धर्मायण अंक संख्या 137 विवाह-विशेषांक

अंक 137,अग्रहायण, 2080 वि. सं., 28 नवम्बर से 26 दिसम्बर, 2023ई.
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अंक की आलेख-सूची एवं विवरण
प्राणैस्ते प्राणान् संदधामि- सम्पादकीय
हमें सनातन धर्म में वर्णित विवाह के स्वरूप को दुहराने की आवश्यकता है। सनातन धर्म कहता है कि विवाह एक पवित्र संस्कार है। एक लोटा जल, एक कुश का आसन, मधुपर्क (शहद, दही तथा गुड़ का सम्मिश्रण), वर के लिए दो वस्त्र, कन्या, तथा एक गाय- इतने संसाधन जिस कन्या के पिता के पास बेटी के विवाह के लिए पर्याप्त है। कन्यादाता इतने संसाधन सौपने के बाद कह देता है- परम्परं समञ्जेथाम् यानी अब आप दोनों परस्पर सामंजस्य बैठा लें। वर कन्या को लेकर अपने घर आता था तथा अपने घर में अग्नि का स्थापना कर विधिवत् उस कन्या के साथ विवाह करता था। कन्या के पिता का इतना ही कर्तव्य था कि वह वर की अर्हणा (स्वागत-सत्कार) कर उसे कन्या का हाथ थमाकर एक गाय साथ देकर निश्चिन्त हो जाये। पद्धति में इतने ही कर्म लड़की के पिता के घर होते थे। विवाह वर के घर पर होता था।
विवाह : एक पवित्र संस्कार- श्री राधा किशोर झा
वर्णाश्रम धर्म के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य आश्रम से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का पहला सोपान विवाह है। विवाह के बाद नारी और पुरुष के संयोग से संतान की उत्पत्ति होती है। सनातन धर्म में विवाह की पवित्रता तथा स्थिरता के आधार पर उत्पन्न सन्तति के उत्कर्ष तथा अपकर्ष की बात कही गया है। अतः पाँच प्रकार के विवाह को ही सनातन धर्म में स्वीकृति है। इनमें भी गान्धर्व विवाह को पाँचवें स्थान पर रखा गया है। आजकल परिस्थिति बन गयी है कि जहाँ माता-पिता भी वैवाहिक सम्बन्ध तय करते हैं ब्राह्म आदि विवाह की परिस्थिति है, वहाँ भी ब्राह्म, प्राजापत्य, दैव तथा आर्ष विवाह की विधि न अपना कर पाँचवें गान्धर्व पद्धति का अनुसरण किया जाने लगा है तथा इस पद्धति में बाजारवाद प्रभावी होकर इसके रूप को बिगाड़ने लगा है। इससे दहेज-जैसी अनेक सामाजिक कुरीतियाँ विकराल रूप लेने लगी है। हमें विवाह के प्राचीन रूप को समझकर उसकी पवित्रता बनाये रखनी चाहिए। इसके लिए विवाह की प्राचीन मर्यादा को समझना अपेक्षित है।
विवाह : एक दृष्टि- विद्यावाचस्पति महेश प्रसाद पाठक
यद्यपि प्राकृतिक रूप से कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से सम्पर्क कर पशुवत् संतान उत्पन्न करने के लिए सक्षम है किन्तु सभ्य तथा उन्नत समाज के लिए वर एवं कन्या का वैध चयन आवश्यक होता है तथा विवाह के उपरान्त उस सम्बन्ध को निभाना होता है। यही सनातन धर्म का विवाह सम्बन्धी सिद्धान्त है। सनातन धर्म में विवाह केवल सामाजिक समझौता नहीं दैवीय संयोग है। इसलिए स्मृतिकारों ने स्पष्ट निर्देश किया है कि वर तथा कन्या में किसी प्रकार का रक्त सम्बन्ध/सपिण्डता न हो। “सन्निकट सपिण्डता में विवाह कार्य क्यों वर्जित है इसकी व्याख्या में अनेक जीवविज्ञानी, मानवशास्त्री भी आगे आने लगे हैं और यह सोचने के लिये बाध्य भी हैं कि हमारे ऋषि-महर्षियों ने इन सूक्ष्म अनुवांशिकी गणना का पता हजारों वर्ष पहले ही ज्ञात कर लिया था।” विवाह कहाँ करें इसकी व्याख्या के साथ विवाह कैसे करें यह भी विवेचनीय हो जाता है। गृह्यसूत्रों में इसकी विधि दी गयी है, कुछ स्थानीय लोकाचार भी विवाह में हैं, जैसे सिन्दूर का उल्लेख किसी गृह्यसूत्र में नहीं है। इन सब तथ्यों को समझने के लिए प्रस्तुत है यह शोधपूर्ण आलेख।
समानगोत्रप्रवर में विवाह-निषेध एवं अपवाद- निग्रहाचार्य भागवतानन्द गुरु
विवाह में लगभग सभी शास्त्रकार कहते हैं कि सगोत्र तथा माता-पिता के सपिण्ड में विवाह निषिद्ध है। किन्तु इस सन्दर्भ में लोकाचार जो कि श्रुति-स्मृति के बाद एक मान्य प्रमाण है, विचारणीय हो जाता है। कुछ ऐसे समाज हैं, जहाँ समान गोत्र में भी कुछ परिस्थिति में विवाह की मान्यता दी गयी है। उदाहरण के लिए लेखक ने मगध के शाकद्वीपीय ब्राह्मणों का विवरण दिया है, जिसमें यदि मूलग्राम का भेद हो तो सगात्र विवाह की अनुमति लोकाचार से दी गयी है। एक मूलग्राम के होने पर अथवा एक मूलग्राम के एक समूह के होने पर तो सर्वथा निषिद्ध है। इसी प्रकार, लोकाचार के कारण दक्षिण भारत में मातृसपिण्ड कन्या के साथ विवाह की मान्यता मिली है। इसी सन्दर्भ में लेखक ने लोकाचार का प्रामाण्य सिद्ध किया है। इस लोकाचार को भी हमें शास्त्र के समान मान्यता देनी चाहिए।
भारतीय जनजातियों में विवाह- श्री संजय गोस्वामी
विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख स्मृतिकार करते हैं, जिनमें से चार या अधिकतम पाँच प्रकार के विवाह की अनुमति उन्नत समाज में दी गयी है। तब यह प्रश्न उठता है कि उन्होंने आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख क्यों किया? इसका उत्तर खोजने के लिए हमें जनजातीय विवाह की मान्यताओं को देखना होगा। शेष बचे तीन प्रकार के विवाह- आसुर, राक्षस तथा पैशाच का प्रचलन लोकाचार से जनजातियों में था, अतः स्मृतिकारों ने उन्हें भी विवाह मानकर आठ प्रकार की मान्यता दी। अतः हमें आठों प्रकार के विवाहों का स्पष्ट विवेचन देखने के लिए भारतीय जनजातियों को भी देखना होगा, जिनके विवाह की मान्यता स्मृतिकारों ने दी है।
विवाह का काव्य-सन्दर्भ- डॉ. राजेन्द्र राज
भारतीय महाकाव्य की परम्परा में शृंगार रस को रसराज कहा गया है। रस-दर्शन में तो उसे सभी रसों की उत्पत्ति में मूल माना गया है। तथापि जब हम पति-पत्नी के बीच सम्बन्ध को लेकर कालिदास-जैसे कवि के द्वारा वर्णित तथ्यों को देखते हैं तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि यहाँ स्मृति तथा भारतीय दर्शन में निहित तथ्यों का पूर्णतः पालन हुआ है। कविकुलगुरु कालिदास एक ओर पतिपत्नी के सम्बन्ध को वाणी तथा अर्थ के बीच अटूट सम्बन्ध से उत्प्रेक्षा करते हैं तो दूसरी ओर रघुवंश में ही अज-विलाप में पत्नी के चार आदर्श स्वरूपों का वर्णन करते हैं। लेखक ने भारतीय परम्परा में वर्णित इस उदात्त स्वरूप की आधुनिक अवहेलना को घातक सिद्ध किया है। वर्तमान में विवाह की विधि केवल यौन-सुख की अवधारणा पर आधारित हो गयी है, जिसके कारण कतिपय सामाजिक विषमताएँ आ गयी हैं।
विवाह का स्वरूप व महत्ता- श्री रवि संगम
आज विवाह पर जब चर्चा करते हैं तो एक ओर यदि हमें शास्त्रों के ज्ञाताओं का अभिमत जानना चाहिए तो दूसरी ओर हमें ऐसे लोगों का भी मन्तव्य लेना होगा, जो भारतीय शास्त्रों को गम्भीरता से न जानते हुए वर्तमान युवावर्ग को जानते हैं। आखिर युवा वर्ग की क्या सोच है, यह भी विवेचनीय हो जाता है। वे युवावर्ग हमारी परम्परा को किस रूप में देखते हैं तथा वे क्या चाहते हैं इस पर विचार करने के लिए हमने यह आलेख आमन्त्रित किया है। इसके लेखक आधुनिक समाज से घुले-मिले व्यक्ति हैं और अपनी दृष्टि से अपनी प्राचीन परम्परा को देख रहे हैं। इस आलेख में लेखक ने पाश्चात्त्य शिक्षा तथा पाश्चात्त्य मान्यताओं के प्रचार के कारण भारतीय परम्परा को पहुँची हानि का विवेचन किया है। विलासिता, विकृत सेक्स सम्बन्ध आदि ने हमारी परम्परा पर दुष्प्रभाव डाला है, जिससे हमें बचना होगा अन्यथा हम अनेक प्रकार की सामाजिक आर्थिक तथा सांस्कृतिक विषमताओं के जाल में फँसते जायेंगे।
जड़ों से कटती वैवाहिक प्रणाली- प्रीति सिन्हा
विवाह के विविध पक्ष पर तब तक विवेचन पूर्ण नहीं माना जायेगा, जब तक कि हम नारीवादी दृष्टिकोण से विवाह का विवेचन न करें। आखिर आधुनिक नारियाँ क्या सोचती हैं? भले हम इनके अभिमत को यथावत् मानने से इन्कार कर दें, किन्तु पूर्वपक्ष के रूप में ही सही, हमें इनके विचारों का अवलोकन करना होगा। हमें प्रसन्नता है कि लेखिका ने यह माना है कि हम विवाह तथा वैवाहिक सम्बन्ध को लेकर विकृति की ओर बढ़ रहे हैं, जो समाज की उन्नति के लिए खतरा है। इस आलेख की सबसे बड़ी विशेषता है कि लेखिका ने आधुनिक नारीवादी सोच लेकर हमारी भारतीय परम्परा पर आक्षेप लगाये हैं, वे यदि सही हैं तो हमें उन्हें हमें परिमार्जित करना होगा। अतः इस पूरे आलेख को मैं पूर्वपक्ष के रूप चिन्तकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
प्राचीनतम उपलब्ध विवाह-पद्धति में वर्णित विधि
राम : एक मीमांसा- श्री अनिरुद्ध त्रिपाठी ‘अशेष’
हम सनातनी समन्वयवादी रहे हैं। इस सिद्धान्त के आलोक में राम, कृष्ण, शिव, सूर्य, दुर्गा, नरसिंह आदि सभी देवों में एकत्व की भावना के साथ उनकी उपासना करते रहे हैं। जो देव के जिस नाम-रूप के साथ उपासना करता है वह उस देवत्व/ब्रह्म की उपासना करता है, यही हमारा सिद्धान्त रहा है और उस रूप में भी राम, आत्माराम की व्याख्या ब्रह्म के रूप में की गया है। उस दार्शनिक स्तर पर जब हम पहुँचते हैं तो सभी उपास्य देव तथा उनके उपासक भी एकरस हो जाते हैं। इस परब्रह्म रूप राम/आत्माराम के स्वरूप पर यहाँ विस्तृत आलेख प्रस्तुत है। लेखक ने उपनिषद्, अध्यात्मरामायण, रामचरितमानस तथा कबीर की पंक्तियों को लेकर इस आत्माराम की मीमांसा प्रस्तुत की है।
महाकवि भास के अभिषेकनाटक में श्रीरामकथा- डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
महाकवि भास संस्कृत के प्रख्यात नाटककार रहे हैं। इनके 13 नाटकों का ‘भासनाटकचक्र’ उपलब्ध प्राचीनतम नाटक माने गये हैं। इन 13 नाटकों में से प्रतिमानाटक एवं अभिषेक ये दो रामकथा पर आधारित हैं। अभिषेक नाटक में वालिवध से लेकर रावणवध तक की कथा का निदर्शन भास ने इस नाटक में किया है । राम के राज्याभिषेक के साथ ही नाटक का पटाक्षेप होता है । इसमें सुग्रीव, विभाषण तथा श्रीराम के अभिषेक की कथा होने के कारण इसका नामकरण ‘अभिषेक’ के रूप में किया गया है। भास ने प्रतिमानाटक में अपने काव्य-कौशल से बहुत सारे रोचक प्रसंगों का वर्णन किया है, इसी प्रकार अभिषेक नाटक में भी उनहोंने अपनी शक्ति का चमत्कार दिखाया है। लेखक ने इस अभिषेक नाटक की कथावस्तु को कथा की शैली में यहाँ प्रस्तुत की है।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक