धर्मायण, अंक संख्या 116 शिव-तत्त्व अंक

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इस अंक के आलेख एवं उनका विवरण
1. श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि—श्री हर्षवर्द्धन
वर्तमान झारखण्ड राज्य स्थित वैद्यनाथ धाम की गणना ज्योतिर्लिंगों में होती है। यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टि से वर्तमान मन्दिर 16वीं शती का निर्मित है, लेकिन अनेक आर्ष ग्रन्थों में इस स्थल पर गुफा में भगवान् शंकर की अवस्थिति का उल्लेख मिलता है। शिवपुराण में दो स्थलों पर, लक्ष्मीनारायण संहिता में, तथा शंकराचार्य कृत द्वादशज्योतिर्लिंग स्तोत्र में इस स्थल को भगवती सती की चिताभूमि पर अवस्थित ज्योतिर्लिंग माना गया है। आनन्द रामायण के अनुसार वर्तमान सुल्तानगंज स्थित अजगवीनाथ (प्राचीन बिल्वेश्वर महादेव) का दर्शन कर श्रीराम सीता के साथ देवघर गये थे। चैतन्यदेव, म.म. अयाची के द्वारा भी इस स्थल पर आने की कथाएँ मिलतीं हैं। भारत के प्रख्यात पुराविद् एवं अभिलेख शास्त्री राजेन्द्रलाल मित्र ने इस स्थल के सम्बन्ध में अपना शोध पत्र 1883ई. में ही लिखा था। प्रस्तुत आलेख में देवघर के ही निवासी ने इस स्थल से सम्बन्धित अनेक लोक-परम्पराओं का उल्लेख किया है जो यहाँ प्रथम बार प्रकाशित किया जा रहा है।
2. मुखलिंगों का शास्त्रीय विवेचन एवं मण्डलेश्वरस्वामी शिव का महत्त्व—डा. प्रकाश चरण प्रसाद
बिहार में गंगा के दक्षिण मगध का क्षेत्र आज यद्यपि बुद्ध से सम्बन्धित स्थल के रूप में जगत्-प्रसिद्ध हो चुका है, किन्तु यहाँ हमें वैष्णव, सौर एवं शैव तीनों परम्पराओं के पुरास्थल मिलते हैं। शिव के साथ स्वाभाविक रूप से शक्तिपीठ भी यहाँ हैं। वर्तमान कैमूर जिला के भभुआ के निकट स्थित पँवरा पहाड़ी पर अवस्थित मुण्डेश्वरी मन्दिर वास्तव में मण्डलेश्वर शिव मन्दिर है। इसके मध्य में पंचमुख शिवलिंग स्थापित है। यह एकल पहाड़ी अनेक प्रकार से प्राचीन है। यहाँ से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार इस शिवलिंग की स्थापना गोमिभट्ट ने दूसरी शती में उदयसेन के शासनकाल में किया था। इस मन्दिर की पुरातात्त्विक विशेषताओं तथा क्षेत्र की सास्कृतिक विशेषताओं पर प्रकाश देते हुए प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेता की लेखनी से यह विशष्ट आलेख प्रस्तुत है। इसका प्रकाशन धर्मायण की अंकसंख्या 74 में भी हो चुका है तथा इसे महावीर मन्दिर द्वारा प्रकाशित पुस्तक Mundeshvari Temple (The oldest, Recorded Temple in the Country) में भी हो चुका है।
3. काश्मीरीय शैव दर्शन में शिव की दास्य-भक्ति— शत्रुघ्नश्रीनिवासाचार्य पं. शम्भुनाथ शास्त्री वेदान्ती
शैव-आगमों में भगवान् शिव शैव दर्शन में परब्रह्म परमेश्वर कहे गये हैं। इन आगमों पर आधारित स्वतन्त्र दर्शन शास्त्र की धाराएँ भी भारतवर्ष में प्रचलित हैं। इनमें से अन्यतम हैं— काश्मीर में प्रादुर्भूत प्रत्यभिज्ञा दर्शन अथवा त्रिक् दर्शन। ईसा की नवम शती में इस दर्शन के प्रचारक आचार्य वसुगुप्त हुए तथा इसे इसे पल्लवित-पुष्पित करने का श्रेय महान् दार्शनिक अभिनवगुप्त को जाता है। शिव एवं शक्ति की युति से समन्वित तथा अद्वैतवाद के मत से समर्थित इस दर्शन के विशाल साहित्य हैं। इसे अत्यन्त गृढ़ दर्शन माना जाता है, किन्तु इस आलेख की अनन्य विशेषता है कि लेखक ने इतने व्यापक विषय को एक आलेख में सुन्दर ढंग से समझा दिया है।
4. दक्षिण भारत में शिव उपासना —श्री जगन्नाथ करंजे
भगवान् शिव सम्पूर्ण भारत में व्याप्त हैं। काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अखण्ड भारतभूमि शिव की उपासना तथा दार्शनिक विवेचन से आप्लावित है। भक्ति आन्दोलन के अनेक आचार्यों ने समाज को एकसूत्र में बाँधने के लिए भगवान् शिव की सहज उपासना का अवलम्बन किया है। उत्तर में गोरखनाथ शिव के परम भक्त हैं तथा दक्षिण में वसवेश्वर ने सामाजिक एकता का सूत्र प्रसारित करने के लिए भगवान् शिव की भक्ति की। आसाम के मौखरि वंश के सभी शासक शैव रहे हैं। बंगाल में भी चैतन्य महाप्रभु से पूर्व शिवभक्ति का अत्यधिक प्रसार रहा। शिव एवं शक्ति की युति के लेकर भारत का जनमानस सनातन धर्म की मुख्य धारा से जुड़ा रहा। भारत का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं. जहाँ शिवोपासना प्रचलित न रही हो। प्रस्तुत आलेख में लेखक में दक्षिण भारत की विभिन्न शैव परम्पराओं का उल्लेख कर भक्ति आन्दोलन में उसकी भूमिका निरूपित की है।
5. लीलाधारी शिव के विभिन्न अवतार— श्री महेश प्रसाद पाठक
भगवान् शिव एक ओर अनादि निधन ब्रह्म के रूप में भी भारतीय दर्शन में प्रतिष्ठित हैं तो पोराणिक अवतारवाद की अवधारणा के अनुरूप उनके विविध अवतारों का भी उल्लेख हुआ है। साकार रूप में भगवान् शिव की हमेशा से होती रही है। चन्द्रशेखर, जटाजूटधारी, व्याघ्राम्बर, वृषभवाहन आदि विभिन्न रूपों में वे जनमानस में पूज्य रहे हैं। भगवती पार्वती के साथ उनका नित्य सम्बन्ध है और इस रूप में वे समस्त आगमों के उपदेष्टा हैं। वे रामकथा के भी आदि प्रवक्ता के रूप में प्रतिष्टित रहे हैं। श्रीराम की सहायता के लिए उनका हनुमदवतार प्रसिद्ध है। इस प्रकार साकार शिव तथा अवतारी शिव के अनेक रूपों का वर्णन इस आलेख में किया गया है।
6. सद्योजात एवं पार्वती की प्रतिमा— डा. सुशान्त कुमार
शिव की आठ मूर्तियाँ प्राकृतिक पदार्थों के रूप में हैं तो पाँच मूर्तियाँ साकार रूप में अवस्थित हैं- पश्चिम में सद्योजात, उत्तर में वामदेव, दक्षिण में अघोर, पूर्व में तत्पुरुष तथा ईशान कोण में ईशानमूर्तियों की आराधना होती है। पंचमुख शिवलिंग में यही ईशान रूप ऊर्ध्व में मान लिया गया है तथा अन्य चारों मुख चार दिशाओं में अवस्थित होते हैं। इनमें सद्योजातमूर्ति की कथा का अंकन हमें पृथक् रूप से मूर्तियों में मिलता है। मान्यता है कि भगवान् शिव का यह प्रथम अवतार है। इस सद्यः उत्पन्न शिशुरूप शिव का अंकन प्रस्तर मूर्तियों पर हुआ है। साथ ही, पार्वती की स्वतन्त्र मूर्ति भी पुरातात्त्विक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इन दोनों के मूर्ति विज्ञान पर यहाँ विशद विवेचन करते हुए बिहार से प्राप्त मूर्तियों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
7. बिहार के अतिप्राचीन चौमुखी शिवलिंग— श्री रवि संगम
भगवान् शंकर की उपासना लिंग के रूप में होती रही है। इस शिव-स्वरूप पर अनेक प्रकार से विवेचन किये गये हैं। इसे एक ज्योतिस्तम्भ के रूप में मान्यता दी गयी है। इसके साथ ही शिव के पाँच अवतारों — सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईशान की भी उल्लेख हुआ है। भारत में शिवलिंग की उपासना के साथ साथ इन पाँचों साकार रूपों की भी उपासना प्राचीन काल से प्रचलित है। अतः शिवलिंग पर चारों दिशाओं में चार रूप तथा पाँचवाँ ईशान रूप को ऊर्ध्वमुख के रूप में निर्मित कर मुखलिंग की मूर्तियाँ बनायी गयी हैं। कुछ एकमुख लिंग हैं, कुछ गौरीमुख लिंग भी हैं तथा कुछ पंचमुख लिंग हैं जो व्यावहारिक रूप से चतुर्मुखलिंग कहे जाते हैं। गुप्तकाल में इस चतुर्मुख लिंग की उपासना सबसे अधिक हुई है। बिहार में गुप्तकाल के जो चतुर्मुख लिंग हैं उन पर एक विवेचन यहाँ प्रस्तुत है।
8. मानस में शिव का अर्थतात्त्विक अध्ययन— डा. विजय विनीत
रामकथा के अमर गायक गोस्वामी तुलसीदास की अनन्य विशेषता है कि जब वे एक अर्थ को अभिप्रेत करने के लिए विभिन्न पर्याय का उपयोग करते हैं तब उस पर्याय का जो धातुज अर्थ है उसके तत्त्व को ध्यान में रखते हैं। अर्थतात्त्विक दृष्टि से सिद्धान्ततः कोई शब्द किसी अन्य शब्द का पर्याय नहीं हो सकता है। जैसे सामान्यतः हम मृत्युंजय तथा पिनाकी दोनों शिव के पर्याय माने जाते हैं लेकिन पहला शब्द शिव की मृत्यु को जीतने की क्षमता का बोधक है तो पिनाकी उनके धनुर्धर रूप का द्योतन करता है। इस प्रकार किस पर्याय का किस स्थल पर प्रयोग होगा इस दृष्टि से अर्थतात्विक विवेचन किसी काव्य के उत्कर्ष की कसौटी होती है। इस आलेख में शिव के पर्यायों विवेचन रामचरितमानस के सन्दर्भ में किया गया है। यह आलेख धर्मायण की अंकसंख्या 38 में भी पूर्व प्रकाशित है, किन्तु उससे समृद्ध रूप में सन्दर्भसंकेतों के साथ यहाँ पुनः प्रकाशित किया जा रहा है।
9. आनन्द-रामायण-कथा— आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं।– प्रधान सम्पादक
10. मन्दिर समाचार
महावीर मन्दिर समाचार, फरवरी, 2022ई.
11 व्रत-पर्व
फाल्गुन, 2078 वि. सं. (17 फरवरी, 2022ई. से 18 मार्च, 2022ई. तक)
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक