धर्मायण

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    • पुस्तक समीक्षा- ‘भारतीय संकृति और गकार के प्रतीक।’

      पुस्तक समीक्षा- ‘भारतीय संस्कृति और गकार के प्रतीक।’ लेखक- डा. बिन्देश्वरी प्रसाद ...

      November 17, 2022
      0
    • Dharmayana Article Index

      धर्मायण के सभी अंकों में प्रकाशित आलेखों की सूची- खोज करें

      June 29, 2022
      0
    • पं. वंशदेव मिश्र

      धर्मायण के पूर्व संपादक पं. वंशदेव मिश्र का संक्षिप्त परिचय

      February 21, 2022
      0
    • Dr. Nagendra Kumar Sharma

      डा. नागेन्द्र कुमार शर्मा

      October 20, 2021
      1
    • डा. रामकिशोर झा विभाकर

      डॉ० रामकिशोर झा ‘विभाकर’

      October 13, 2021
      1
    • Mahesh Prasad Pathak

      श्री महेश प्रसाद पाठक

      October 2, 2021
      1
    • डा. सुन्दरनारायण झा

      डा. सुन्दरनारायण झा

      September 21, 2021
      1
    • डा. विजय विनीत

      डॉ० विजय विनीत

      September 21, 2021
      2
    • प. शम्भुनाथ शास्त्री वेदान्ती

      शत्रुघ्नश्रीनिवासाचार्य पंडित शम्भुनाथ शास्त्री ‘वेदान्ती’

      September 21, 2021
      2
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    • Dharmayan vol.88 cover

      Dharmayan vol. 88

      January 2, 2021
      0
    • Dharmayan vol. 89 cover

      Dharmayan vol. 89

      January 2, 2021
      1
    • धर्मायण अंक संख्या 85, माघ-चैत्र 2071 वि.सं., जनवरी-मार्च 2015 ई.

      Dharmayan vol. 85

      May 10, 2020
      1
    • Dharmayan vol. 84

      Dharmayan vol. 84

      May 10, 2020
      0
    • धर्मायण अंक संख्या 83

      Dharmayan vol. 83

      May 10, 2020
      0
    • “धर्मायण” की अंक संख्या 82

      Dharmayan vol. 82

      May 10, 2020
      1
    • Dharmayan vol. 81

      May 10, 2020
      0
    • Dharmayan vol. 87

      May 9, 2020
      1
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  • अंक 91-100
    • धर्मायण अंक संख्या 100 का मुखपृष्ठ

      dharmayan vol.100 Surya-Upasana Ank

      October 30, 2020
      4
    • धर्मायण अंक 97

      Dharmayan vol. 97 Nag-puja Ank

      July 5, 2020
      6
    • Dharmayan vol. 96

      June 12, 2020
      0
    • आवरण धर्मायण, अंक 95

      Dharmayan vol. 95 Ganga Ank

      May 7, 2020
      2
    • धर्मायण अंक संख्या 94, वैशाख 2077 वि.सं.

      Dharmayan, vol. 94

      April 20, 2020
      2
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  • अंक 101-110
    • Dharmayan, vol. 110 Saptarshi Ank

      धर्मायण अंक संख्या 110, सप्तर्षि अंक

      August 22, 2021
      1
    • Dharmayan, vol. 110 Saptarshi Ank

      धर्मायण अंक संख्या 110, सप्तर्षि विशेषांक

      August 22, 2021
      1
    • Dharmayan, vol. 110 Saptarshi Ank

      Dharmayan vol. 110 Saptarshi Ank

      August 16, 2021
      1
    • pdf free book

      धर्मायण अंक संख्या 109 पी.डी.एफ

      July 24, 2021
      1
    • फ्लिक बुक पढें

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      July 24, 2021
      1
    • Dharmayan vol. 109 Brahma Ank

      Dharmayan vol. 109 Brahma Ank

      July 20, 2021
      2
    • धर्मायण का जगन्नाथ विशेषांक

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      July 5, 2021
      1
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      July 5, 2021
      0
    • Dharmayan vol. 107 Jala-vimarsha-Ank

      May 18, 2021
      1
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    • धर्मायण, अंक संख्या 120, चातुर्मास्य-विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 119, व्रत-विधि-विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 118, वैशाख-विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 117, भरत-चरित विशेषांक
    • धर्मायण, अंक संख्या 116 शिव-तत्त्व अंक
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    • धर्मायण, अंक संख्या 111, आश्विन मास का अंक
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    • धर्मायण, अंक संख्या 129, रामचरितमानस अंक
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धर्मायण, अंक संख्या 122, कुश-विशेषांक

By सम्पादक-धर्मायण पत्रिका-महावीर मन्दिर, पटना
August 16, 2022
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Dharmayan, vol. 122 Kusha Ank

अंक 122, भाद्रपद, 2079 वि. सं., 13 अगस्त-10 सितम्बर 2022ई.

श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए वीर बहादुर सिंह, महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।

कुश विशेषांक
  • (Reg. 52257/90, Title Code- BIHHIN00719),
  • धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की पत्रिका,
  • मूल्य : पन्द्रह रुपये
  • प्रधान सम्पादक  आचार्य किशोर कुणाल
  • सम्पादक भवनाथ झा
  • पत्राचार : महावीर मन्दिर, पटना रेलवे जंक्शन के सामने पटना- 800001, बिहार
  • फोन: 0612-2223798
  • मोबाइल: 9334468400
  • सम्पादक का मोबाइल- 9430676240 (Whtasapp)
  • E-mail: dharmayanhindi@gmail.com
  • Web: www.mahavirmandirpatna.org/dharmayan/
  • पत्रिका में प्रकाशित विचार लेखक के हैं। इनसे सम्पादक की सहमति आवश्यक नहीं है। हम प्रबुद्ध रचनाकारों की अप्रकाशित, मौलिक एवं शोधपरक रचनाओं का स्वागत करते हैं। रचनाकारों से निवेदन है कि सन्दर्भ-संकेत अवश्य दें।
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आलेखोॆ के शीर्षक एवं विषयवस्तु का विवरण

1. भारतीय संस्कृति में कुश- सम्पादकीय लेख

कुश भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, किन्तु खेद का विषय है किन्तु वर्तमान पीढ़ी इसकी पहचान भी भूलती जा रही है। विशेष रूप से शहरी क्षेत्र में जहाँ हम कुश के लिए बाजार पर निर्भर हैं, वहाँ स्थिति और अधिक खराब है। चाहे नवग्रह की समिधा का पैकेट हो या अलग से कुश की मूँठ हो कोई भी घास लपेटकर इसमें डाल दिया जाता है। कुश का आसन भी खरीदने जायें तो हमें अन्य ही घास के बिने हुए मिलते हैं।

गाँवों में रहने वाली पीढ़ी भी प्रकृति से दूर होती जाती रही है, अतः अन्य प्रकार के घासों के बीच शुद्ध कुश की पहचान भी भूलती जा रही है। अतः सनातन संस्कृति के हित में इस कुश-विशेषांक की आवश्यकता का अनुभव किया गया।

2. कुश, दर्भ एवं बर्हि के वैदिक विश्लेषण- डा. सुन्दरनारायण झा

कुश एक तृण मात्र नहीं है, वह भारत की विभिन्न संस्कृतियों में विभिन्न रूपों में उपयोगी वनस्पति है। इसे हम वैदिक संस्कृति का संकेत-चिह्न (Logo) कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। कुश का परिस्तरण, कुश का आस्तरण, कुश का आच्छादन, कुश के देव-विग्रह तक इसके विविध उपयोग हैं। इतना ही नहीं, साधना की चरण अवस्था में तो बौधायन गृह्यसूत्र में इतना तक कहा गया है कि कुश का ध्वज, आवरण, वस्त्र, यज्ञोपवीत, आसन, मेखला, शय्या सब कुछ बनाकर ॐकार की साधना करनी चाहिए। नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य तीनों प्रकार के कर्मों में कुश के उपयोग को वैदिक साहित्य में विस्तार दिया गया है। कुश से बने आच्छादन किसी वस्तु को बाह्य दुष्प्रभाव से बचाने में समर्थ है। इस कुश की गरिमा तथा उपयोग पर वैदिक साहित्य में पर्याप्त सामग्री है। प्रस्तुत आलेख में इसी का दिग्दर्शन कराया गया है।

3. कुश और दर्भ में भेद तथा आध्यात्मिक पक्ष- श्री अरुण कुमार उपाध्याय

कर्मकाण्ड के ग्रन्थों में कुश तथा दर्भ को पर्याय माना गया है। अतः कुशहस्तः और दर्भपाणिः दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में होता रहा । कुछ स्थलों पर तो एक ही तृण को फूल लग जाने पर कुश तथा अन्तर्गर्भ पत्तियों वाली अवस्था में दर्भ कह दिया गया है। किन्तु यदि हम सूक्ष्मता से विचार करें तो दोनों अलग वनस्पतियाँ हैं, दोनों के अलग वानस्पतिक नाम तथा प्रकृति है। इसे समझने के लिए कुश प्रजाति के अन्य धासों को भी हमें समझना होगा। साथ ही, वैदिक साहित्य में इनके प्रयोगों की भिन्नता, विभिन्न प्रकार की साधनाओं में इसके प्रयोग को बारीकी से समझने की आवश्यकता होगी। बहुत मात्रा में दर्भ उपजने के कारण स्थानों के नाम कैसे पड़ जाते हैं इसे समझाते हुए इस आलेख में कहा गया है- “जिस क्षेत्र में इन अन्न दर्भों की कृषि सबसे अधिक होती है, वह दर्भंगा (मिथिला क्षेत्र) है। इसके चारों तरफ वन सहित कृषि है- पश्चिम में चम्पारण्य, सारण्य, दक्षिण पश्चिम में अरण्य (आरा), दक्षिण में कीकट (बबूल, मगध), पूर्व में पूर्ण अरण्य (पूर्णिया), उत्तर में हिमालय के वन। यहां राजा जनक भी अनुष्ठानिक रूप से हल चलाते थे। दर्भंगा के विपरीत विदर्भ था।”

4. आयुर्वेद में कुश एक औषध द्रव्य- डा. विनोद कुमार जोशी

भारतीय संस्कृति में पवित्र तृण वनस्पति कुश की पहचान समाप्त होना संस्कृति के लिए रुग्णता की स्थिति है। यह पवित्र कुश एक ओर अमृत-बिन्दु से सिंचित अमर-तृण कहा गया है तो दूसरी ओर इसे यज्ञस्य भूषण: कहा गया है। हमारी परम्परा ग्रहण के समय खाद्य-पदार्थों को कुश से आच्छादित करने के लिए कहती है। अत: आयुर्वेद की दृष्टि से इसका महत्त्व तथा द्रव्य-गुण का विवेचन यहाँ अधिकारी विद्वान् के शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। -सम्पादक

5. पालि बौद्ध-साहित्य कुस का उल्लेख और नालन्दा की वर्तमान परम्परा- श्री प्राणशङ्कर मजुमदार

कुश भारतीय संस्कृति में पर्याप्त गहराई तक प्रविष्ट है। न केवल वैदिक परम्परा में बल्कि श्रमण-परम्परा आर्थात् बौद्ध तथा जैन में भी इसके बहुधा प्रयोग मिलते हैं। बौद्धों में महायान शाखा में तो कुश के आसन- ‘कुशविण्ड’ को साधना में आवश्यक माना गया है तथा  अच्छिन्नाग्र कुश से मण्डल बनाने, माला को गूँथने के लिए कुशाग्र का उपयोग करने का उपदेश किया गया है। पालि-ग्रन्थों में भी कुश के विविध प्रकार से उल्लेख हुए हैं तथा इतना तक संकेत मिलता है कि बुद्ध ने सुजाता का दिया खीर खाने के बाद सोत्थिय (श्रोत्रिय- वैदिक ब्राह्मण, जो कुश-संग्रह हेतु गये थे) से आठ मुँठ कुश लेकर 14 हाथ का आसन बनाया तथा उसी पर बैठकर बुद्धत्व प्राप्त किया। आज भी बौद्ध-साधना में कुशासन का महत्त्व है। नालन्दा महाविहार में आज भी यह परम्परा सुरक्षित है। यहाँ शिल्पग्राम में ‘कुशासन’ बनाकर बिक्रय किया जाता है।

6.  अभिज्ञान-शाकुन्तलम् में कुश के प्रसंग- डा. पौलमी राय

कुश न केवल शास्त्रीय ग्रन्थों में बहुविध वर्णित हुआ है, बल्कि क्रान्तदर्शी कवियों ने भी अपने काल में इसके प्रयोग तथा विविध आयामों पर संकेत प्रस्तुत किया है। इसमें भी नाट्य-काव्य सामाजिक तथा सांस्कृतिक अवस्था के निर्देशन हेतु अधिक उपयुक्त है, क्योंकि कवि का काल विवेच्य-काल के साथ साधारणीकृत होकर रसाभिव्यक्त में सहायक होता है। इस दृष्टि से हम महाकवि कालिदास के अभिज्ञान-शाकुन्तलम् नाटक को देखें तो हमें इसमें कुश के अनेक आयाम मिलते हैं। यहाँ कुश के काँटे चुभने का वर्णन है तो दूसरी ओर मृदुल शय्या के लिए भी कुश का प्रयोग बतलाया गया है। यज्ञवेदी के परिस्तरण में तो कुश का वैदिक प्रयोग है ही। इस प्रकार, अभिज्ञानशाकुन्तलम् में कुश के सन्दर्भों को यहाँ संकलित किया गया है, जिससे प्रतीत होता है कि उस समय आश्रम-संस्कृति में कुश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तृण था।

7.  रामचरितमानस में कुश के विविध वर्णन- डॉ. कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव

गोस्वामी तुलसीदास लोक-संग्रह के सन्त कवियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। उन्होंने लोक तथा शास्त्र को जनता की भाषा में जनता तक पहुँचाने का तथा उन्हें सनातन धर्म से जोड़े रखने का अद्भुत कार्य किया। कुश शास्त्र तथा लोक दोनों में चर्चित है, तभी तो उन्होंने दर्भ/कुश के विविध प्रयोगों का वर्णन रामचरितमानस में किया है। यहाँ अनेक स्थलों पर “दरभ डसाई” प्रयोग हुआ है, जो पवित्रतापूर्वक किसी विशेष उद्देश्य को लेकर संकल्पित होकर दृढतापूर्वक बैठने के भाव को व्यक्त करता है। गोस्वामीजी ने कुश हाथ में लेकर कन्यादान करने का वर्णन किया है तो वनगमन के मार्ग कुश के काँटे का भी वर्णन कर इसकी सर्वत्र उपलब्धता का संकेत किया है। साधना की अवस्था में कुश की शय्या का भी उल्लेख वे भूलते नहीं। इस प्रकार रामचरितमानस के कुश-सम्बन्धी सन्दर्भ वैदिक काल की संस्कृति का दिग्दर्शन है।

8. कविता-कुसुम- श्री अंकुर सिंह

मूलतः पेशा से इंजीनियर श्री सिंह की तीन कविताएँ- ‘गजानन महाराज’, ‘विश्वकर्मा भगवान्’ तथा ‘शिक्षक’ यहाँ प्रस्तुत हैं।

9. मगध की संस्कृति और कुश- श्री अरविन्द मानव

जिस प्रकार वैष्णव सम्प्रदाय में तुलसी-पत्र पवित्रतम तथा पावन वनस्पति है उसी प्रकार वैदिक परम्परा में कुश अतिपावन तथा सर्वकर्मार्ह वनस्पति है। इसे हम वैदिक संस्कृति का संकेत-चिह्न (Logo) मान सकते हैं। लोकजीवन में इसका प्रसार वस्तुत: वैदिक-परम्परा के प्रसार का विशिष्ट सूचक है। विडम्बना है। कि ऐसे कुश की पहचान और महत्त्व को आज हम भूलते जा रहे हैं। हमारा दायित्व बनता है कि अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए हमें कुश की भी रक्षा करनी होगी। सांस्कृतिक दृष्टि से बौद्ध, वैदिक तथा सौर-आगम की परम्परा की धनी क्षेत्र मगध समन्वय का उदाहरण रहा है। यहाँ की कुश-संस्कृति की भी अक्षुण्ण परम्परा है। यहाँ मध्य मगध क्षेत्र के लोकजीवन में अनुस्यूत कुश-संस्कृति को सबके सामने लाने का प्रयास किया है। शेखपुरा जिला के प्रसिद्ध विष्णुधाम, सामस के निवासी तथा भागवत-महापुराण’ के पद्यमय अनुवादक श्री अरविन्द मानव ने अपने अनुभूत तथ्यों को यहाँ लिपिबद्ध किया है।

10. दिव्य यज्ञीय तृण-कुश- श्री महेश प्रसाद पाठक

कुश भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। वैदिक तथा श्रमण दोनों संस्कृतियों में कुश महत्त्वपूर्ण है। परवर्ती काल में आगम की परम्परा में शैवागम ने पत्रों में बिल्वपत्र को तथा पांचरात्र ने तुलसी को विशेष महत्त्व दिया, अतः इऩ दोनों आगम-परम्पराओं में कुश का महत्त्व कम गया। आज वास्तविकता है कि हम प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं, अतः कुश की पहचान भी विस्मृत होती जा रही है। पूजा-पाठ के लिए बाजार में उपलब्ध सामग्रियों में कुश की पहचान खतम हो गयी है। आज इसे लोग या तो केतु ग्रह की समिधा के लिए जानते हैं अथवा आसन बनाने के लिए। इन दोनों के लिए भी जिस किसी भी घास का उपयोग कर लिया जाता है। अपनी सनातन संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए हमें कुश की पहचान करनी चाहिए। ऐसी स्थिति में प्रस्तुत आलेख का महत्त्व बढ़ जाता है। इसमें सरल भाषा में कुश से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ एकत्र की गयी हैं।

11. कुश के विविध आयाम- डा. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’

कुश का उपयोग न केवल कर्मकाण्ड में होता है, बल्कि हमारे पूर्वजों ने स्वच्छ जल से स्रोत का पता लगाने के लिए भी कुश की उपस्थित का उपयोग किया है। वे जानते थे कि जहाँ कुश उगता हो, वहाँ कुआँ खोदना चाहिए। इतना ही नहीं, लोक-संस्कृति में कुश को रक्षक मानते हुए घर का द्वार बंद कर उसके ऊपर कुश की माला पहनाकर घऱ की सुरक्षा से निश्चिन्त होकर बाहर जाने का भी प्रचलन रहा है। “…कुंती ने अपने पर पांडू पोतने को कूंची क्या बनाई, स्त्रियों ने घर, परसाल, कक्ष्या आदि पर खड़िया, पांडू पोतने की कूंची बनाकर घर में रखी और पोतने का काम किया… आदिमानव भी इसको जानता था और इसी कारण ज्ञानियों ने भी बात को आगे बढ़ायी, लेकिन उन्होंने संस्कृत भाषा में कहा जबकि यह सब लोक के ज्ञान में है।” कुश के नाम पर अनेक नगर बसाये गये जहाँ का शिल्प भी कुश की नोंके की तरह महीन था। मन्दिरों में वैसी की कारीगरी की गयी। कुश अमावस्या के दिन ही क्यों उखाड़ते हैं, तो यह प्रसंग अमावस्या देवी के चित्रण से जुड़ा है। ऐसे ही अनेक प्रसंगों का संग्रह यहाँ है।

12. पितृकर्म में व्यवहृत कुश के उपकरण- पं. भवनाथ झा

पं. भवनाथ झा बिहार प्रान्त के मधुबनी जिला के अन्तर्गत साहित्याचार्य एवं पारम्परिक कर्मकाण्डी पण्डित हटाढ़ रुपौली ग्राम के निवासी है। इनके पास पितृ-कर्म कराने की पैतृक परम्परा भी है, जिसे इन्होंने शास्त्रों के विधिवत् अध्ययन से परिपुष्ट किया है। अतः इनके द्वारा प्रदर्शित इस आलेख की प्रामाणिकता बढ़ जाती है। संयोग से आप इस पत्रिका के सम्पादक भवनाथ झा के ग्रामीण समाननामा तथा कुलपुरोहित भी हैं। मृत्यु के उपरान्त कर्तव्य संस्कार एवं श्राद्ध को मूल आधार शतपथ ब्राह्मण में उक्त पितृपिण्डयज्ञ होने के कारण यह सम्पूर्ण भारत में प्रायशः एक ही स्वरूप में प्रचलित है। इस पितृकर्म में कुश के उपयोग के सन्दर्भ में तो यह बात और स्पष्ट रूप से कही जाती है। हमें तैत्तिरीय संहिता में भी पिण्ड के नीचे छिन्नमूल कुश रखने का विधान मिल जाता है, अत: इन विधानों को क्षेत्राचार नहीं कहा जा सकता है। अत: कुश से बने विभिन्न उपकरणों के निर्माण में सर्वत्र व्यापक समानता है। यहाँ पितृकर्म में उपयोग में आने वाले विभिन्न कुशोपकरण के निर्माण विधि, उनके उपयोग तथा नाम का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है। आलेख की विशेषता है कि सभ उपकरणों के चित्र भी दिये गये हैं। आशा है कि यह आलेख हमारी प्राचीन परम्परा को संरक्षित करने में उपयोगी होगा।

13. कुशोत्पाटिनी अमावस्या- सुश्री पुनीता कुमारी श्रीवास्तव

कुश के विषय में शास्त्र चर्चा के साथ लोक चर्चा भी आवश्यक है। आखिर शास्त्रों को किस अर्थ में लोक पालन करते हैं तथा उनके बार क्या अवधारणाएँ बना लेते हैं यह वहुत स्मरणीय विषय होता है। कई बार हम देखते हैं कि लोक में ऐसी बातें ल जात हैं जिनका कोई सात्रीय आधार उपलब्ध नहीं है.। कुश के बारे में बी ऐसी कई बातें हैं, जो पुरोहितों, पण्डितों के मुँह से सुनी और समझकर पालित होतीं है। यहाँ पर शास्त्र से हटकर लोक की बातें की गयी हैं। सधवा को कुश का उपयोग नहीं करना चाहिए, उन्हें कुश के आसन पर नहीं बैठना चाहिए आदि बातें लोक-परम्परा में हैं। कुश की माला बनाने की विधि क्या होनी चाहिए, से साती शनि में शान्ति के लिए कुश का कैसा प्रयोग होता है, इऩ सब बातों को यहाँ संकलित किया गया है।

14. असमिया समाज में नयी शुरुआत— राखी बंधन- श्री दिनकर कुमार

अपनी परम्परा को संरक्षित करने में अव्बल प्रान्त आसाम में भी भाई-बहन वाली राखी का नया स्वरूप प्रचलन में आ गया है तथा उसके समर्थन में तरह-तरह की कहानियाँ भी प्रचलित होने लगी है। गुरु के द्वारा इन्द्र को तथा शुक्राचार्य के द्वारा राजा बलि को रक्षासूत्र बाँधने की गायब होती जाती परम्परा संरक्षित करने की आवश्यकता है। आसाम में रक्षाबंधन के स्वरूप पर एक रिपोर्ताज यहाँ प्रस्तुत है जिसे हम किंचित् बिलम्ब से प्राप्त होने कारण पूर्व मास के रक्षाबंधन-विशेषांक में संकलित नहीं कर सके।

15. आनन्द-रामायण-कथा- आचार्य सीताराम चतुर्वेदी

यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं। – प्रधान सम्पादक

16. 19वीं शती की कृति ‘रीतिरत्नाकर’ में पर्व-त्योहारों का विवरण

19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक ‘रीतिरत्नाकर’ का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं।

इस पुस्तक में एक प्रसंग आया है कि किसी अंगरेज अधिकारी की पत्नी अपने बंगला पर आसपास की पढ़ी लिखी स्त्रियों को बुलाकर उनसे बातचीत कर अपना मन बहला रही है। साथ ही भारतीय संस्कृति के विषय में उनसे जानकारी ले रही है। इसी वार्ता मंडली में वर्ष भर के त्योंहारों का प्रसंग आता है। पण्डित शुक्लाजी की पत्नी शुक्लानीजी व्रतों और त्योहरों का परिचय देने के लिए अपनी दो चेलिन रंगीला और छबीला को आदेश देतीं हैं।

यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह ग्रन्थ अवध प्रान्त के सांस्कृतिक परिवेश में लिखा गया है। इसमें अनेक जगहों पर बंगाल प्रेसिंडेंसी को अलग माना गया है।

सन् 1872 ई. के प्रकाशित इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा में बहुत अन्तर तो नहीं है किन्तु विराम, अल्प विराम आदि चिह्नों का प्रयोग नहीं हुआ है जिसके कारण अनेक स्थलों पर आधुनिक हिन्दी के पाठकों को पढ़ने में असुविधा होगी। इसलिए यहाँ भाषा एवं वर्तनी को हू-ब-हू रखते हुए विराम-चिह्नों का प्रयोग कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ स्थलों पर अनुच्छेद परिवर्तन भी किए गये हैं। जिन शोधार्थियों को भाषा-शैली पर विमर्श करना हो, उन्हें मूल प्रकाशित पुस्तक देखना चाहिए, जो Rīitiratnākara के नाम से ऑनलाइन उपलब्ध है।

17. मन्दिर समाचार (जुलाई-अगस्त, 2022ई.)

18. व्रत-पर्व, भाद्रपद, 2079 वि. सं. (13 अगस्त, से 10 सितम्बर 2022ई.)

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