धर्मायण अंक संख्या 134 शाप-विमर्श विशेषांक

अंक 134, भाद्र, 2080 वि. सं., 1 सितम्बर-29 सितम्बर, 2023ई.
श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के रूप में https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।
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अंक की आलेख-सूची एवं विवरण
1. शापादपि वरादपि- सम्पादकीय
2. महाभारत वनपर्व में पर्यालोचित शाप-प्रकरण- डा. ममता मिश्र ‘दाशʼ
वाल्मीकि रामायण एवं महाभारत भारतीय संस्कृति के दो उपजीव्य ग्रन्थ रहे हैं, जिनमें वर्णित कथाओं और ऐतिहासिक घटनाओं का परवर्ती प्रभाव सबसे अधिक रहा है। स्वाभाविक रूप से इनमें वर्णित शापकथाओं का साहित्यिक महत्त्व अधिक होगा। इन शापकथाओं में जो परवर्ती परिवर्द्धन, परिवर्तन तथा विलोपन हुए हैं वे हमारे सांस्कृतिक इतिहास के स्रोत हैं। उनके अध्ययन से हम यह जान सकते हैं कि मूल कथा में परिवर्तन कैसे किया गया है तथा उसकी दिशा क्या है। इस प्रकार महाभारत की कुछ प्रसिद्ध शापकथाओं का विवेचन यहाँ किया गया है। राजा नल, कर्कोटक सर्प, अर्जुन-उर्वशी, ऋषि अष्टावक्र को पिता कहोड़ का शाप ये सब संस्कृत साहित्य में बहुधा वर्णित हैं, जहाँ इन मूल कथाओं में पर्याप्त परिवर्तन किए गये हैं। महाभारत के शाकुन्तलोपाख्यान में तो कालिदास ने एक शापकथा जोड़कर दुष्यन्त की धीरोदात्तता पर लगे प्रश्नचिह्न को ही मिटा दिया है। इस प्रकार, हमें महाभारत की शापकथाओं को अपने मूल रूप में देखने की आवश्यकता है।
3. महाभारत में शाप प्रकरण- विद्यावाचस्पति महेश प्रसाद पाठक
शाप का विवेचन करते हुए हमारे मन में अकसर यह भावना बन जाती है कि इस शाप में शाप देने वाले की गलती है और हम हमेशा मान लेते हैं कि जिसे शाप मिला है वह दया का पात्र था। उसकी असमर्थता हमें झलकने लगती है और मानस की पंक्ति “सापत ताड़त परुष कहन्ता” की व्याख्या के समय शाप की मूल अवधारणा को भूल जाते हैं। महाभारत के शाप प्रसंगों का विवेचन इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यहाँ हम देखते हैं कि शापग्रस्त व्यक्ति किसी प्रकार से असहाय नहीं है, लेकिन उसने गलती की है तो सरमा कुतिया भी उसे शाप दे देती है, क्योंकि उसने एक माता के पुत्र को बैठने नहीं दिया, उसे मार भगाया। शापग्रस्त व्यक्ति यहाँ और कोई नहीं राजा जनमेजय हैं। कर्ण-सा वीर योद्धा भी जब अपना परिचय छुपाकर गुरु के सामने अपराध कर बैठता है तो शाप का भागी होता है। महाभारत के शाप-प्रसंग स्पष्ट करते हैं कि अपराधी को वाग्दण्ड के द्वारा शाप मिलना ही चाहिए।
4. शाप के सिद्धान्त- निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु
बुरे कार्य करने वाले को शाप तथा अच्छे कार्य करने वालों को वरदान मिलना यह भारतीय पुराकथाओं के लिए सामान्य प्रसंग हैं। बल्कि शापकथाओं के माध्यम से अनेक बार हमें यह भी शिक्षा दी गयी है कि ऐसे कार्य हमें नहीं रकना चाहिए। एक ही व्यक्ति को अच्छे कार्य के लिए वरदान भी मिला है और बुरा कार्य करने पर शाप भी। रावण ने तपस्या के द्वारा बहुत सारे वरदानों का लाभ उठाया पर जब उसी ने रमाभा तथा पुजिकस्थला का बलात्कार किया तो भयंकर शाप भी मिला। इस प्रकार, शाप देने वाले किसी न किसी रूप में धर्म, समाज, परम्परा आदि के संरक्षक होते हैं। उऩकी दृढ़ता अपने धर्म के प्रति होती है। अतः इस दृष्टि से शापप्रदायक देव, ऋषि अथवा ब्राह्मण की व्याख्या की जा सकती है। अनेक शापों में तो हम इस सृष्टि से निरूह से निरीह प्राणियों के द्वारा शाप देने की बात देखते हैं। कुतिया जब जनमेजय को शाप देने का सामर्थ्य रखती है तो हमें निश्चित रूप से मानना होगा कि शापप्रसंग दुराचार से निवृत्त करने हेतु हैं और वरदान प्रसंग सदाचार की ओर हमें प्रेरित करते हैं।
5. ‘मानस’ में वर्णित शाप तथा उनकी दिशाएँ- श्रीकांत सिंह
आधुनिक समाज पर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है। शापकथाओं को लेकर वर्तमान काल में जो भी अवधारणा बनी है, उसके पीछे इस ग्रन्थ का सर्वादिक योगदान रहा है। अतः शाप-प्रसंगों पर रामचरितमानस का विवेचन आवश्यक है। हमें गर्व है कि इस आलेख के लेखक डा. सिंह ने इसी विषय पर अपनी पुस्तक का ही लेखन किया है। इनका विस्तृत शोध इस पर है। यह आलेख पूर्व में भी ‘धर्मायण’ की अंक संख्या 80 में प्रकाशित हो चुका है। इस अंक के लिए प्रासंगिक जानकर हमने इसे साभार पुनर्ग्रहण किया है। लेखक ने ‘मानस’ की शापकथाओं को अनेक भागों में विभाजित कर उसके फलाफल का निरूपण किया है। (पूर्वप्रकाशित अंक 80)
6. वरदान होते गए ‘मानस’ के शाप- डॉ कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव
गोस्वामी तुलसीदास विरचित रामचरितमानस मंगल काव्य है। इसकी कथाओं में सर्वत्र जगन्मंगल की भावना छिपी हुई है। यहाँ अनेक प्रकार से शापकथाओं का प्रयोग हुआ है। इन शापकथाओं को लेकर जो आधुनिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में विवेचन हो रहे हैं उऩकी सीमा है, उनका एक उद्देश्य है। अतः ‘मानस’ की शापकथाओं को उसके मूल उत्स के साथ उसके विकास को भी देखने की जरूरत है। यद्यपि इसके व्यापक अध्ययन के लिए हमें इन शापकथाओं के पौराणिक स्वरूप के अन्वेषण की आवश्यकता है पर तत्काल इस आलेख के लेखक ने इनका यथारूप संकलन कर पाठकों के लिए एकत्र प्रस्तुत किया है। हम आशा करते हैं कि रामकथा के प्राचीन ग्रन्थों में इनके उल्लेख कहाँ पर आये हैं, अथवा ये गोस्वामीजी की अपनी कल्पना है, इस दृष्टि से विचार कर भविष्य के शोधकर्ता अपना कार्य करेंगे। तत्काल हम आधुनिक पत्रकार, जिसे सामाजिक सरोकार भी निभाने का दायित्व वहन करना पड़ता है, उसकी दृष्टि में ‘मानस’ की शापकथाओं को देखें।
7. पौराणिक शाप कथाएँ : भारतीय मिथक- जनार्दन यादव
भारतीय साहित्य उपादेशात्मक हैं और इनका अन्ततः उद्देश्य है अभ्युन्नति। अतः हम यहाँ सुखान्त परिणिति देखते हैं। यहाँ के साहित्य की अनन्य विशेषता है कि आरम्भ और मध्य भले झंझावातों से क्यों न भरा हो पर अन्त तो सुखमय ही होगा। वैदिक वाङ्मय सहित सभी साहित्य उपदेशपरक हैं। वैदिक साहित्य और स्मृतियाँ पिता समान उपदेश देते हैं तो पुराण मित्र के समान कथाओं के द्वारा हमें सन्मार्ग पर प्रेरित करते हैं। शापकथाओं का ताना-बाना भी वैसा ही बुना गया है ताकि वह वैदिक साहित्य के निन्दार्थवाद का स्वरूप ले सके। श्रुति कहती है- ‘सत्यं वद।’ पुराण कहता है- ‘देखो भैया, कर्ण ने गुरु से झूठ कहा तो उसे शाप मिला।’ इसी पर काव्य लिखा जायेगा तो वहाँ हमें अलंकार, ध्वनि, नवरस भी मिलेंगे। पर, तीनों जगहों पर एक ही बात मिलेगी- ‘झूठ मत बोलो।’ इस परिप्रेक्ष्य में पौराणिक शापकथाओं की शैली तथा विमर्श यहाँ हम देख सकते हैं।
8. श्रीमद्भागवत के द्वितीय खण्ड में शापप्रसंग- शत्रुघ्नश्रीनिवासाचार्य पण्डित शम्भुनाथ शास्त्री ‘वेदान्ती’
श्रीमद्भागवत अपनी प्रसिद्धि की दृष्टि से महत्तवपूर्ण है। बारह स्कन्धों के इस महापुराण में दो खण्ड चर्चित हैं- प्रथम स्कन्ध से अष्टम स्कन्ध तक प्रथम खण्ड के रूप में जाना जाता है तथा नवम से द्वादश तक द्वितीय खण्ड के रूप में। श्रीकृष्ण की बाललीला से परिपूर्ण होने के कारण भागवत का सबसे चर्चित अंश दशम स्कन्ध भी यहाँ है। इस अंश में विविध शापकथाएँ हैं, जिनमें अधिकतर देवों के द्वारा प्रदत्त शाप हैं, जिनसे हमेशा जगन्मंगल हुआ है। यह सम्पूर्ण अंक कथात्मक है, अतः ऐसी शापकथाओं में कहने की शैली का अधिक महत्त्व हो जाता है। यहाँ लेखक कथा कहने के अनुभवी हैं अतः हमें आशा है कि पाठकों को यह शैली पसंद आयेगी। यहाँ लेखक ने शाप शब्द का व्याकरण तथा कोष की दृष्टि से अर्थानुसन्धान किया है, जो परम उपादेय है। इससे हमें शाप को गम्भीरता से समझने का अवसर मिलेगा।
9. जब ब्रह्मा भी शापग्रस्त हुए
भारतीय शापकथाओं की विशेषता है कि यहाँ शाप और वरदान के स्रष्टा ब्रह्मा भी स्वयं शापग्रस्त हो जाते हैं। यह उदाहरण हमें स्पष्ट रूप से संकेतित करता है कि प्रतिबद्धता जहाँ भंग होती है, वहाँ शाप प्रवृत्त होता है। सावित्री के आने की प्रतीक्षा न कर जब ब्रह्माजी ने भी गायत्री को यजमानपत्नी के रूप में बैठाकर यज्ञ करने लगे तो सावित्री ने शाप दे दिया। एक अन्य कथा में ब्रह्माजी ने पुत्र नारद को शाप दिया तो नारदजी ने भी ब्रह्मा को शाप दिया। इन कथाओं को पढ़ने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि जहाँ कहीं भी अनुचित होता है वहाँ शाप की प्रवृत्ति होती है, अतः यह एक प्रकार का वाग्दण्ड है, जो देवों, ऋषियों तथा मुनियों के मुख से निःसृत होने के कारण अवश्यम्भावी फल देता है। बाद में, इन शापों के कारण कई ऐसे कार्य सिद्ध हो जाते हैं, जो अन्ततः संसार के उपकार के लिए होते हैं। ब्रह्मा से सम्बन्धित शापों का यहाँ संकलन किया गया है।
10. जब विष्णु भी हुए शापग्रस्त- डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य
देवीभागवत शक्ति की उपासना का प्रमुख महापुराण है। वैष्णव परम्परा में श्रीमद्भागवत को महापुराण माना जाता है तो शाक्त परम्परा में देवी भागवत को। इसमें सिद्धान्ततः पराम्बा देवी की सार्वभौमिकता तथा सर्वोपरिता कही गयी है। इसमें हयग्रीव अवतार विष्णु की कथा है। इसमें विष्णु को शापग्रस्त होने की कथा आयी है। स्वयं देवी लक्ष्मी ने विष्णु का सिर कट जाने का शाप दिया। देवी स्वयं कहती हैं कि मुझे ऐसा कार्य जगत् के कल्याण हेतु करना पड़ा। एक राक्षस ने मुझे प्रसन्न कर वर माँग लिया था कि मैं ऐसे व्यक्ति के हाथों मारा जाऊँ जिसका सिर घोड़े का हो। देवी चाहतीं तो किसी का भी सिर कटबाकर घोड़े का सिर लगबाकर उस राक्षस को मरबा सकती थीं, पर उन्होंने अन्य किसी को कष्ट न देकर विष्णु से ही यह जगन्मंगल का कार्य कराया। विष्णु ने हयग्रीव का रूप धारण कर जगत् को छिन्न-भिन्न करने वाले दैत्य की संहार किया। यह कथा दिव्य शाप की प्रवृत्ति तथा दिशा की व्याख्या करती है।
11. सनातन धर्म में अधिक मास का माहात्म्य- डॉ. शारदा मेहता
विगत मास श्रावण मलमास रहा है। इसमें चार पक्ष हुए। रहला पक्ष शुद्ध मास था फिर बीच में एक मास का मलमास हुआ, जिसमें श्रावण से सम्बन्धित कोई भी धार्मिक कृत्य नहीं किए गये। पुनः चौथा पक्ष शुद्ध मास कहलाया। इस प्रकार, मलमास की व्यवस्था हुई। यह स्थिति 32 मास 18 दिन पर आती है। इस मास के माहात्म्य का वर्णन पद्मपुराण में आया है, जहाँ इसे पुरुषोत्तम मास कहा गया है। इस आलेख की विशेषता है कि यहाँ उज्जैन की जनश्रुति के आधार पर बहुत कुछ लिखा गया है, जिसे हिन्दी भाषाभाषी क्षेत्र के पाठकों को रुचिकर लग सकता है।
12. ब्रह्माण्डपुराणोक्त श्रीनृसिंहकवच हिन्दी अनुवाद सहित- अंकुर नागपाल
विष्णु के दशावतारों में चतुर्थ नृसिंहावतार भक्तों के रक्षक के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। जब भक्त उन्हें पुकारते हैं तो शीघ्र आकर रक्षा करते हैं। जैसे उन्होंने भक्ति प्रह्लाद के लिए हिरण्यकशिपु का संहार किया। ब्रह्माण्ड-पुराण का यह नृसिंह कवच एक स्वतन्त्र स्तोत्र के रूप में प्रख्यात है अतः इसकी अनेक पाण्डुलिपियाँ भी उपलब्ध हैं और पुराणों के साथ जो पाठ है उससे विशिष्ट पाठ हमें स्वतन्त्र रूप से मिलते हैं। वैद्य एस्. वी. राधाकृष्ण शास्त्री (श्रीरंगम्) ने ‘श्रीविष्णुस्तुतिमञ्जरी’ (भाग 2) में इसके पाठ का सुन्दर संकलन किया है। इस कवच का हिन्दी अनुवाद उलब्ध नहीं था, अतः श्रीलाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय में विशिष्टाद्वैत वेदान्त के शोधछात्र अंकुर नागपालजी ने इसका सुन्दर अनुवाद कर प्रेषित किया है। हमें आशा है कि धर्मायण के पाठकों को यह रुचिकर लगेगा।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक