धर्मायण अंक संख्या 138 लोक-संस्कृति अंक
अंक 138,पौष, 2080 वि. सं., 27 दिसम्बर, 2023ई. से 25 जनवरी, 2024ई.
श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के रूप में https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।
- (Reg. 52257/90, Title Code- BIHHIN00719),
- धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की पत्रिका,
- मूल्य : पन्द्रह रुपये
- संरक्षक : आचार्य किशोर कुणाल
- सम्पादक भवनाथ झा
- पत्राचार : महावीर मन्दिर, पटना रेलवे जंक्शन के सामने पटना- 800001, बिहार
- फोन: 0612-2223798
- मोबाइल: 9334468400
- सम्पादक का मोबाइल- 9430676240 (Whtasapp)
- E-mail: dharmayanhindi@gmail.com
- Web: www.mahavirmandirpatna.org/dharmayan/
- पत्रिका में प्रकाशित विचार लेखक के हैं। इनसे सम्पादक की सहमति आवश्यक नहीं है। हम प्रबुद्ध रचनाकारों की अप्रकाशित, मौलिक एवं शोधपरक रचनाओं का स्वागत करते हैं। रचनाकारों से निवेदन है कि सन्दर्भ-संकेत अवश्य दें।
अंक की आलेख-सूची एवं विवरण
1. लोकाचारात् स्मृतिर्ज्ञेया- सम्पादकीय
लोक और वेद ये दो शब्द हम सहचर के रूप में व्यवहार करते हैं। वेद सम्पूर्ण शास्त्रीय ज्ञान का रूप है तो लोक लौकिक ज्ञान को एकत्र समेट लेता है। इसका तात्पर्य है कि जो हम पुस्तकों में पढ़ते हैं, गुरु से सीखते हैं, वह वेद है तथा जो हम समाज में रहकर अपने चारों ओर की वस्तुओं को देखकर परम्परा से सीखते हैं, वह लोक है। इस प्रकार, ज्ञान के दो रूप हुए- लोक और वेद। आहार्य-ज्ञान ‘लोक’ है तथा पाठ्य-ज्ञान ‘वेद’ है, इन्हीं दोनों के संयुक्त रूप को ‘लोक-वेद’ कहा गया है।
2. मिथक, पुराण और लोकवार्ता- डा. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी
दर्शन के अर्थ में लोकृ धातु से घञ् प्रत्यय कर ‘लोक’ शब्द की निष्पत्ति वैयाकरणों ने मानी है। इस प्रकार जो दिखाई पड़ता है वह लोक है। जो प्रत्यक्ष प्रमाण लोक है तथा जो शब्द प्रमाण शास्त्र है। शास्त्र के अन्तर्गत ही हम लिखित पुराणों को रख सकते हैं। लेखक की मान्यता है कि वह जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाला लोक है उसी के लिए मिथक शब्द का प्रयोग अंगेरजी के Myth शब्द को भारतीयकृत कर किया गया है। लेकिन, मिथक मिथ्या नहीं होता। लेखक ने माना है कि आज जो हम पुराण देखते हैं वह किसी प्राचीन काल का ‘लोक’ है। वही जब नवीकृत होता है तो पुराण बन जाता है। वह पुराण आख्यानात्मक ज्ञान की परम्परा है, इनकी गाथाओं का मूल स्रोत लोकजीवन है, जो सतत गतिमान है, वास्तविक है। इन लोक-गाथाओं का संकलन सूत जाति के लोगों ने किया, जो आज हमारे बीच पुराण के रूप में प्रतिष्ठित हैं। हमें लोक को पढ़ना नहीं, देखना चाहिए, तभी हम लोक को समझ पायेंगे।
3. लोकाचार पूजन और कुलदेवी-देवता- विद्यावाचस्पति महेश प्रसाद पाठक
प्रागैतिहासिक साल में पर्वत कंदराओं में हमें शैलचित्र मिलते हैं, जिनके साथ अनेक ऐसे संकेत हैं जो सिद्ध करते हैं कि अमुक गुफा उस काल में आस्था के केन्द्र के रूप में पूजित रही होगी। प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर चलने वाले आदिम मानव के मन में यह बात समा गयी थी कि कुछ अलौकिक है जो हमारी रक्षा करती है तथा हमें दण्ड देती है। लेखक के ही शब्दों में, “यह लेख इन्हीं विश्वासों, उपचारों एवं लोकाचारों पर आधारित है। जिसका एक सामाजिक आधार है, जो व्यक्तियों में परस्पर आत्मिक सम्बन्ध स्थापित कर आपस में एकत्व का बोध कराता है। इसका प्रतिफल यह भी है कि धर्म मानसिक उद्वेग, घृणा, लोभ आदि को दूर कर प्रेम का रस भरता है, जो मस्तिष्क-शुद्धि का एक आवश्यक अंग कहा जा सकता है।”
इनमें से नारी शक्ति की उपासना की अपनी उदात्त परम्परा रही है। हर क्षेत्र में लोकदेवी के रूप में विभिन्न नामों से इनकी उपासना होती है। इनमें से कई देवियों के नाम पुराण-साहित्य में नहीं मिलते हैं, उपासना की विधि भी क्षेत्रानुसार अलग अलग है, तथापि नारी शक्ति की जो अवधारणा है, उसमें एकत्व है।
4. उत्कलीय लोकसंस्कृति- डा. ममता मिश्र ‘दाश’
सांस्कृतिक रूप से उत्कल प्रान्त अत्यन्त समृद्ध रहा है। समुद्र के तट से लगा हुआ यह प्रदेश अपनी भाषा, लिपि, शासकीय स्वायत्तता का अक्षुण्ण रखने में किसी भी अन्य भू-खण्ड की अपेक्षा आगे रहा है। प्राचीन काल का कलिंग जनपद यद्यपि संस्कृति की दृष्टि से गौड़, कामरूप, मिथिला आदि पूर्वोत्तर प्रदेश के साथ मिला हुआ विष्णुक्रान्ता क्षेत्र का अंग है तथापि भगवान् जगन्नाथ की उपासना की प्रबलता यहाँ दिखाई देती है। वे लोक-आराधित देवता हैं, दइतापति कहलाते हैं, शबरों के स्वामी हैं अतः उत्कल प्रदेश में लोक की मान्यता सर्वत्र प्रतिष्ठा पा चुकी है। किसी प्रदेश की स्वतंत्र भाषा एवं लिपितत्त्व उस क्षेत्र की संस्कृति को परिरक्षित करने वाले महान् कारक होते हैं। इस अर्थ में उत्कल धन्य है। वहाँ के लोकाचार, लोकसाहित्य लोककला आदि विषयों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।
5. उत्तराखण्ड के लोक देवता- डा. ललित मोहन जोशी
उत्तराखण्ड देवभूमि के रूप में प्रसिद्ध है। यहाँ की हिमालयीय शृंखलाओं में वास करने वाले पृथ्वी पर ही स्वर्ग का आनन्द लेते हैं। स्कन्द-पुराण का केदारखण्ड इस क्षेत्र की आध्यात्मिक महिमा ओतप्रोत है। यहाँ जब सीमित क्षेत्र की घाटियाँ होने के कारण लोक-देवताओं और देवियों के अनेक रूप उभरे हैं। एक विशेष बात है कि कुछ लोक देवता ऐसे हैं, जो हिमालयीय शृंखलाओं से होते हुए नेपाल, मिथिला तथा आसाम तक समान रूप से मान्य हैं। जब हम यहाँ के भुमिया लोक देवता का स्वरूप देखते हैं तो मिथिला के भुँइयाँ की याद आ जाती है। यह आश्चर्यजनक है कि यहाँ के लोकदेवताओं के विशाल मन्दिर भी बन गये हौं जो पूरे क्षेत्र के लिए आस्था के केन्द्र हैं। लेखक ने इस आलेख में ऐसे लोक देवताओं तथा देवियों के स्वरूप पर प्रकाश डाला है है। साथ ही, उनके द्वारा प्रेषित चित्रों से आलेख की प्रामाणिकता बढ़ गयी है।
6. थारू जनजाति की लोकदेवी : ‘सहोदरा’-श्री रवि संगम
बिहार के पश्चिमी चम्पारण जिला में एक स्थान है सहोदरा-स्थान। यह नरकटियागंज से भिखनाठोढी के रास्ते में पड़ता है। इसे स्थल पर यद्यपि शिलालेखीय प्रमाण से नारायण पाल के समधी एवं रामपाल के श्वशुर यदुकुलतिलक तुङ्गदेव के द्वारा विष्णुमन्दिर बनाने का उल्लेख मिलता है, किन्तु इसी स्थल से इस काल से कम से कम दो शताब्दी पूर्व के भी कुछ अक्षर मिले हैं, जिससे यह स्थान अत्यन्त प्राचीन प्रतीत होता है। इस मन्दिर की विशेषता है कि यहाँ केवल महिलाएँ पुजारिन हो सकती हैं। ये साध्वी महिलाएँ पारम्परिक रूप से देवी सहादरा की पूजा करती हैं। लेखक ने इस साध्वी से भेटवार्ता के दौरान जानकारी हासिल की कि यह वस्तुतः थारू जनजाति की देवी हैं। यहाँ बुद्ध के काल में थारुओं का निवास स्थान था। उसी परम्परा के अनुसार कपिलवस्तु से संन्यास लेकर चले बुद्ध ने यहाँ एक साध्वी का दर्शन किया था। वही बाद में चलकर थारुओं की देवी बनकर यहाँ पूजित हुईं।
7. राजस्थान में लोकदेवी की अवधारणा- डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’
राजस्थान में वृक्ष महत्त्वपूर्ण हैं। वहाँ की वृक्षों का टोटा हो तो नागलोक से मातृशक्तियों के द्वारा वृक्ष लाने की कथा गवरी गाथा तथा गवरी नृत्य के रूप में प्रस्तुत करना उस क्षेत्र का लोक है। लेखक ने वृक्ष के सन्दर्भ में इस गवरी की गाथा को मार्मिक शब्दों में प्रस्तुत कर राजस्थान का साक्षात् आभास करा दिया है। वहाँ एक एक वृक्ष लाने वाली देवी के रूप में पूजी जाती है। इस प्रकार, पूज्य देवियों की संख्या बहुत बढ़ जाती हैं। यही लोकदेवियों का मूल उत्स है।
इसके साथ ही लेखक ने राजस्थान की कुलदेवियों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। वहाँ प्रत्येक कुल की इष्टदेवी होतीं हैं, जिनकी पूजा महिलाएँ करती हैं। उन्हें विशेष अवसरों पर पत्तियाँ अर्पित की जाती हैं, जिसे शीश धराई पाती कहते हैं। शक्तिपूजा में यव बोकर उनके पत्र चढाने की जो पौराणिक परम्परा है, उसके उत्स में यह शीश धराई पाती को हम देख सकते हैं। इस प्रकार, लोक देवियों तथा उनसे जुड़े लोकाचार हमें भारत की लोक परम्परा का आभास कराते हैं।
8. भारतीय लोक और रामचरितमानस- डॉ. राधानंद सिंह
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लोक को अत्यधिक महत्त्व दिया है। वे कतिपय स्थलों पर लोक था वेद दोनों का उल्लेख समानान्तर रूप से ज्ञान के स्रोत के रूप में करते हैं। आज यद्यपि हम वेद के सामने लोक को हीन भाव से देखें पर “हमें यह समझना चाहिए कि लोक अंधविश्वास और रूढ़िवादिता का पर्याय नहीं है। अर्थात् लोक वह है, जो गाँव या नगर कहीं निवास करता हो, साक्षर हो या निरक्षर, किसी भी वर्ग, वर्ण, जाति का हो, और जो प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भी अपनी पावन पारंपरिक संस्कृति के साथ अभाव में भी स्वभाव की रक्षा करता हो।”
लेखक का मानना है कि तुलसीदास ने इसी उदात्त अर्थ में लोक शब्द को परिभाषित किया है। वह वेद से थोड़ा भी न्यून नहीं है। उसी लोक को रामकथा सुनाने के लिए तुलसीदास अध्यात्म की पारम्परिक भाषा संस्कृत तक का परित्याग कर देते हैं। तुलसीदास का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि उन्होंने ‘वेद’ का रस निचोड़कर ‘लोक’ में परोस दिया है।
9. लोकगीतों में कालिदास की शकुन्तला- श्री संजय गोस्वामी
लेखक श्री संजय गोस्वामी राजस्थानी लोकगीतों का सर्वेक्षण कर उनका संकलन-अध्ययन करनेवाले शोधकर्ता हैं। उन्होंने राजस्थानी लोकगीतों में पाया है कि कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् के चतुर्थ अंक में शकुन्तला की विदाई तथा उपदेश के जो श्लोक हैं वे आज आज भी लोकगीतों में वहाँ हैं। यहाँ दो बातें हो सकतीं है कि या तो कालिदास ने जो भाव लिए हैं वे लोक के पर्यवेक्षण से प्रस्फुटित हैं अथवा लोकगीत कालिदास के भावों पर आधारित हैं। तीसरी स्थिति की कल्पना करना करना शायद सबसे अधिक उपयुक्त होगा कि सम्पूर्ण भारत में बंटी की विदाई तथा उन्हें दिये जाने वाले उपदेश शाश्वत तथा सार्वभौम हैं। हमें विश्वास है कि इस आलेख से संस्कृत-कवियों के भावों को लोक में अन्वेषण करने की उत्सुकता बढ़ेगी।
10. ऋचीक मुनि और पुत्र शुन:शेप का वृत्तान्त- डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
शुनःशेप की कथा ऐतरेय ब्राह्मण 32वें अध्याय में हरिश्चन्द्रोपाख्यान में भी आया हुआ है। वहाँ उसे अजीगर्त का मँझला पुत्र कहा गया है तथा उस कथा के अनुसार अजीगर्त ने वरुण यज्ञ में हरिश्चन्द्र के पुत्र के स्थान पर बध्यपशु बनने के लिए पुत्र का विक्रय कर दिया था। इतना ही नहीं, जब उस यज्ञ में कोई ब्राह्मण राजा के आदेश के बाद भी नरबलि के लिए तैयार नहीं हुआ तब वही अजीगर्त गायों को पाकर पुत्र की बलि देने के लिए भी तैयार हो गया। अंत में राजर्षि विश्वामित्र ने उसे मन्त्र वारुण मन्त्र का उपदेश देकर उसे पाशमुक्त कराया। उसी अजीगर्त की कथा जब हम वाल्मीकि रामायण में पढ़ते हैं तो यहाँ पिता का नाम बदला हुआ है, क्रेता राजा का नाम भी परिवर्तित है। ऐतरेय ब्राह्मण में शुनःशेप वारुण यूप से बँधा है, किन्तु यहाँ विष्णु-यूप से। इस प्रकार के परिवर्तन और विकास हमें ऐतिहासिक रूप से समाज में आये परिवर्तनों का संकेत करते हैं। वैदिक कथाओं के विकास को समझने के लिए यह कथा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
11. पुस्तक-समीक्षा : शाश्वती गीता
नाम- शाश्वती गीता, श्रीमद्भगवद्गीता- गायन शैली में हिन्दी गीतों में रचित। अनुवादक- डॉ. कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव। प्रकाशक- रेलवे टाइम टेबुल ऑफिस (प्रकाशन), वाराणसी। प्रथम संस्करण, 2023ई. ISBN- 978-81-964624-0-6. मूल्य- 501 रुपये।
12. महावीर मन्दिर समाचार (दिसम्बर, 2023ई.)
महावीर कैंसर संस्थान का रजत जयंती समारोह के अवसर पर भव्य आयोजन, 12 दिसम्बर, 2023ई., महावीर मन्दिर में किशोरी जी संग कौशल्यानंदन के विवाह का भव्य आयोजन, दिनांक- 17 एवं 18 दिसम्बर, 2023ई., महावीर मन्दिर में मनायी गयी गीता जयन्ती, दि. 23 दिसम्बर, 2023ई.
13. माता जानकी के उद्भव-स्थल, पुनौरा धाम, सीतामढ़ी
‘सीता-रसोई’ योजना, साधु-विश्रामालय एवं सीता-रसोई के लिए भवन निर्माण, जानकी उद्भव-स्थल पर भव्य मन्दिर का निर्माण
महावीर मन्दिर प्रकाशन
महावीर मन्दिर प्रकाशन
महावीर मन्दिर प्रकाशन
महावीर मन्दिर प्रकाशन
धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक