धर्मायण, अंक संख्या 119, व्रत-विधि-विशेषांक
ज्येष्ठ, 2079 वि. सं. (17 मई से 14 जून तक 2022ई. तक)
श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए वीर बहादुर सिंह, महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।
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आलेख के शीर्षक एवं विषयवस्तु का विवरण
1. म.म. रुद्रधर कृत व्रत-पद्धति में व्रत-विधान (पाण्डुलिपि से सम्पादित)
2. कुछ धार्मिक शब्द और उनके आशय- पं. गोविन्द झा
सनातन धार्मिक परम्परा में अनेक ऐसे शब्द हैं जो प्राचीन काल में अपने शाब्दिक अर्थों में प्रयोग किये जाते थे, किन्तु आधुनिक काल में उनके प्रचलित अर्थों में संकोच या विस्तार हो गया है। इसका कारण है कि धार्मिक परम्परा बदल गयी है, किन्तु उसके लिए भी वे ही प्राचीन शब्द रूढ अर्थ में व्यवहृत हो रहे हैं। फलतः ऐसे शब्द अपने स्वाभाविक अर्थ को छोड़कर पारिभाषिक हो गये हैं। लेकिन यदि हम इन शब्दों के स्वाभाविक अर्थों का विवेचन करें तो हमारी प्राचीन धार्मिक परम्परा स्पष्ट होती है। अतः ऐसे शब्दों के स्वाभाविक अर्थों को जानना धर्म को जानने के लिए आवश्यक है।
पं. गोविन्द झा बिहार के वयोवृद्ध वैयाकरण, साहित्यकार, पाण्डुलिपि-विशेषज्ञ, होने के साथ आधुनिक भाषाविज्ञान के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् हैं। हमारा सौभाग्य है कि 101 वर्ष के होने के बाद भी लेखन-कार्य में संक्रिय हैं। इस वर्ष भी इनकी पुस्तक प्रकाशित हुई है। हम महावीर हनुमान् से इनके स्वस्थ रहने की प्रार्थना करते हुए 2008ई. में पूर्वप्रकाशित लेख को यहाँ प्रसंगवशात् संकलित कर रहे हैं।
3. व्रत की ऐतिहासिक और वैज्ञानिक मीमांसा- डा. परेश सक्शेना
विभिन्न धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में व्रतों लिए फलश्रुतियाँ बढ़-चढ़ कर मिलती हैं। इन फलश्रुतियों का इतना ही कार्य है कि ये लोगों को आकृष्ट कर व्रत करने की ओर प्रेरित करें। तत्त्वतः ये प्ररोचनाएँ हैं, जो केवल रुचि उत्पन्न करतीं हैं। व्रत करने के लाभ तो अनेक प्रकार से हमें मिलते हैं। यहाँ लेखक ने सिद्ध किया है कि निराहार रहना यानी विना कुछ खाये-पीये एक निश्चित समय तक रहना तथा यताहार होकर रहना किस प्रकार हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं। लेखक स्वयं चिकित्सक भी हैं, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में हो रहे शोधकार्यों से परिचित हैं। आज भोजन को नियन्त्रित कर अनेक रोगों की चिकित्सा के नये आयाम ढूँढ़े जा रहे हैं, जिन्हें ‘मिटिगेटिड फास्टिंगʼ और ‘इण्टरमिटेण्ट फास्टिंगʼ का नाम देकर प्रयोग किये जा रहे हैं। यह तथ्य प्राचीन काल से हमारे धर्माचार्य विभिन्न प्रकार के व्रतों का विधान कर प्रकट करते रहे हैं। इस प्रकार, एकभुक्त व्रत, नक्तव्रत, उपवास आदि सभी प्रकार के धार्मिक भोजन-निषेध हमें शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ रखने के लिए दिशानिर्देश हैं।
4. प्राचीन भारत का आर्य-व्रत- श्री राधा किशोर झा
एक ही ‘वृʼ धातु से ‘व्रतʼ और ‘वर्णʼ दोनों शब्द बने हैं। निरुक्तकार यास्क कहते हैं ‘‘वर्णो वृणोतेः”((निरु. २.१.४) जिसे वरण किया जाए। पी. बी. काणे ने भी ‘धर्मशास्त्र के इतिहासʼ में इसी अर्थ में व्रत को लिया है। अर्थात् यजमान जो कार्य करने के लिए संकल्प करता है, वह उसका व्रत है। इसी अर्थ में वर्ण भी है। रंग के अर्थ में नहीं। वर्ण को रंग के अर्थ में प्रयुक्त मानना यूरोपीय विद्वानों की भूल है। इस आलेख में लेखक ने सिद्ध किया है कि व्रत अर्थात् आचरण, संकल्प आदि वे कारक हैं, जिनके आधार पर प्राचीन भारत में वर्ण-व्यवस्था निर्धारित की गयी थी। अतः वैदिक साहित्य में व्रत के रूप में उन उन कर्मों का उल्लेख अनेक स्थलों पर आया है, जो व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के लिए हितकारी हैं। उपनयन संस्कार के लिए व्रतबन्ध शब्द का प्रयोग भी इसी अर्थ में है, जहाँ शिक्षा से अधिक चारित्रिक सबलता पर बल दिया जाता था। इस प्रकार यहाँ प्राचीन भारत के सन्दर्भ में बौद्धों तथा जैन धर्म के ग्रन्थों में एक ही संकल्पना प्रतिपादित की गयी है।
5. व्रत में प्रतिनिधि- पं. शशिनाथ झा
मान लीजिए कोई व्यक्ति सोलह सोमवारी का व्रत ठाने हुए हैं। किसी एक सोमवार को उन्हें अशौच हो जाता है, या वे बीमार पड़ जाते हैं तो पहला प्रश्न उठता है कि वे व्रत का क्या करें? उनके मन में जिज्ञासा उठती है कि ऐसी परिस्थिति में शास्त्र में क्या विधान है? इसी प्रकार की जिज्ञासा का शास्त्रीय उत्तर इस आलेख में दिया गया है। हमारी सनातन परम्परा लोकोन्मुख है अतः हर परिस्थिति के लिए धर्मशास्त्रियों ने कर्तव्य और अकर्तव्य दोनों का विधान किया है।
इस आलेख के लेखक भारत-विख्यात विद्वान् हैं । अनेक धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों का सम्पादन कर चुके हैं तथा समाज में भी इनका विचार अन्तिम रूप से मान्य है। वर्तमान में विश्वविद्यालय के कुलपति की कार्यव्यस्तता के बावजूद हमारे आग्रह पर इन्होंने यह आलेख लिखा, इसके लिए हम आभार व्यक्त करते हैं।
6. व्रत का दार्शनिक पक्ष- गीता के आलोक में- डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य
भारतीय चिन्तन की एक धारा प्रत्येक विचार को दार्शनिक दृष्टि से देखती है। भारत अनेक विचारधाराओं का उद्गम-स्थल होने के बाद भी जिस प्रकार वह वेद तथा गीता के अद्वैत-दर्शन तक सिमटता जा रहा है, यह भी विचारणीय हो गया है कि क्या यह प्रवृत्ति सनातन की व्यापकता को कहीं हानि तो नहीं पहुँचायेगी? कहीं हम सनातन विशाल वट-वृक्ष को ताड़ का पेड़ तो नहीं बनाने जा रहे हैं? विद्वान् इस पर विमर्श करें।
यहाँ तो हम व्रत-पर्वों का विमर्श दार्शनिक दृष्टि से करने जा रहे हैं। लेखक ने व्याकरण की दृष्टि से व्रत शब्द की व्याख्या की है तथा गीता के कर्म और अकर्म के विवेचन के आधार पर अकर्म-त्याग एवं कर्म-आधान के सन्दर्भ में व्रतों का विवेचन किया है, जो पठनीय है।
7. एकादशी व्रत- एक संक्षिप्त चर्चा- श्री महेश प्रसाद पाठक
यदि हम धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों को देखें तो प्रत्येक दिन कोई व्रत एवं उसकी उत्कृष्ट फलश्रुति हमें मिल जायेगी। महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज द्वारा सम्पादित ‘व्रतकोष’ में १६२२ व्रतों का विवरण है, जो वर्ष के दिनों से कई गुणा अधिक है। अतः हमें व्रतों का वर्गीकरण करना होगा। साथ ही हमें यह भी अवधारणा माननी होगी कि भारतीय परम्परा में धार्मिक मान्यताओं की स्वतंत्रता रही है। एक ही दिन वैष्णव व्रत भी हैं तो शाक्त व्रत भी। इसके पीछे अवधारणा है कि हमारे धर्मशास्त्रियों ने समाज के सभी लोगों को जोड़ने का कार्य किया है। जिनके जो इष्टदेव हों, वे उनकी उपासना करें। इस प्रकार, व्रतों की विविधताएँ हमारी उदात्त परम्परा के द्योतक हैं। व्रत कितने प्रकार के होते हैं इनकी व्याख्या करते हुए लेखक में विशेष रूप से 24 एकादशी-व्रतों का विवेचन किया है।
8. एकादशी व्रत : एक अनुशीलन- पं. मार्कण्डेय शारदेय
नियमित रूप से किये जानेवाले व्रतों में एकादशी महत्त्वपूर्ण है। इसे गृहस्थ एवं साधु-संन्यासी भी करते हैं। वर्ष भर में 24 एकादशी होतीं हैं। एकादशी में दशमीविद्धा एकादशी वर्जित है। कभी-कभी पहले दिन दशमीविद्धा एकादशी होती है और दूसरे दिन तिथिक्षय के कारण एकादशी का मान रहता ही नहीं है। तिथिमान में घट-बढ़ के कारण इस व्रत में कभी पहले दिन गृहस्थों की एकादशी हो जाती और दूसरे दिन वैष्णव यानी साधु-संन्यासी करते हैं। अतः लोगों को शास्त्रीय ढंग से वास्तविकता समझने में असुविधा होती है, व्रत करते हुए भी उन्हें लगता है कि ‘न जाने मैं सही कर रहा हूँ या नहीं।ʼ अतः पण्डित मार्कण्डेय शारदेय ने इस आलेख में आमलोगों को समझाने के उद्देश्य से एकादशी के विविध पक्षों की शास्त्रीय व्याख्या की है।
9. देवभूमि हिमालय के तपस्वियों का आहार- डा. ललित मोहन जोशी
कविकुलगुरु कालिदास ने कुमारसम्भव के प्रथम श्लोक में ही हिमालय को ‘देवतात्माʼ तथा ‘नगाधिराजʼ कह कर इसकी विशालता तथा दिव्यता का बोध करा दिया है। आज भी हिमालय की कन्दराओं में तपस्यारत साधु मिल जाते हैं। मान्यता है कि वे बहुत दिनों तक जीवित तथा स्वस्थ रहते हैं। पहला प्रश्न उठता है कि वे आहार क्या लेते हैं? क्योंकि आहार का सीधा सम्बन्ध स्वास्थ्य एवं आयु से है। लेखक ने इसी जिज्ञासा की शान्ति करायी है। हिमालय के क्षत्रों में उगने वाले कुछ प्रमुख कन्दों का यहाँ वर्णन किया जा रहा है, जो उन तपस्वियों के प्रिय आहार हैं। साथ ही हिमालय के क्षेत्र में बसने वाले लोग भी इन्हें व्रतों के अवसर पर फलाहार के लिए उपयोग करते हैं। इनमें से कुट्टू का तो व्यापार भी होने लगा है, फलतः सभी क्षेत्र के लोग इसका उपयोग कर पा रहे हैं, किन्तु आज भी वहाँ ऐेसे कन्द उत्पन् होते हैं, जिनका उपयोग केवल क्षेत्र के लोग ही कर पा रहे हैं। उनका सचित्र परिचय यहाँ दिया जा रहा है।
10. व्रतों में क्या खायें क्या न खायें? संकलित)
11. 19वीं शती की कृति रीतिरत्नाकर में पर्व-त्योहारों का विवरण -संकलित
19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक रीतिरत्नाकर का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं।
इस पुस्तक में एक प्रसंग आया है कि किसी अंगरेज अधिकारी की पत्नी अपने बंगला पर आसपास की पढ़ी लिखी स्त्रियों को बुलाकर उनसे बातचीत कर अपना मन बहला रही है। साथ ही भारतीय संस्कृति के विषय में उनसे जानकारी ले रही है। इसी वार्ता मंडली में वर्ष भर के त्योंहारों का प्रसंग आता है। पण्डित शुक्लाजी की पत्नी शुक्लानीजी व्रतों और त्योहरों का परिचय देने के लिए अपनी दो चेलिन रंगीला और छबीला को आदेश देतीं हैं।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह ग्रन्थ अवध प्रान्त के सांस्कृतिक परिवेश में लिखा गया है। इसमें अनेक जगहों पर बंगाल प्रेसिंडेंसी को अलग माना गया है।
सन् 1872 ई. के प्रकाशित इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा में बहुत अंतर तो नहीं है किन्तु विराम, अल्प विराम आदि चिह्नों का प्रयोग नहीं हुआ है जिसके कारण अनेक स्थलों पर आधुनिक हिन्दी के पाठकों को पढ़ने में असुविधा होगी। इसलिए यहाँ भाषा एवं वर्तनी को हू-ब-हू रखते हुए विराम-चिह्नों का प्रयोग कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ स्थलों पर अनुच्छेद परिवर्तन भी किए गये हैं। जिन शोधार्थियों को भाषा-शैली पर विमर्श करना हो, उन्हें मूल प्रकाशित पुस्तक देखना चाहिए, जो Rītiratnākara के नाम से ऑनलाइन उपलब्ध है।
11. आनन्द-रामायण-कथा -आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं।– प्रधान सम्पादक
12. वट-सावित्री व्रत-पूजा एवं लोकगीत- सुश्री पुनीता कुमारी श्रीवास्तव
ज्येष्ठ मास में वट-सावित्री प्रमुख लोकपर्व के रूप में मनाया जाता है। इसमें मुख्य रूप से वटवृक्ष की पूजा होती है। वट पाँच पवित्र वृक्षों में से एक है। प्राचीन काल में यह प्रकृति-पूजा के रूप में रही होगी। जब भाषा का विकास हुआ तो वट को लोकभाषा में ‘बड़ʼ कहा गया। इधर ‘वरʼ शब्द नव-विवाहित पति के लिए भी प्रयुक्त था। उच्चारण साम्य के कारण ‘बड़ और ‘वरʼ के बीच सम्बन्ध हुआ तो सुहागिनें इस दिन पति की लंबी आयु के लिए यह अनुष्ठान करने लगीं, और सावित्री सत्यवान की कथा भी जुड़ी। यदि हम सावित्री सत्यवान् की कथा का इतिहास देखें तो हमें यह स्पष्ट होगा कि किस कालखण्ड में वट-पूजा का सम्बन्ध सुहाग के साथ स्थापित हुआ होगा। आज लोकजीवन में यह महिलाओं के द्वारा सम्पन्न किया जाता है। इसके लोक-गीत का भी संकलन लेखिका ने किया है।
13. करुणावतार स्वामी रामानन्द (कविता)- श्री घनश्याम दास ‘हंसʼ
वर्तमान समय में आचार्य रामानन्द के सिद्धान्त सनातन धर्म की सुरक्षा के लिए सबसे आवश्यक है। यदि हम मध्यकाल की सामाजिक परिस्थिति का अवलोकन करें तो देखते हैं कि रामानन्दाचार्य स्वयं जिस रामानुजाचार्य की परम्परा से जुड़े थे वह संस्कृत भाषामयी धार्मिक धारा थी। चूँकि संस्कृत भाषा आम जनता से दूर हो चुकी थी अतः वह धर्म से भी दूर होती जा रही थी। उत्तर भारत में समाज के सभी लोगों को धर्म से जोड़ने के लिए आचार्य रामानन्द ने जनभाषा को अपना माध्यम बनाया। उनकी इस क्रान्तिकारी दूरदर्शिता के कारण एर धारा बह चली जिसमें रविदास, कबीर, तुलसीदास आदि सन्त धर्मध्वज के वाहक बने। रामानन्दाचार्य ने जो समता का दर्शन दिया वह आज भी प्रासंगित है। ऐसे सन्त के प्रति भाव-प्रदर्शन आज की पीढी का कर्तव्य बनता है।
बिहार के मौलिक दलित सन्त-लेखक श्रीहंसजी ने ऐसे संत शिरोमणि रामानन्दाचार्यजी के प्रति अपना उद्गार कविता के रूप में व्यक्त किया है। आज जहाँ दलित-लेखन नकारात्मकता की बाढ में बहता जा रहा है, वहाँ श्रीहंसजी सकारात्मक लेखन से जुड़े हैं, यह सुखद है।
14. महाभारत में वर्णित श्रीहनुमान के उपदेश- डॉ. मोना बाला
वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान् श्रीराम ने हनुमानजी को चिरंजीवी होने का वरदान दिया था तथा रामायण के पूर्वोत्तर पाठ के अनुसार सीताजी ने साथ में उन्हें देवत्व का भी वरदान दिया कि जहाँ आपका स्मरण किया जायेगा, वहाँ सभी कामनाएँ पूर्ण होंगीं। ऐसे हनुमानजी महाभारत की कथा में भी आये हैं। चूँकि भीमसेन भी वायुपुत्र हैं तो इस रूप में वे हनुमानजी के अनुज हुए। हनुमानजी ने अग्रज का कर्तव्य निभाते हुए पहले उनके अहंकार को नष्ट किया, फिर उन्हें राजनीति तथा जीवन-दर्शन का उपदेश किया। “यह सुन्दर उपदेश है जिससे शास्त्रों में धर्म के अनुसार युगों की चर्चा उसमें परिवर्तित व्यवहारों के बारे में बताया गया है। साथ ही वर्णों का वर्गीकरण भी कार्य प्रवृत्तियों के अनुरूप बताया गया है। लोक के अनुपालन हेतु वर्णों की कार्य प्रवृत्ति अनुपालन आवश्यक बताया गया है। इस प्रकार हनुमानजी ने धर्म एवं राजनीति संबंधी अपना विचार प्रस्तुत किया है जो तत्कालीन धर्म एवं राजनीति के गूढ़ता पर प्रकाश डालती है।”
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक