धर्मायण, अंक संख्या 120, चातुर्मास्य-विशेषांक
आषाढ़, 2079 वि. सं. (15 जून से 13 जुलाई 2022ई. तक)
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आलेख के शीर्षक एवं विषयवस्तु का विवरण
1. वर्षाकाल के चार मास (सम्पादकीय) —भवनाथ झा
धर्म का प्रधान उद्देश्य मानव जीवन को स्वस्थ एवं प्रसन्न रखते हुए शान्ति की दिशा में ले जाना है। अतः जीवन में धर्म एवं स्वास्थ्य के बीच बहुत गहरा संबन्ध है। हमारे अनेक ऐसे व्रत एवं धार्मिक गतिविधि हैं जो सीधे तौर पर स्वास्थ्य से सम्बन्ध रखते हैं। प्रातःस्नान, संयमित भोजन, उपवास, रविवार को अलवण-व्रत (विना नमक का भोजन करना) आदि इनके उदाहरण हैं। इसी प्रकार, चातुर्मास्य-व्रत भी पूर्णतः हमारे स्वास्थ्य एवं शारीरिक गतिविध से जुडा हुआ है।
2. सनातन धर्म के आलोक में चातुर्मास्य- श्री महेश प्रसाद पाठक
वर्ष के चार मास- आषाढ़, श्रावण, भाद्र, आश्विन जो वर्षाकाल के रूप में प्रसिद्ध हैं लोकाचार में ‘चतुर्मासʼ कहलाते हैं। किन्तु सनातन धर्म में हरिशयन एकादशी से देवोत्थान एकादशी पर्यन्त चार कुल चार मास चतुर्मास माने गये हैं। इन चार मासों के कर्तव्य को ‘चातुर्मास्यʼ कहा जाता है। इसी बीच पार्श्वपरिवर्तिनी एकादशी भी होती है। सनातन में वैष्णव परम्परा में विशेष रूप से इसकी मान्यता है। यदि ऐतिहासिक विवेचन करें तो कालिदास के समय में भी देवात्थान एकादशी प्रचलन में थी। मेघदूत में यक्ष के शापान्त का दिन यही बतलाया गया है- शापान्तो मे भुजगशयनादुत्थिते शार्ङ्गपाणौ। शेषान् मासान् गमय चतुरो लोचने मीलयित्वा।
इस प्रकार चातुर्मास्य की परम्परा अति प्राचीन काल से चली आ रही है। लेखक में इसके महत्त्व तथा इस बीच के कर्तव्य को सनातन परम्परा की दृष्टि से विवेचित किया है।
3. सनातन धर्म में नानात्व बनाम एकत्व- श्री राधा किशोर झा
अक्सर इस बात पर चर्चा होती रहती है कि सनातन परम्परा बहुदेववादी परम्परा है। वास्तविकता है कि यहाँ नानात्व के बीच एकत्व का संदेश है। एक ही देव के विभिन्न नामकरण केवल मूर्तिभेद के आधार पर किये गये हैं और यह भी इसलिए कि जो जिस देवता को जिस रूप में मानते हैं, वे सभी सनातन से जुड़े माने जायें। समग्र समाज को उदारवादी दृष्टिकोण से धर्म से जोड़े रखने की कवायद में हमारे पूर्वजों ने पुराणों में भी मूर्तिभेद की कल्पना की तथा इद्र, यम, मातरिश्वा, ब्रह्मा, राम, कृष्ण, परशुराम आदि को भिन्न-भिन्न मानने की कल्पना की। धार्मिक स्वतन्त्रता का यह अनुपन उदाहरण हमें सनातन धर्म में मिलता है।
4. अध्यात्म रामायण में वर्णित चातुर्मास्य का कालक्षेप डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य
रामानन्दाचार्य कृत ‘वैष्णवमताब्जभास्करʼ में शिष्य के द्वारा पूछे गये 10 प्रश्नों का उत्तर देते हुए वैष्णवों के लिए आचार-संहिता प्रतिपादित की गयी है। इनमे से एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है- कालक्षेप सम्बन्धी। वैष्णवों को किस प्रकार समय व्यतीत करना चाहिए? इसी सन्दर्भ में ‘चातुर्मास्यʼ व्याख्येय हो जाता है। इसका उत्तर हमें आध्यात्म-रामायण में मित्र-सम्मित उपदेश के रूप में प्राप्त है। किष्किन्धाकाण्ड में सुग्रीव का राज्याभिषेक कर लक्ष्मणसहित श्रीराम प्रस्रवण गिरि पर एक गुफा में चले जाते हैं। वहाँ लक्ष्मण शिष्य के समान श्रीराम से जिज्ञासा करते हैं कि आपकी पूजा की पद्धति क्या है? अध्यात्म रामायण का आरम्भ रामगीता से होता है, जो ज्ञानकाण्ड का गम्भीर विवेचन करता है, किन्तु किष्किन्धाकाण्ड का चतुर्थ सर्ग रामोपासना के कर्मकाण्ड का सर्ग है। इस सर्ग में स्पष्ट रूप से चातुर्मास्य में कालक्षेप की विदि दी गयी है।
5. जैनधर्मदर्शन के आलोक में वर्षायोग- डा. बिपिन कुमार झा एवं डा. दीपिका दीक्षित
‘चातुर्मास्यʼ न केवल वैदिक और पौराणिक परम्परा में विवेच्य है अपितु जैन-परम्परा में भी इसके लिए निर्देश दिये गये हैं। जैनमुनि भी वर्षाकाल में इन निर्देशों का पालन करते हुए एक स्थान पर इन चार मासों को व्यतीत करते थे। इसके लिए वहाँ ‘वर्षायोगʼ शब्द का व्यवहार हुआ है। प्रस्तुत आलेख के लेखक के शब्दों में- “जैनावलम्बियों में चातुर्मास की परम्परा अत्यंत प्राचीन रही है। भगवान महावीर ने अपने जीवन में अनेकशः चातुर्मास किए। उनका अंतिम 42वाँ चातुर्मास पावापुरी में माना जाता है। पावापुरी में ही उन्होंने अंतिम उपदेश तथा देशनाएं दी जिसका सन्दर्भ जैनों के प्रसिद्ध आगम ‘उत्तराहयमन सूत्र’ में प्राप्त होता है। ” प्रस्तुत आलेख के लेखकद्वय शास्त्रों के विद्वान् अध्यापक तथा शोधकर्ता हैं। धर्मायण के लेखकों के समूह में इनका स्वागत है। हम आशा करते हैं कि इनके आलेख हमें भविष्य में भी मिलते रहेंगे।
6. बौद्धश्रमण परम्परा में ‘चातुमासʼ पालन : एक विहंगम दृष्टि- श्री प्राणशङ्कर मजुमदार
‘चातुर्मास्यʼ शब्द यदि संस्कृत में कहा जाता है, तो इसी का पाली भाषा में छायानुवाद होगा ‘चातुमासʼ। बौद्ध-परम्परा में पाली भाषा के इसी शब्द का व्यवहार किया गया है। इस चातुमास में एक स्थान पर रहकर उपदेश करना ‘बस्साबासʼ—वर्षावास है। बुद्ध ने अपने संन्यास जीवन में प्रत्येक वर्ष चार मासों का वर्षावास किया था। बिहार में भी आज अनेक स्थल चिह्नित किये गये हैं, जो उनके वर्षावास के स्थल थे। बौद्ध-परम्परा में इस बस्साबास के लिए नियमों का संकलन ‘विनयपिटकʼ में हुआ है। बौद्ध-दर्शन के विद्वान् लेखक ने इस आलेख में जानकारी दी है कि- “‘चातुमासʼ शब्द में जब कि चार मास के समाहार का प्रतिपादन ऊपर किया जा चुका है, पर बुद्ध ने केवल तीन मास कि ‘वस्सवासʼ कि अनुमति दी। यह शङ्का उस समय भिक्खुओं को भी हुआ था, क्योंकि बुद्ध ने तीन मास की बात भिक्खुओ से कहीं थी, तो फिर यह एक मास का संयोजन कैसे संभव होगा? इसका उत्तर विनयपिटक के अन्तर्गत ‘महावग्गʼ में प्राप्त होता है।” धर्मायण के विद्वान् लेखकों के समूह में श्री प्राणशङ्कर मजुमदारजी का स्वागत है।
7. गौतम बुद्ध का बिहार में वर्षावास-स्थल- श्री रवि संगम
बिहार के लिए यह गौरव की बात है कि यहाँ जैन तथा बौद्ध परम्परा का अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ। यह महावीर जैन की जन्मस्थली रहा है। बुद्ध ने भी इसी धरती पर ज्ञान पाया तथा अपने जीवनकाल में बहुत वर्ष यहाँ बिताये। उन्होंने जिन-जिन स्थानों पर चातुर्मास्य के चार मास बिताये उसके संकेत बौद्धग्रन्थों में मिलते हैं, जिनके विवरण के आधार पर पुरातत्त्ववेत्ताओं ने बस्साबास के स्थलों का निर्धारण किया है। वे स्थल आज पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बन गये हैं। बहुत स्थलों पर प्राचीन काल में बने स्मारक भी उपलब्ध हैं। शेष स्थानों की पहचान गाँव के नाम से होती है। बिहार के पर्यटन के लेखक श्री रवि संगम ने हमारे विशेष आग्रह पर यह आलेख तैयार किया है, जिसमें बुद्ध के बस्साबास से सम्बन्धित सारी जानकारी दी गयी है।
8. सनातन परम्परा में चातुर्मास्य का पहला दिन- हरिशयन एकादशी- सुश्री पुनीता कुमारी श्रीवास्तव
चातुर्मास्य भगवान् शंकर का कार्यकाल है। घने मेघ, वर्षा, विद्युत् तथा प्रचण्ड वायु के रूप में पृथ्वी को हर वर्ष सिंचित करते हैं। भगवान् शिव एक ओर रुद्र के रूप में भयंकर हैं तो दूसरी ओर वर्षा के उपरान्त जब नवीन वनस्पतियाँ उग जातीं हैं तो वे महाभिषक्, वैद्यनाथ कहलाते हैं। कामनाओं की वर्षा करने के कारण वे वृषभ भी कहे गये हैं। इन चार महीनों में संसार का सारा कार्य भार शंकर पर सौंपकर भगवान् विष्णु स्वयं क्षीरसागर में निद्रा में लीन हो जाते हैं। यही दिन आषाढ़ शुक्ल एकादशी की हरिशयनी एकादशी तिथि है। प्राचीन काल से इसकी परम्परा चल रही है। कालिदास के समय में भी यह परम्परा थी। इसी दिन से चातुर्मास्य आरम्भ होता है। लेखिका ने यहाँ शास्त्रीय परम्परा का उल्लेख तो किया ही अपितु वर्मान काल में लोक-मान्यताओं का भी प्रलेखन करने का कार्य किया है। हमें खुशी है कि लेखिका का आलेखन का स्तर धीरे-धीरे बढ़ रहा है।
9. क्रान्तदर्शी कवियों का चातुर्मास्य डा. श्रीकृष्ण जुगनू
कवि क्रान्तदर्शी होते हैं। वे अपने परिवेश को शब्दों में उत्कीर्ण कर मान्यताओं को शाश्वत बनाने में निपुण होते हैं। वर्षाकाल उनका प्रिय विषय रहा है। परदेश गया हुआ नायक चूँकि इस काल में यात्रा कर नहीं सकता अतः नायिका की पीड़ा दुःसह हो जाती थी। इसके विपरीत यदि नायक साथ हो तो यह भी सुनिश्चित होता था कि वह कहीं जायेगी नहीं। आज भलें वह स्थिति न हो, पर अतीत में यदि वह स्थिति थी तो वर्षाकालीन विरह तथा संयोग-वर्णन कवि-समय के रूप में सर्वत्र विद्यमान है। यह प्रकृति के नवीकरण का काल है, अतः सौन्दर्य का कालखण्ड है। चाहे भाषा के कवि हों या देवभाषा के, दोनों के काव्यों में लोकसौन्दर्य की अभिव्यक्ति के लिए वर्षा ऋतु उद्दीपन विभाव के रूप में सामान्यतः वर्णित है। लेखक ने कुछ उदाहरण देकर इस मान्यता की पुष्टि की है।
10. ‘जगन्नाथाष्टकम्ʼ का एक विशिष्ट पाठ -भवनाथ झा
परम्परा से जगन्नाथाष्टक के रचयिता आदि शङ्कराचार्य माने जाते हैं। सर्वत्र पुष्पिका में उनका उल्लेख हुआ है। किन्तु प्रकाशित प्रति के पाठ की आलोचना करने पर ऐतिहासिक विसंगति जाती है। उदाहरणार्थ प्रकाशित प्रति के छठे श्लोक की द्वितीय पंक्ति में भगवान् जगन्नाथ के लिए “राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो” विशेषण आया है। ऐतिहासिक दृष्टि से राधा का उल्लेख हमें 11वीं शती से पूर्व नहीं मिलता है, यहाँ तक कि भागवत महापुराण में भी राधा का उल्लेख नहीं है, तब 8वीं शती के शंकराचार्य राधा का उल्लेख कैसे करेंगे? तब हमें यह मानना होगा कि यह किसी परवर्ती कवि की रचना है। ऐसे ऊहापोह की स्थिति में प्रस्तुत पाण्डुलिपि का महत्त्व बढ़ जाता है। 17वीं शती की इस पाण्डुलिपि में उपर्युक्त विशेषण के स्थान पर “श्रद्धारसचयपुरालिङ्गनसुखो” उपलब्ध है। इस पाठ का अर्थ है- संचित श्रद्धा रस से युक्त नगर अर्थात् श्रद्धावान् भक्त के द्वारा किया गया आलिङ्गन ही जिनके लिए सुख है अर्थात् श्रद्धावान् भक्ति जब भगवान् का अलिङ्गन करते हैं तो भगवान् सुख प्राप्त करते हैं। यह व्यापक अर्थ है। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक पाठान्तर इस प्राचीन पाठ में है। पाद-टिप्पणी में प्रचलित पाठ से पाठान्तर दिया गया है।
11. आनन्द-रामायण-कथा आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं। – प्रधान सम्पादक
12. 19वीं शती की कृति ‘रीतिरत्नाकरʼ में पर्व-त्योहारों का विवरण- संकलित
19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक रीतिरत्नाकर का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं। इस पुस्तक में एक प्रसंग आया है कि किसी अंगरेज अधिकारी की पत्नी अपने बंगला पर आसपास की पढ़ी लिखी स्त्रियों को बुलाकर उनसे बातचीत कर अपना मन बहला रही है। साथ ही भारतीय संस्कृति के विषय में उनसे जानकारी ले रही है। इसी वार्ता मंडली में वर्ष भर के त्योंहारों का प्रसंग आता है। पण्डित शुक्लाजी की पत्नी शुक्लानीजी व्रतों और त्योहरों का परिचय देने के लिए अपनी दो चेलिन रंगीला और छबीला को आदेश देतीं हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह ग्रन्थ अवध प्रान्त के सांस्कृतिक परिवेश में लिखा गया है। इसमें अनेक जगहों पर बंगाल प्रेसिंडेंसी को अलग माना गया है। सन् 1872 ई. के प्रकाशित इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा में बहुत अंतर तो नहीं है किन्तु विराम, अल्प विराम आदि चिह्नों का प्रयोग नहीं हुआ है जिसके कारण अनेक स्थलों पर आधुनिक हिन्दी के पाठकों को पढ़ने में असुविधा होगी। इसलिए यहाँ भाषा एवं वर्तनी को हू-ब-हू रखते हुए विराम-चिह्नों का प्रयोग कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ स्थलों पर अनुच्छेद परिवर्तन भी किए गये हैं। जिन शोधार्थियों को भाषा-शैली पर विमर्श करना हो, उन्हें मूल प्रकाशित पुस्तक देखना चाहिए, जो Rītiratnākara के नाम से ऑनलाइन उपलब्ध है।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक