7. ऋषि-तत्त्व- श्री अरुण कुमार उपाध्याय

इस आलेख के सम्बन्ध में लेखक ने स्वयं टिप्पणी प्रेषित की है, जो इस पूरे आलेख को व्यापक रूप से समझने हेतु महत्त्वपूर्ण है।
मैं अपने लेख ‘ऋषि तत्त्व’ के परिचय के लिए कुछ कहना चाहता हूँ-
“(१) पण्डित मधुसूदन ओझा का “महर्षिकुलवैभव” दो रूप में छपा है। एक भाग में ब्रह्मा के मानस पुत्र रूप में प्रसिद्ध ९ शोध संस्थानों का परिचय है जो उन ऋषियों के नाम से प्रचलित थे। मैंने इस विषय में कुछ नहीं लिखा है।
(२) महर्षि कुल वैभव के अन्य रूप में ४ प्रकार के ऋषि तत्त्वों का विचार है। मेरे मन में था कि ज्योतिष में ७ अंक के लिए ऋषि शब्द का व्यवहार होता है। अतः ३ अन्य तत्त्वों के विषय में भी चिन्तन कर लिखा-सृष्टि का मूल तत्त्व जिनसे क्रमशः पितर, देव आदि उत्पन्न हुए, दस आयामी विश्व का सप्तम आयाम। वंश परम्परा के सूत्र रूप का वर्णन ओझा जी के मुख्य शिष्य पण्डित मोतीलाल शास्त्री की पुस्तक श्राद्ध विज्ञान के तृतीय खण्ड के आधार पर है।
(३) विभिन्न प्रकार के ऋषियों महर्षि, ब्रह्मर्षि आदि का वर्णन स्कन्द पुराण के आधार पर है, जैसा सन्दर्भ में है। तीन प्रकार के सप्तर्षियों के नाम भी पुराणों के आधार पर हैं। केवल इसी कल्प मे सप्तर्षियों का उल्लेख किया है।
(४) गीता के दशम अध्याय के प्रारम्भ में ‘महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा’ पर इस अंक में एक अन्य लेख भी है जिसे अभी पढ़ना बाकी है। इस पर गीता की विभिन्न टीकाओं में मैंने ४ प्रकार के अर्थ देखे, पर किसी से सन्तोष नहीं हुआ। पहले तो यही भ्रम है कि ७ कौन हैं, ४ कौन हैं-महर्षि या मनु? ‘अग्निजिह्वा मनवः’ का एक अर्थ है कि अग्नि की १४ जिह्वा हैं (मनु = १४)। अन्य अर्थ होगा कि मन या चित्त की प्रवृत्ति १४ प्रकार की हैं। पर मुण्डक उपनिषद् तथा मार्कण्डेय पुराण में अग्नि की ७ जिह्वा का ही वर्णन है। मुण्डक उपनिषद् के ही अगले अध्याय में ही दो प्रकार से जिह्वा का संकेत है- ग्रहण करने के लिए (लेलायते), निकालने के लिए (अर्चि, अंगारा)। लेलायते का अर्थ प्रायः किया गया है कि लपलपाती हुई जिह्वा। मैंने भोजपुरी-मैथिली का प्रचलित अर्थ लिया- लीलना (निगलना)।
गीता के विश्वरूप वर्णन में भी ऐसा ही अर्थ है-लेलिह्यसे ग्रसमानः। कई व्याख्या में सप्तर्षि मण्डल वाले या उस नाम के मनुष्य सप्तर्षियों को माना है। पर उनमें भृगु नहीं हैं जिनको गीता के इसी अध्याय में बाद में कहा है-महर्षीणां भृगुरहं। सही संकेत गीता के ही अगले श्लोकों में है कि उस समय देव या मनुष्य नहीं पैदा हुए थे जैसा ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में लिखा है- अर्वाग् देवाः।
अतः ये सृष्टि के मूल तत्त्व हैं जिनका क्रमशः विभाजन हुआ। एकर्षि की परिभाषा ईशावास्योपनिषद् में है कि यह सूर्य (सविता या स्रोत) तथा यम (अन्त, परिणति) के बीच का परिवर्तन क्रम है (इस रूप में किसी ने व्याख्या नहीं की है)।
अत्रि के दो अर्थ किये जाते हैं- अत्र (यहां), या जिसका ३ में विभाजन नहीं है। अर्थात् मूल एकर्षि का तीन में विभाजन हुआ तब १+३ = ४ ऋषि हुए। मुण्डक उपनिषद् के आरम्भ में वेद विभाजन भी वैसा ही लिखा है- मूल अथर्व से ऋक्, यजौ, साम हुए तथा अथर्व भी बचा रहा जैसे वेदारम्भ संस्कार में प्रयुक्त पलास दण्ड। उससे ३ पत्ते निकलते हैं तथा दण्ड भी बचा रहता है।
अतः त्रयी का अर्थ ४ वेद है- १ मूल + ३ शाखा या पत्र। इसी प्रकार एक, द्वि तथा त्रि-सुपर्ण का वेद में उल्लेख है। ऋषि-अंग रूप में शतपथ बाह्मण के आधार पर पण्डित मधुसूदन ओझाजी ने “ब्रह्मसिद्धान्त” में इसकी व्याख्या की है।
मैं अपने यज्ञोपवीत से अब तक इस पर चिन्तन तथा आश्चर्य कर रहा हूँ। १९८१ में नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अब्दुल सलाम के साथ दो दिनों तक गणित तथा दार्शनिक पक्षों पर विस्तार से चर्चा हुई थी। आश्चर्य है कि एक मूल तत्त्व के तीन में विभाजन का वर्णन वेद-गीता तथा आधुनिक भौतिक विज्ञान में बिलकुल एक ही है। आधुनिक विज्ञान में भी यह दार्शनिक मत ही है जिसके अनुसार गणित के समीकरण बने हैं, अभी तक इसका कोई प्रायोगिक प्रमाण नहीं है, न मिलने की सम्भावना है।”
प्रकाशित आलेख पर सम्पादकीय टिप्पणी
भारतीय परम्परा में ऋषियों का विवेचन व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक दोनों रूपों में हुआ है। अतः ऋषियों के अनेक प्रकार हो जाते हैं। विभिन्न दृष्टिकोण से विवेचना करने के फलस्वरूप इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति भी बदल जाती है। इस दृष्टि से ऋषियों के साथ सप्तर्षि का विवेचन महामहोपाध्याय मधुसूदन ओझा ने “महर्षिकुलवैभवम्” में विस्तार के साथ किया है। उनके इस व्यापक विवेचन को संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
उपाध्याय, अरुण कुमार, “ऋषि-तत्त्व”, धर्मायण, अंक सं. 110, सप्तर्षि विशेषांक, महावीर मन्दिर पटना, भाद्रपद, 2078, (अगस्त-सितम्बर, 2021ई.), पटना, पृ. 45-59
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक