धर्मायण अंक संख्या 136 कार्तिक अंक
अंक 136, कार्तिक, 2080 वि. सं., 29 अक्टूबर से 27 नवम्बर, 2023ई.
श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के रूप में https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।
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अंक की आलेख-सूची एवं विवरण
1. पितरों का पर्व : दीपावली- सम्पादकीय
पुराणों की परम्परा में भी दीपावली के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ मिलतीं हैं। यहाँ पुराणों के उपलब्ध मुम्बई संस्करण में प्राप्त कुछ कथाएँ तथा माहात्म्य संकलित हैं। इन कथाओं के अतिरिक्त भी दीपावली के सम्बन्ध में सामग्री मिलने की प्रचुर सम्भावना है। दीपावली से एक दिन पूर्व से लेकर यम द्वितीया तक पितृ-गण से सम्बन्ध सिद्ध होता है। हालाँकि इन दिनों में हनुमानजी का आविर्भाव, गोवर्द्धन-पूजा, पशुपूजा आदि के भी प्रसंग आते हैं। दीपावली के तो अनेक सन्दर्भ मिलते ही हैं।
2. हनुमान्-जन्मोत्सव की पाँच स्तुतियाँ-राजर्षि कवि बाबू गोपीश्वर सिंह
कार्तिक मास महावीर हनुमानजी के जन्म से सम्बन्धित मास है। कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमानजी का अवतार हुआ था। भगवान् शंकर स्वयं श्रीराम की सहायता के लिए हनुमान के रूप में अवतरित हुए थे। कुछ लोग हनुमान-जयन्ती चैत्र पूर्णिमा को मानते हैं। उनकी अपनी परम्परा है। स्वामी रामानन्दाचार्य ने अपने ग्रन्थ वैष्णवमताब्जभास्कर में भा कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को माना है। यदि हम लोक-परम्परा की बात करें तो मिथिला के लोग भी कार्तिक मास में ही जयन्ती मनाते आ रहे हैं। मिथिला की प्राचीन परम्परा रही है कि देवों का जन्मोत्सव जन्म के अगले दिन यहाँ मनाया जाता रहा है। फलतः 19वीं शती के राजर्षि गोपीश्वर सिंह ने में भी कार्तिक अमावस्या के दिन हनुमज्जन्मोत्सव कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि अमावस्या से एक दिन पूर्व अर्थात् चतुर्दशी में जन्म अभिप्रेत है।
3. कार्तिक मास : भगवान् विष्णु का मास- म.म. विद्यापति
म.म. विद्यापति (14-15वीं शती) न केवल मैथिली के गीतकार हैं, बल्कि एक विख्यात लोकोन्मुखी धर्मशास्त्री तथा निबन्धकार भी हैं। संस्कृत में विभागसार, शैवसर्वस्वसार, दुर्गाभक्तितरङ्गिणी, व्याडीभक्तितरङ्गिणी, गयापत्तलकम्, वर्षकृत्यम्, भूपरिक्रमणम्, गंगावाक्यावली (विश्वास देवी के नाम से) दानवाक्यावली, लिखनावली आदि अनेक शास्त्रीय रचनाएँ हैं। म.म. विद्यापति कृत वर्षकृत्यम् खण्डित रूप में ही उपलब्ध है, किन्तु कार्तिक मास के सभी प्रचलित पर्वों-व्रतों का उन्होंने विवेचन किया है। इसका अनुवाद पं. गोविन्द झा के द्वारा किया गया 2016 ई. में प्रकाशित है। यद्यपि इससे पूर्व भी म.म. चण्डेश्वर ने कृत्यरत्नाकर में इस प्रकार का वर्णन किया है, किन्तु वहाँ केवल पौराणिक श्लोक संकलित कर दिए गये हैं, जबकि विद्यापति ने लोकाचार का भी निर्देश किया है। उन्होंने देवात्थान एकादशी के दिन आँगन में जिस अल्पना का उल्लेख किया है वह आज भी प्रचलन में है। अतः लगभग 600 वर्ष पूर्व की मान्यता को हम यहाँ अविकल उद्धृत कर रहे हैं।
4. पितृयज्ञ का वैदिक विवेचन- डॉ. राधानंद सिंह
अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि वर्तमान श्राद्ध-पद्धति में पुरोहितों के द्वारा बहुत सारे कर्म मध्यकाल में जोड़ दिये गये हैं। आर्य-समाजियों ने तो श्राद्धभोज की कारुणिक कहानियाँ गढ़कर लोगों को पूरे कर्म से विमुख करने का भरपूर प्रयास किया है। सम्पूर्ण श्राद्ध की पद्धति को अवैदिक करार कर मनमाना प्रचार किया जा रहा है। लेखक की मान्यता है कि वर्तमान काल में पितृनिमित्तक दान एवं ब्राह्मण भोजन भी मध्यकालीन प्रक्षेप नहीं, बल्कि वैदिक काल से रहे हैं। इस आलेख में लेखक ने विशेष रूप से अथर्ववेद से मन्त्रों को उद्धृत कर इनकी पारम्परिक व्याख्या कर श्राद्ध-पद्धतियों में वर्णित मूल तथ्यों को पूर्णतः वैदिक सिद्ध किया है।
5. पितरों का तीर्थ : गया- श्री रवि संगम
दक्षिण बिहार में फल्गु नदी के तट पर अवस्थित गया नगरी पितृ-कर्म हेतु अति प्राचीन काल से प्रख्यात है। महाभारत तथा वाल्मीकि-रामायण में भी इसका उल्लेख आया है। वाल्मीकि-रामायण के अयोध्याकाण्ड के 107वें सर्ग में राम ने भरत से कहा कि हम चारों भाइयों में से कम से कम एक को तो गया अवश्य जाना चाहिए; इसीलिए तो पितर विद्वान् तथा गुणवान् बहुत सारे पुत्रों की कामना करते हैं ताकि उनमें से एक भी गया चला जाये तो उन्हें तृप्ति मिल जाती है। यह कथन एक ओर पितृ-कर्म के लिए गया की महत्ता सिद्ध करता है तो दूसरी ओर मृत्यु के उपरान्त पुत्र के द्वारा पितरों की तृप्ति हेतु पिण्डदान आदि कर्मों की अति प्राचीनता सिद्ध करता है। आज जो लोग मृत्यु के उपरान्त श्राद्ध आदि कर्म को व्यर्थ मानते हैं उन्हें इस अंश को भलीभाँति देखना चाहिए। बिहार के पर्यटन-स्थलों पर लगभग 30 वर्षों से कार्य करने वाले रवि संगमजी ने गया के लोगों की अवधारणाओं को यहाँ रेखांकित किया है। इस आलेख को वर्तमान पर्यटन-आलेख की दृष्टि से देखना चाहिए।
6. विचित्र लिपियों में लिखी पोथियाँ और पत्र- डा. व्रजमोहन जावलिया
प्राचीन साहित्य से आज अनेक ऐसे स्तोत्र, यन्त्र आदि की व्याख्या के क्रम में स्पष्ट होता है कि इन्हें कूट भाषा एवं लिपि में लिखा गया है। उदाहरण के लिए तुलसीदास रचित रामशलाकाप्रश्न को लिया जा सकता है। इसमें कोष्ठकों में वर्ण लिखे गये हैं, किन्तु किसी भी वर्ण से आरम्भ कर नवें कोष्ठ के वर्ण को संकलित करते हुए चौपाई बन जाती है। यह कूटलिपि है। इस प्रकार के अन्य ग्रन्थ भी मिलते हैं। अनेक चित्रकाव्य हैं, जिनके वर्णों को एक व्यवस्थित क्रम से लिखने पर विशेष आकृति बन जाती है। इस प्रकार के साहित्य को समझने के लिए कूटलिपि को सैद्धान्तिक रूप से समझना आवश्यक है। डॉ. जावलिया का यह आलेख ‘Pathways to literature, art, and archaeology : Pt. Gopal Narayan Bahura felicitation volume’, Chandramani Singh, Neelima Vashishtha. (Ed.), vol. 1, 1991ईं. में “विचित्र लिपियों में लिखी पोथियाँ और पत्र” शीर्षक से प्रकाशित है। यह महत्त्वपूर्ण आलेख लेखक के परिजनों की अनुमति से पुनःप्रस्तुत है।
7. भगवान् श्रीराम द्वारा क्रियायोग का वर्णन- डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
निगम, आगम, बौद्ध तथा जैन-साहित्य में चार तथ्यों का प्रतिपादन हुआ है। इन तथ्यों को चार पाद अथवा चार योग के नाम से जाना जाता है- ज्ञानपाद, योगपाद, क्रियापाद एवं चर्यापाद। ज्ञानपाद- दार्शनिक साहित्य, योगपाद- योगसंबन्धी साहित्य, क्रियापाद- कर्मकाण्ड (पूजा-पाठ आदि) चर्यापाद- दैनिक आचरण एवं व्यवहार। इन चारों का सम्मिलित रूप हमारे धर्म की अस्मिता है। रामोपासना के परिप्रेक्ष्य में अध्यात्म-रामायण में हम इन चारों का समाहार पाते हैं। यहाँ अध्यात्म-रामायण से रामोपासना का कर्मकाण्ड स्पष्ट किया गया है। इसका उपदेश स्वयं श्रीराम के मुख से लक्ष्मण को दिया गया है। रामकथा के इस महत्त्वपूर्ण प्रसंग को लेखक ने यहाँ कथा की शैली में व्यक्त किया है।
8. स्वामी रामतीर्थ- डा. राजेन्द्र राज
दीपावली अनेक परिप्रेक्ष्य में विशिष्ट है। लक्ष्मीपूजा, कालीपूजा, राजा बलि की पूजा, पितृपूजा आदि का यह अवसर है। इसी दिन श्रीराम चौदह वर्षों के वाद अयोध्या लौटे थे। जैन-परम्परा के अनुसार इसी दिन भगवान महावीर का निर्वाण पावापुरी में हुआ था। इसकी स्मृति में इस दिन नव- वर्षारम्भ माना गया है। गुजरात में भी सांस्कृतिक रूप से यह दिन वर्षारम्भ के रूप में मनाया जाता है। व्यवसाय-जगत् में भी दीपावली के दिन से नवीन वित्तीय वर्ष प्रारम्भ करने की परम्परा आज भी विद्यमान है। सिख परम्परा में गुरु हरिगोबिन्द सिंह इसी दिन अपने अंगरखा की कलगियों को पकड़ा कर 52 बंदियों को साथ लेकर जहाँगीर के कैद से छूटकर अमृतसर पहुँचे थे, जिस उपलक्ष्य में सिख भाई दीपावली मनाते हैं ।
दीपावली के इन्हीं माहात्म्यों की सूची में एक और जुड़ जाता है जब हम 19वीं शती के अन्त के एक सन्त स्वामी रामतीर्थ का नाम लेते हैं।
9. श्रीगणेशजी के बारह नाम- डॉ. शारदा नरेन्द्र मेहता
आगम की उपासना पद्धति में प्राचीन काल में से पाँच सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है, जिनके देवता हैं– सूर्य, गणेश, अग्नि, विष्णु, दुर्गा तथा शिव। इनमें से वर्तमान में अग्नि से सम्बद्ध शाखा लुप्त हो चुकी है, गणेश-शाखा को शैव शाखा में मिला दिया गया है। सूर्य से सम्बद्ध शाखा के कुछ ग्रन्थ साम्ब-पुराण, त्रिच-भास्कर आदि उपलब्ध है। मित्रमिश्र ने भी वीरमित्रोदय में कुछ तथ्यों का संकलन किया है। शेष तीन शाखाएँ– शैव, वैष्णव एवं शाक्त ये पल्लवित-पुष्पित हैं।
गणेश-उपासना की शाखा के कुछ अंश छिट-फुट उपलब्ध होते हैं, इन्हींमें से एक गणेश के बारह नामों का स्तोत्र है। इसकी व्याख्या आगम की गाणपत्य-शाखा को पृथक् सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। लेखिका ने लोक अवधारणा तथा शास्त्रीय अवधारणा की दृष्टि से इन 12 नामों की व्याख्या की है।
10. सोमरस : मिथक एवं वास्तविकता- डॉ मयंक मुरारी
सोमलता तथा सुरापान को लेकर अकसर विवाद होते रहते हैं उन्हें मादक पदार्थ मानकर वैदिक काल में उसके प्रचलन की व्याख्या की जाती है। लेखक की मान्यता है कि सोमलता तथा सोमरस में मादकता नहीं औषधीय गुण होते थे। आधुनिक विज्ञान तथा आयुर्वेद की दृष्टि से सोमरस का पता लगाया जा रहा है तथा उसके वैदिक उद्धरणों के साथ समन्वय स्थापित कर उसकी पहचान की जा रही है। गुरु नानक विश्वविद्यालय के तत्त्वावधान में शोधकर्ताओं ने बहुत कार्य किया है। सोमरस पर आधुनिक शोध की क्या दिशा है तथा वह कहाँतक पहुँची है उसे इस आलेख में लिखा गया है।
11. अजर-अमर हनुमान्- श्री संजय गोस्वामी
महावीर हनुमान कलियुग के प्रमुख देवताओं में से एक माने जाते हैं। वाल्मीकि-रामायण के पूर्वोत्तर पाठ के अनुसार श्रीराम के वरदान से ये एक ओर अजर-अमर हैं तो सीता माता के वरदान से इनका नाम जहाँ लिया जायेगा, वहाँ से सभी विघ्न-बाधाएँ दूर भाग जायेंगी। यह वरदान इनके देवत्व को निर्धारित करता है। हनुमानजी का एक अन्य तान्त्रिक रूप भी है, जिनमें वे पंचमुखी है। किन्तु रामोपासना की परम्परा में वे एकमुखी तथा रामभक्त हैं। यहाँ रामभक्त हनुमानजी सम्बन्धित कथा दी गयी हैं। इनमें कुछ ऐसे प्रसंग भी हैं, जिनका कोई साहित्यिक आधार उपलब्ध नहीं है, लेकिन ये प्रसंग हनुमानजी के ऐश्वर्य को स्थापित अवश्य करते हैं।
12. मनीषी पं. गोविन्द झा का महाप्रयाण- श्रद्धाञ्जलि
दिनांक 18 अक्टूबर, 2023ई. की रात्रि 10:30 पर पण्डित गोविन्द झा का देहावसान उनकी 101वें वर्ष की अवस्था में हुआ। वे वैयाकरण, साहित्यकार, लिपिशास्त्री, सम्पादक, अनुवादक तथा विशेष रूप से भाषा वैज्ञानिक के रूप में प्रतिष्ठित रहे। इनके निधन से बिहार ने प्राचीन तथा आधुनिक ज्ञान-परम्परा के संगम स्वरूप एक मनीषी को खो दिया है। महावीर मन्दिर तथा ‘धर्मायण’ पत्रिका परिवार की ओर से ऐसे मनीषी को नमन एवं श्रद्धाञ्जलि!!
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक