलिपियों को देखना होगा। पाण्डुलिपि शास्त्र की राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विदुषी ने यहाँ सप्तर्षि के नाम पर स्मृतियों की पाण्डुलिपियों का संकलन कर हमें शोध के लिए एक दिशा दी है।
3. ऋषि : कृषि और ज्ञान-विज्ञान के प्रवर्तक– डॉक्टर श्रीकृष्ण “जुगनू”
सप्तर्षि हमारी ज्ञान परम्परा के व्यावहारिक पक्ष के प्रवर्तक रहे हैं। उन्होंने न केवल हमारी दिनचर्या, तथा समाजचर्या पर उपदेश किया बल्कि कृषि-विज्ञान, पर भी प्रकाश डाला। अनेक ऋषि वास्तु-शास्त्र, विमान-शास्त्र, कामशास्त्र आदि सभी मानवोपयोगी विषयों पर पद्धति का निर्धारण किया। भलें उनकी परम्परा परवर्ती काल में लिपिबद्ध की गयी हो, पर उऩकी विषयवस्तु स्वयं ऋषि-प्रोक्त हैं।
4. “महर्षयः सप्त पूर्वे”– डॉक्टर सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य
श्रीमद्भगवद्गीता के 10वें अध्याय में भगवान् की विभूतियों के वर्णन-क्रम में सप्तर्षियों का विवेचन आया है- महर्षयः सप्त पूर्वे इत्यादि। यहाँ व्याख्याकारों ने अनेक प्रकार से सूची दी है। शङ्कराचार्य भृगु आदि सात महर्षि की गणना करते हैं तो श्रीधरस्वामी इसका सम्बन्ध सप्तर्षियों से मानते हैं। व्याख्याकारों में शङ्कराचार्य के मत को स्वीकार करते हुए प्रसिद्ध सप्तर्षि का यहाँ उल्लेख किया है। प्रस्तुत आलेख में सप्तर्षि, चार अन्य तथा 14 मनुओं का विस्तार से विवेचन प्रस्तुत है।
5. लोक शिक्षक– सप्तर्षि– श्री महेश प्रसाद पाठक
निरुक्तकार यास्क ने ऋषि की परिभाषा दी है- ऋषिः दर्शनात्। जिन्होंने हमारी ज्ञान परम्परा वेद, वेदाङ्ग, स्मृति आदि का दर्शन किया, वे ऋषि कहलाये। इन्होंने हमारे कल्याण के लिए प्रत्येक विषयों का अवलोकन किया अतः ज्ञान के क्षेत्र की गणना से वे सात प्रकार के हुए। उन्होंने हमें कृषिशास्त्र दिया, विमान-शास्त्र दिया, चारों प्रकार के पुरुषार्थों के लिए शास्त्रों की विशेष परम्परा चलायी। इन ऋषियों में भी सात सप्तर्षि कहलाये। सप्तर्षि पर एक परिचयात्मक आलेख यहाँ प्रस्तुत है।
6. ऋषि परम्परा में सप्तर्षि– डॉक्टर ललित मोहन जोशी
ऋषि हमारे शरीर के अंगों पर अवस्थित माने गये हैं। यह अवधारणा बृहदारण्यक उपनिषद् से चलकर आज भी मन्त्रों के अङ्गन्यास तथा करन्यास में संरक्षित है। हम यदि कुछ गलत करते हैं तो वह उन ऋषियों की अवमानना है। एकाकी रहने पर भी इतने सारे ऋषि हमारे साथ हैं, यह अवधारणा हमें बल देती है, वशर्ते हम उऩकी परम्परा का पालन करते रहें जो कि सर्वजनहिताय तथा सर्वजनसुखाय के लिए है। इसके साथ ही यहाँ कण्वाश्रम तथा सप्तर्षि आश्रम का विस्तृत परिचय दिया गया है।
7. ऋषि-तत्त्व– श्री अरुण कुमार उपाध्याय
भारतीय परम्परा में ऋषियों का विवेचन व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक दोनों रूपों में हुआ है। अतः ऋषियों के अनेक प्रकार हो जाते हैं। विभिन्न दृष्टिकोण से विवेचना करने के फलस्वरूप इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति भी बदल जाती है। इस दृष्टि से ऋषियों के साथ सप्तर्षि का विवेचन म.म. मधुसूदन ओझा ने महर्षिकुलवैभवम् में विस्तार के साथ किया है। उनके इस व्यापक विवेचन को संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
8. बिहार में महर्षि विश्वामित्र के स्थल– श्री रवि संगम
महावीर मन्दिर, पटना की न्यास समिति के द्वारा अगस्त, 2021 ईसवी में जनहित में किये गये महत्त्वपूर्ण कार्यों की एक झलक
भारत श्रुति-परम्परा यानी मौखिक परम्परा का राष्ट्र रहा है। यहाँ शरीर, स्थान और काल नश्वर हैं, पर अवधारणा और परम्परा अविनाशी है। अतः यदि हमें रामायण-काल के विश्वामित्र बिहार में मिलते हैं तो इसका सीधा तात्पर्य है कि ऋग्वेद के तीसरे मण्डल की परम्परा भी इसी भू-खण्ड से जुड़ी है और मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में महर्षि विश्वामित्र, जो वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में सप्तर्षि माने गये हैं, वे बिहार के हैं। बिहार में उनके स्थलों और स्थापित मूर्तियों का पर्यटन की दृष्टि से यहाँ विवेचन किया गया है।
9. कालिदासकृत रघुवंशकी रामायण-कथा– आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं।–प्रधान सम्पादक
10.महामहोपाध्याय मधुसूदन ओझा द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मतत्त्व-विमर्श– डॉक्टर धीरेन्द्र झा
भारत ब्रह्मदर्शन का राष्ट्र रहा है। यहाँ हम चिन्तन के उस स्तर पर पहुँचे हुए हैं, जहाँ चराचर जगत् में सभी पदार्थों में एकता का भाव है, वही एकता ब्रह्म है, वहाँ पहुँचकर सारे भेद-भाव दूर हो जाते हैं। अपना-पराया, ऊँच-नीच की भावना सब समाप्त हो जाते हैं और हम व्यावहारिक रूप से ब्राह्मण-चाण्डाल, गाय-कुत्ता-हाथी सब को समान भाव से देखने लगते हैं। यही हमारी संस्कृति की मूल पाण्डित्य-परम्परा है। हम वही समदर्शी पण्डित बनें इसके लिए ब्रह्म को जानना जरूरी है।
11. मन्दिर समाचार (अगस्त, 2021)
महावीर मन्दिर, पटना की न्यास समिति के द्वारा अगस्त, 2021 ईसवी में जनहित में किये गये महत्त्वपूर्ण कार्यों की एक झलक
12. व्रत-पर्व
भाद्र, 2078 वि. सं. (23 अगस्त से 20 सितम्बर, 2021ई.) तक के महत्त्वपूर्ण पर्वों की तिथिवार सूची
धर्मायण के ऑनलाइन डिजिटल संस्करण निःशुल्क हमारे वेबसाइट पर उपलब्ध है। dharmayan.com पर इसे पढ़ सकते हैं।
धर्मायण का यह अंक देखकर मैं चकित हूं। इसलिए नहीं कि श्रद्धा संपन्न जानकारियां और लेखादि दिए गए हैं बल्कि इसमें विज्ञान सम्मत विचारों और स्थापनाओं को भी महत्व मिला है। हमारी मान्यताओं, वैज्ञानिक खोजों के साथ ही सप्तऋषियों पर अन्य प्रभूत सूचनाएं जुटाई गई हैं। यह अति परिश्रम साध्य कार्य हुआ है।
रामाधारजी ने बड़ा श्रम किया। ममताजी ने सप्त ऋषि स्मृतियों के पाठों पर विशिष्ट संदर्भ दिए हैं। उनके लेखन में बहुत श्रम है। जयपुर से सप्त ऋषि स्मृतियों का कुछ साल पहले प्रकाशन हुआ लेकिन पाठों के विषय में सूचनाओं को छुपाया गया। मैंने तब विद्वान संपादक को कहा भी था। इन पाठों का प्रयुक्त शब्दों, परंपराओं की इंगितियों आदि के आधार पर इनका रचना काल भी तय किया जा सकता है।
वराहमिहिर के काल (587 ईस्वी) तक सप्त ऋषि के नाम पर संस्कृत व प्राकृत में सूक्तियों के रूप में शाकुन की कहावतें प्रसिद्ध थीं। सप्तर्षिचार की मान्यता तब तक पुरानी हो गई थीं। “सप्त ऋषि पटल” के नाम से एक और ग्रंथ था जिसका सोदाहरण स्मरण वराह और टीकाकार उत्पल भट्ट ने किया है। उपलब्ध स्मृतियों में वैष्णव आदि मतों की प्रतिष्ठा है और परवर्ती लगती हैं। आदरणीय सुदर्शनजी, महेशजी आदि ने “महर्षय सप्त चत्वार मनवस्तथा” का उल्लेख किया है। गीताजी का यह श्लोक चार (चौदह नहीं) मनुओं की मान्यता की दृष्टि से बहुत महत्व का है और वह कौनसा काल था जबकि चार मनु की गणना होती थी? गीताजी के रचनाकाल का भी यहां संकेत हो सकता है! उपाध्याय साहब ने अपने सुपरिचित शैली में ऋषियों का सुंदर परिचय दिया है।
यह अंक सच में विशिष्ट बन पड़ा है। शोध पूर्ण संदर्भ रोचक हैं। संपादकजी को अनेक बधाई और अभिनंदन। 🙏
डॉ. श्रीकृष्ण “जुगनू”, जयपुर, राजस्थान द्वारा “धर्मायण पत्रिका” ह्वाट्सएप समूह पर प्रेषित।