धर्मायण अंक संख्या 141 लक्ष्मण-चरित विशेषांक
अंक 141, चैत्र, 2081 वि. सं., 25 मार्च-23 अप्रैल, 2024ई..
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अंक की आलेख-सूची एवं विवरण
1. लक्ष्मणो लक्षणान्वितः -सम्पादकीय
शत्रुघ्न एवं लक्ष्मण का ननिहाल होने का गौरव मगध को है। वाल्मीकि रामायण के 1.13.26 में वर्णन मिलता है कि मगध से राजा प्राप्तिज्ञ को बुलाया गया था। यद्यपि वाल्मीकि ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि मगधराज प्राप्तिज्ञ सुमित्रा के पिता थे। लेकिन कालिदास ने रघुवंश, 9.17 में सुमित्रा को मगधराज प्राप्तिज्ञ की पुत्री माना है। रामकथा में भ्राता लक्ष्मण का स्थान महत्त्वपूर्ण है। वे राजा दशरथ के चार पुत्रों में तीसरे हैं। श्रीराम का जन्म चैत्र शुक्ल नवमी को पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ है। भरत का जन्म दशमी तिथि में , पुष्य नक्षत्रमें मीन लग्न में हुआ, यानी उसी दिन के भोर में सूर्योदय से पहले हुआ। लेकिन लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न का जन्म आश्लेषा नक्षत्र में माना गया है। अतः लक्ष्मण का जन्मदिन रामनवमी के तीसरे दिन एकादशी तिथि में मानी जाएगी। वाल्मीकि-रामायण में इसका उल्लेख किया गया है-
2. लक्ष्मण का विष्णु-अंशावतार- रहस्य- पं. शम्भुनाथ शास्त्री वेदान्ती
यह सृष्टि कैसे हुई इसपर अनेक व्याख्याएँ हैं। सभी दार्शनिक मतों ने अपनी-अपनी दृष्टि से सृष्टि तथा स्रष्टा ईश्वर के बीच सम्बन्ध का प्रतिपादन किया है। इसी क्रम में अवतारवाद की पुष्टि हुई है कि जब-जब पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है तो स्रष्टा विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण कर धर्म की पुनः प्रतिष्ठा करते हैं। इस अवतार ग्रहण में वे अकेले नहीं आते बल्कि अपने सभी अंग, आयुध, वाहन, तथा परिवार के साथ अवतरित होते हैं। अवतारवाद के सन्दर्भ में यह चतुर्व्यूह कहलाता है। इस चतुर्व्यूह की व्याख्या अनेक प्रकार से की गयी है। विशिष्टाद्वैत मत में वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध चतुर्व्यूह हैं। रामावतार में संकर्षण के रूप में लक्ष्मण तथा कृष्णावतार में बलराम का अवतार माना गया है। वे शेषावतार कहलाते हैं। इस विषय पर द्वैतवादी मत के संस्थापक श्रीमध्वाचार्य आनन्दतीर्थ ने अपने ग्रन्थ ‘महाभारततात्पर्यनिर्णय’ में रामावतार के सन्दर्भ में गम्भीर व्याख्या की है। उन्होंने चतुर्व्यूह पर अपना मत प्रकट किया है और लक्ष्मण के शेषत्व- संकर्षणत्व की व्याख्या प्रस्तुत की है। यहाँ मध्वाचार्य का मत प्रस्तुत है।
3. लक्ष्मणसहस्रनाम में शेषत्व-विचार- डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य
महारामायण के रूप में विख्यात भुशुण्डि रामायण में 36 हजार श्लोकों में रामकथा कही गयी है। इसमें रामकथा का रसमय स्वरूप भी है तथा आगम, कर्मकाण्ड, अनुष्ठान सबकुछ सम्मिलित है। इसी के प्रथम खण्ड अर्थात् पूर्वखण्ड में 15वें अध्याय में लक्ष्मणतत्त्व पर विमर्श है जो सहस्रनाम के माध्यम से स्फुट हुआ है। वसिष्ट राजा दशरथ को यह सुनाते हैं। इस सहस्रनाम के माध्यम से लक्ष्मण के आध्यात्मिक अवतारी रूप का विवेचन हुआ है। वे ही बलराम हैं, शब्दशास्त्र के तत्त्वज्ञ पतंजलि हैं, पृथ्वी का भार धारण करने वाले सहस्रवदन शेष हैं। इस सहस्रनाम के माध्यम से एकात्मकता का जो पाठ पढ़ाया गया है वह अद्भुत है। लेखक ने यहाँ यह भी स्पष्ट किया है कि हमारे प्राचीन शास्त्रकारों ने दैवीशक्तियों के बीच सर्वत्र अभेद का प्रतिपादन किया है, आज जो लोग इनमें ऊँच-नीच, शक्तिशाली-कमजोर आदि का भेद करते हैं वह उनकी क्षुद्रबुद्धि है। मूलप्रवर्तक आचार्यों ने यह परावर भेद नहीं किया है। यह अहम्मन्यों के द्वारा निन्दनीय अज्ञान संचार से हुआ है।
4. वीरसेवक भ्राता- श्रीलक्ष्मणजी – विद्यावाचस्पति महेश प्रसाद पाठक
रामावतार में लक्ष्मण श्रीराम से दो दिनों के छोटे हैं। श्रीराम का अवतार नवमी को हुआ है तो उसके तीसरे दिन एकादशी तिथि में लक्ष्मण प्रकट हुए हैं। वे विशिष्ट हैं, क्योंकि वे हमेशा श्रीराम के साथ रहे हैं। अकेले राम की कोई कथा ही नहीं है। सभी स्थलों पर वाल्मीकि तथा तुलसीदास दोनों ने श्रीराम को ‘मर्यादा’ के रूप में प्रतिष्ठित किया है तो लक्ष्मण को व्यावहारिक धरातल पर उतारा है। लक्ष्मण ‘दशा’ हैं तो श्रीराम ‘दिशा’ हैं। वनगमन के प्रसंग में लक्ष्मण बाहुबल से सबको अभिभूत करने की बात करते हैं तो श्रीराम उन्हें उचित कर्तव्य का उपदेश देते हैं। चित्रकूट में जब लक्ष्मण वृक्ष पर चढ़कर भरत की सेना को दूर से देखते हैं तो उनके मन में ‘संसार की वस्तुस्थिति’ उपजती है पर श्रीराम उन्हें आदर्श समझाते हैं। लक्ष्मण तथा श्रीराम में यह दशा और दिशा का सम्बन्ध विवेचनीय हो जाता है।
5. मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘पंचवटी’ के लक्ष्मण- प्रो. (डॉ.) नागेन्द्र कुमार शर्मा
“भारतीयता के अमर पुजारी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपने छोटे-से खंडकाव्य ‘पंचवटी’ में लक्ष्मण का बड़ा अच्छा चरित्रांकन किया है। यद्यपि काव्य की परिमित परिभूमि में लक्ष्मण के व्यापक चरित्र का सम्यक् समावेश नहीं हो सका है, उसका अंशमात्र (पंचवटी और उसमें भी शूर्पणखा से संबंधित) ही वर्णित-चित्रित है, तथापि संक्षेप में उनकी जिन मूलभूत चारित्रिक विशेषताओं का संकेतन-सम्मूर्तन हुआ है, वह श्रेष्ठ सनातन मान-मूल्यों के सर्वथा अनुरूप है। स्पष्ट ही कवि और उसके इस काव्य का प्रधान प्रयोजन और प्रतिपाद्य भी यही है। तुलसीदास की तरह गुप्त जी भी एक आदर्शवादी और मर्यादावादी कवि थे। भव्य भारतीयता अथच श्रेष्ठ सनातनता उनके कवि-कर्म की मूल प्रेरिका और नियामिका शक्ति है। यहाँ उन्होंने लक्ष्मण जी के माध्यम से युवकोचित धीरता-वीरता के साथ शीलगत संयम एवं मर्यादा के संरक्षण-संवर्धन की ही सीख दी है।”
6. मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’ में उर्मिला का चरित्र- डॉ सरोज शुक्ला
सनातन की प्राचीन परम्परा में उर्मिला को लक्ष्मण की शक्ति के रूप में दिव्यत्व प्रदान किया गया है। अगस्त्य-संहिता अनुष्ठानों में लक्ष्मण के साथ उर्मिला को सम्मिलित करती है, दोनों के सम्मिलित स्वरूप का ध्यान करते हुए उत्तम पत्नी की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान का उपाय बतलाती है। आधुनिक काल का नारी-चिन्तन केवल पति-पत्नी के भौतिक स्वरूप पर जोर देता है, उन्हें दो प्राणी मानकर नारी के भौतिक अधिकारों की व्याख्या करता है, जबकि भारतीय प्राचीन परम्परा दो को मिलाकर एक की बात करती है, जहाँ न तो कोई विरह है न कोई संयोग है। मैथिलीशरण गुप्त के साकेत में उर्मिला की व्याख्या इसी आधुनिक नारीवादी परिप्रेक्ष्य में हुई है, जहाँ वह भौतिक दृष्टि से ‘दयनीया’ बना गयी है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की काव्येर उपेक्षिता में भी यही भाव है। इस आधुनिक नारीवादी दृष्टि से ‘साकेत’ की उर्मिला पर यह आलेख प्रस्तुत है।
7. लक्ष्मणजी की निष्ठा- श्री संजय गोस्वामी
“लक्ष्मण जी को शेषनाग का अवतार माना जाता है। मन्दिरों में राम तथा सीताजी के साथ सदैव उनकी पूजा होती है। लक्ष्मण हर काम में सेवाभाव कूट-कूट के भरा हुआ था। लक्ष्मण जी का बड़े भाई के लिये चौदह वर्ष तक अपनी पत्नी से अलग रहना वैराग्य का अच्छा उदाहरण है। ऐसे महान् कर्मयोगी, धर्मयोगी व अद्भुत योद्धा, अपने भक्तों का दुख हरने वाले और भगवान् राम के परम भक्त व उनके छोटे भाई लक्ष्मणजी पर यह लेख पूर्ण वैधता, सत्यता व प्रमाणित साक्ष्यों के आधार पर यह लेख प्राचीन महाकाव्यों में लक्ष्मणजी की भूमिका विषय पर लिखा गया है।”
8. ‘मानस’ में लक्ष्मण-गीता- डॉ. कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव
जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान का अक्षय भण्डार है, वह भगवान् की वाणी के रूप में प्रतिष्ठित है, उसी प्रकार रामचरितमानस में लक्ष्मण के मुख से निकली उक्तियाँ हमें जीवन की अनमोल शिक्षा प्रदान करती है। लक्ष्मण की उक्तियाँ युगानुरूप व्यावहारिक तथा उपदेशात्मक हैं। लेखक ने कतिपय स्थलों पर गीता एवं आदि शंकर के वचनों को उद्धृत कर लक्ष्मण के उपदेशात्मक शब्दों के साथ तादात्म्य स्थापित करने का प्रयास किया है। लक्ष्मण श्रीराम से कहते हैं- धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही॥ अयोध्याकांड में लक्ष्मण-गुह संवाद भी उपदेशात्मक है। ऐसे अनेक स्थल यहाँ संकलित हैं।
9. बालकाण्ड में मुखर लक्ष्मण- डॉ. विजय विनीत
लक्ष्मण राम के अनुज हैं, वे हमेशा राम के साथ रहे हैं, विश्वामित्र के आश्रम में भी, मिथिला के उपवन में भी। राम से दो दिनों के छोटे अनुज अपनी पहचान हर जगह बनाये हुए हैं। पूरे बालकाण्ड में यदि हम देखें तो लक्ष्मण का चरित निखर कर सामने आया है। तुलसीदास जी ने तो इसे और उभार दिया है। लक्ष्मण कहते हैं कि हे भ्राता यदि मैं आपका आदेश पाऊँ तो ब्रह्माण्ड को गेंद की तरह उड़ा दूँ। तुलसीदास के ‘मानस’ के आलोक में यदि बालकाण्ड के नायक के रूप में हम प्रस्तुत करने की भी स्थिति बन जाती है। नायक नहीं तो कम से कम मुखर पात्र तो कहा ही जा सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य में इस आलेख का लेखन किया गया है।
10. लोकगीतों में राम-लक्ष्मण- संकलनकर्ता- प्रो. राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी
11. लक्ष्मण का योगबल और रावण का संहार- श्री भगवान् दास
जैन-साहित्य की तरह लोककथाओं में भी रावण के जीव को मारने वाले लक्ष्मण हैं। यहाँ भील आदिवासियों में प्रचलित रावण-वध की कथा में मुख्य मुख्य भूमिका में लक्ष्मण हैं। रावण के प्राण उसके शरीर में नहीं है, वह कहाँ छुपाया गया है, इसका भेद जानने लक्ष्मण मंदोदरी का वेष बनाकर रावण के महल में जाते हैं, रावण को भोजन कराते समय सारा रहस्य जान लेते हैं कि रावण के प्राण तो सूर्य के रथ के चक्र में छिपा दिया गया औऱ उसका भेदन वही कर सकता है जो 12 वर्षों तक ब्रह्मचारी रहा हो और कठिन हठयोग साध सके। यह गुण लक्ष्मण में है। इस लोककथा के मूल में लक्ष्मण को विशिष्ट बनाया गया है। लक्ष्मण खौलते तेल-भरे कड़ाही के कड़े पर चढ़कर सूर्य के रथचक्र के केन्द्र का प्रतिबिम्ब देखते हैं और वहाँ छुपे रावण के प्राण को अपने बाणों से बेधकर कड़ाही में गिराते हैं तब जाकर रावण का शरीर वध्य होता है, जिसे राम मारते हैं। यहाँ लक्ष्मण विशिष्ट बन जाते हैं।
12. बिरहोर वनवासी की रामकथा के लक्ष्मण- श्री संजय कृष्ण
वाल्मीकि ने भी रामायण की रचना नारद के मुँह से रामकथा सुनकर ही की थी। वाल्मीकि तथा श्रीराम की समकालिकता का वृत्तान्त परवर्ती परिकल्पना है, जिसके कारण वाल्मीकि रामायण में अनेक पाठान्तर तथा प्रक्षेप आ गये हैं। “को न्वस्मिन् प्रथितो लोके” वाल्मीकि का प्रश्न है, जिसे “को न्वस्मिन् साम्प्रतं लोके” के रूप में विचलित कर यह समकालिकता गढ़ी गयी है। अतः रामकथा के सन्दर्भ में हम आदिवासियों के बीच प्रथित लोकगाथाओं को भी देखना चाहिए। वहाँ परम्परा पुरानी है। कम से कम चरित-चित्रण के सन्दर्भ में तो वह अवश्य पठनीय है। यहाँ बिरहोर आदिवासियों की रामकथा का विस्तार से विवेचन किया गया है।
13. द्वापर के लक्ष्मण- दाउजी- शैरिल शर्मा
सनातन धर्म की विशेषता है कि इसमें दैवी शक्ति को नाम तथा रूप के आधार पर विभाजित नहीं किया गया है। अतः रामावतार तथा कृष्णावतार में तादात्म्य सम्बन्ध का प्रतिपादन सर्वत्र हुआ है। कृष्णोपनिषद् इस बात की पुष्टि करती है कि रामावतार के सभी पात्र द्वापर युग में कृष्णावतार में विभिन्न रूपों में अवतरित हुए थे, जिनमें लक्ष्मण का द्वापरयुगीन नाम था- बलराम यानी दाउजी। लक्ष्मण तथा बलराम के बीच अभेद सम्बन्ध का प्रतिपादन हमारी एकात्मकता के संस्कार को मजबूती प्रदान करता है। लोकभाषा का एक जैन काव्य- बद्रीचंद कृत सीतापचीसी है जिसमें सीता-लक्ष्मण संवाद में लक्ष्मण के स्थान पर बलराम का नाम आपाततः आ गया है। लक्ष्मण लवकुश से लड़ने लगते हैं तो वहाँ भी बलराम का नाम आ गया है। यह वही अभेद प्रतिपादन है। यहाँ द्वापर के लक्ष्मण बलरामजी के मन्दिरों का विवरण पठनीय है।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक