धर्मायण, अंक संख्या 118, वैशाख-विशेषांक
वैशाख, 2079 वि. सं. 17 अप्रैल-16 मई, 2022ई.
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आलेख के शीर्षक एवं विषयवस्तु का विवरण
1. जन-जन पूजित देव हमारे – सम्पादकीय
2. वैशाख-मास में भगवान् के अवतार- श्री महेश प्रसाद पाठक
हम सांसारिक मनुष्य जिस वृक्ष को देखते हैं उसकी जड़ नीचे होती है और शाखाएँ ऊपर की ओर फैलती जाती हैं। जब हम उस वृक्ष पर ऊपर की ओर बढ़ते हैं तो सांसारिक शब्दों में कहा जाता है कि हम वृक्ष पर चढ़ रहे हैं, यानी हमारी उन्नति ‘चढ़ने में’ है। लेकिन एक दिव्य वृक्ष है, जिसकी मूल ऊपर है और शाखाएँ नीचे की और फैलती गयी हैं, वही वृक्ष अविनाशी है- ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। इस अविनाशी स्तर पर ऊपर उठना ‘उतरना’ है। यही अवतार है। जिन्होंने विशिष्ट कार्य किया वे अवतारी पुरुष बन गये। पुराणों ने भगवान् विष्णु के दश रूपों को अवतार घोषित किया। पुनश्च 24 रूपों को भी अवतार कहा। मानवता के हित में विशिष्ट कार्य अवतारी पुरुष बनने का कारण है। इसकी व्याख्या यहाँ की गयी है। साथ ही वैशाख मास के चार अवतारों के विशिष्ट कार्यों तथा उत्पत्तिस्थान का प्रतिपादन यहाँ किया गया है।
3. जनजातियों में पूजित भगवान् परशुराम –डा. काशीनाथ मिश्र
पौराणिक कथाओं में भगवान् विष्णु के जिन 10 अवतारों की चर्चा हुई है, वे सभी इस पृथ्वी पर उत्कृष्ट कार्य करने वाले कहे गये हैं। कुछ आलोचकों ने विकासवाद की दृष्टि से अवतार-विमर्श किया है तो कुछ नृ-वैज्ञानिकों ने भारतीय मूल के जनजातियों की सभ्यता एवं संस्कृति पर इनकी कथाओं के प्रभाव को दर्शाते हुए इन्हें व्यापक रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है। दशावतारों में पंचम अवतार परशुराम के सम्बन्ध में हाल में नवीन शोध किये गये हैं, दिनके आधार पर जयश्री सारनाथन ने परशुराम के व्यापक कार्यक्षेत्र एवं भारतीय मुंडा जनजातियों पर उऩकी कथाओं के प्रभाव का अध्ययन किया है। अंगरेजी में लिखे गये इसी आलेख के आधार पर प्रकृत लेखक ने अपने संक्षिप्त विवेचन में इस तथ्य को पुष्ट किया है कि भगवान् परशुराम केवल पौराणिक देवता नहीं बल्कि जनजातियों के द्वारा भी आराध्य हैं। आराध्य के स्तर पर यह एकता सिद्ध करती है कि भारतीय समाज में धार्मिक स्तर पर जातिगत भेद-भाव से ऊपर उठकर एक अंतःसम्बन्ध रहा है।
4. परशुराम की कीर्त्ति का विशाल आयाम –श्री अरुण कुमार उपाध्याय
पौराणिक साहित्य में कालगणना सम्बन्धी तथ्यों के उपलब्ध होने के बाद भी यूरोपीय विद्वानों के द्वारा पूर्वाग्रह के कारण उन्हें स्वीकार नहीं किया गया तथा पूरी भारतीय गणना पद्धति को ही खारिज कर दिया गया। साथ ही, पुराणों में उल्लिखित तथ्यों को केवल पुराकथाएँ कहकर इन्हें काल्पनिक मान लिया गया। भारतीय कालगणना-विधि के मर्मज्ञ विद्वान् लेखक का मानना है कि अवतारों के काल-निर्धारण के लिए हमारे पास पर्याप्त साधन हैं। लेखक ने इसी पद्धति के आधार पर विभिन्न अवतारों का कालनिर्धारण किया है। साथ ही प्रस्तुत आलेख में लेखक ने परशुराम पर विशेष रूप से अपना ध्यान केन्द्रित कर उनके कार्यक्षेत्र का भी निर्धारण किया है। लेखक की इस विवेचना के आलोक में विष्णु के पंचम अवतार परशुराम का काल 6702-6342 ई.पू. माना है तथा अन्य अवतारों की संगति इसके साथ बैठायी है। लेखक ने परशुराम का व्यापक क्षेत्र का भी निरूपण किया है।
5. वैदिक एवं लौकिक वाङ्मय में भगवान् नरसिंह –शत्रुघ्नश्रीनिवासाचार्य पं. शम्भुनाथ शास्त्री वेदान्ती
यदि हम भारतीय धर्म सुधार आन्दोलनों पर चर्चा करें तो जैन एवं बौद्धों के द्वारा प्रवर्तित सुधार आन्दोलन भी सनातन धर्म का ही एक धार्मिक सुधार था। ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी का आगम-पद्धति भी इसी धार्मिक सुधार का एक अंग था, जिसमें वैदिक मन्त्रों के स्थान पर लौकिक-पौराणिक मन्त्रों का प्रयोग आरम्भ हुआ। इसका उद्देश्य भी आम जनता को धर्म से जोड़ना ही था। बाद में जब संस्कृत भाषा भी आम जनता से दूर चली गयी तो संस्कृतेतर भाषा के माध्यम से धार्मिक आन्दोलन हुए, यह भी अंततः असंस्कृतज्ञों को अपने मूल वैदिक-पौराणिक धर्म से जोड़ने के लिए था। फलतः आज लगभग 1400 वर्षों से लोकभाषा का धारा बह चली। इस धारा में भी उपास्य देवता वे ही थे जो पौराणिक धारा में चर्चित रहे। रामानन्दाचार्य, कबीर, सूर, तुलसी आदि ने इसे पल्लवित पुष्पित किया। लेखक ने यहाँ सिद्ध किया है कि भगवान् नृसिंह का जो रूप तैत्तिरीय आरण्यक में है, वही रूप पुराणों में तथा लोकभाषा की स्तुतियों में भी है। फलतः भगवान् नृसिंह जन-जन के आराध्य देव रहे हैं।
6. बिहार का नृसिंह-देश (संकलित)
7. नृसिंह- उत्तराखण्ड के लोकदेवता- डा. ललित मोहन जोशी
विष्णु के दश अवतारों में भगवान् नृसिंह चतुर्थ अवतार हैं। इनकी मुख्य कथा भागवत में तथा प्रह्लाद की रक्षा करने और हिरण्यकशिपु का वध करने से सम्बन्धित है। लेकिन जब हम लोकगाथाओं में नृसिंह का स्वरूप देखते हैं तो इनके चार स्वरूपों की जानकारी मिलती है। वैष्णव धर्म के नृसिंह के साथ साथ-साथ उत्तराखण्ड के हिमालयीय क्षेत्रों में उनके अन्य तीन रूप भी हैं, जिनके सम्बन्ध में अनेक प्रकार की मान्यताएँ हैं। नाथ सम्प्रदाय के नरसिंह नाथ भी शब्द-साम्य के कारण भगवान् नरसिंह की तरह पूजे जाते हैं। लेखक में अपने सर्वेक्षणपरक आलेख में सिद्ध किया है कि नृसिंह उत्तराखण्ड के लोकदेवता बन चुके हैं, जिनका उपासना सभी वर्गों के लोग करते हैं। इस प्रकार इस अवधारणा को बल मिलता है कि भारतीय समाज में धार्मिक स्तर पर कोई भेद-भाव नहीं रहा है। सभी जातियाँ एक देवता की उपासना करती रही है। यह अवधारणा वर्तमान में समाज को एकरस करने हेतु उपयोगी है।
8. खपरियावाँ का नृसिंह मन्दिर एवं उसके संस्थापक दामोदर मिश्र- श्री नवीन कुमार मिश्र एवं डा. रामप्यारे मिश्र
पूर्वोत्तर भारत का क्षेत्र धार्मिक समन्वय तथा पाण्डित्य की परम्परा की दृष्टि से अखिल भारतीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण रहा है। यहाँ एक-से एक साधक, तपस्वी तथा विद्वान् हुए हैं। साथ ही नृसिंह की साधना भी मध्यकाल में मुखर रही है। हजारीबाग के निकट खपरियावाँ के नृसिंह-मन्दिर के संस्थापक पं. दामोदर मिश्र (16वीं शती) न केवल तन्त्र-साधक थे बल्कि उच्च कोटि के वैयाकरण तथा ग्रन्थकार भी थे। उन्होंने महाभाष्य पर भी एक छन्दोबद्ध व्याख्या लिखी थी। वे महाराज हेमन्त सिंह के द्वार पण्डित थे। उनके लिखे ग्रन्थों की पाण्डुलिपि उपलब्ध हैं, जिनका प्रकाशन होना बाँकी है। पं. दामोदर मिश्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर कार्य करने वाले डा. रामप्यारे मिश्र मे अपने इस लघु लेख में पं. मिश्र का प्रामाणिक परिचय प्रस्तुत किया है। साथ ही पत्रकार श्री नवीन कुमार मिश्र ने उऩके द्वारा स्थापित नरसिंह मन्दिर का परिचय दिया है।
9. नृसिंह अवतार : हिरण्यकशिपु उद्धार (कविता) डा. दामोदर पाठक
10. सर्वजनसुलभ शाबर-मन्त्रों में नरसिंह डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य
भारतीय समाज में शबर जातियों की गणना होती है। वाल्मीकि-रामायण में भी हमें शबरी का उल्लेख मिलता है। आज ये जनजातियों के रूप में परिगणित हैं। मूलतः इनके द्वारा प्रवर्तित मन्त्र शाबर मन्त्र कहलाते हैं, जो कालक्रम से समाज के सभी वर्गों के द्वारा प्रयुक्त होने लगे। यद्यपि ये मन्त्र झाड़-फूँक के लिए प्रयुक्त होने के कारण प्रयोग के तौर पर अस्वीकृत कर दिये गये। किन्तु इन मन्त्रों के भाषिक अध्ययन से भारतीय धार्मिक समरसता पर प्रकाश पड़ता है। इस रूप में आज शाबर मन्त्रों का अध्ययन अपेक्षित है। इन मन्त्रों में हम महादेव, गौरा, हनुमान, नरसिंह, त्रिपुरसुन्दरी, भैरव, काला भैंरू घूँघर वाला, यक्षिणी, रामचन्द्र, लक्ष्मण, सीताजी, देवी कालिका, माता अंजना, गणपति राय, कार्तिकेय, अर्जुन वीर, चौंसठ योगिनी, अल्ला, बिस्मिल्ला, राजा अजयपाल, सायन रानी, गुरु गोरख, चौरासी सिद्ध, नवनाथ, इस्मायल जोगी, महमदा पीर, जिन्द पीर, सुलेमान पैगम्बर आदि के नाम पाते हैं। इसका अर्थ है कि इनके प्रयोक्ता समाज में धार्मिक तथा सामाजिक सहिष्णुता, एवं एकरसता विद्यमान है, जो आज के लिए प्रासंगिक है।
11. लोकदेवता नरसिंह के कुलगीत श्रीमती रंजू मिश्रा
विष्णु के चतुर्थ अवतार भगवान् नरसिंह लोकदेवता हैं। आज भी गोसांई के रूप में इनकी आराधना होती है। इनके गीत विभिन्न मांगलिक अवसरों पर गाये जाते हैं। प्रस्तुत गीत का प्रलेखन करने के क्रम में श्रीमती मिश्रा से जानकारी मिली कि मधुबनी जिला के लालगंज गाँव में इनके मायके में ब्राह्मण परिवार के साथ-साथ हलुआई परिवार के भी गोसांई नरसिंह हैं। श्रीमती मिश्रा ने पारम्परिक रूप से प्राप्त इन दो गीतों का प्रलेखन किया है। अन्य क्षेत्रों से भी इस प्रकार के कार्य अपेक्षित हैं।
12. आनन्द-रामायण-कथा- आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं। – प्रधान सम्पादक
14. शास्त्राचार्य विन्ध्येश्वरी प्रसाद शास्त्री- श्री जयदेव मिश्र
बिहार की भूमि विद्वानों तथा साहित्यकारों के चर्चित रही है। याज्ञवल्क्य, बाणभट्ट, कालिदास की इस धरा पर आधुनिक काल में भी कतिपय ऐसे संस्कृत भाषा के कवि-महाकवि हुए हैं, जिनके बारे में जानना अभी बाँकी है। गंडक से पश्चिम तथा गंगा से उत्तर का क्षेत्र अभीतक विद्त्परम्परा के लिए इसलिए प्रसिद्धि नहीं पा सकी है, क्योंकि वहाँ गहन सर्वेक्षणात्मक कार्य नहीं हुआ है। विशेष रूप से संस्कृत साहित्य साहित्य के इतिहास में हमें अनेक ऐसे नाम नहीं मिलते हैं, जिसकी रचनात्मकता का स्तर किसी से कम नहीं है। वस्तुतः ईसा की द्वितीय सहस्राब्दी के काल को रूढ रूप से संस्कृत साहित्य के लिए अवनति काल माननने के कारण हम केवल प्रथम सहस्राब्दी के कवियों पर पिष्टपेषण करते रहे हैं। आज आवश्यकता है कि संस्कृत साहित्य का अद्यतन सर्वेक्षणात्मक इतिहास लिखा जाए, जिससे शास्त्राचार्य विन्ध्येश्वरी प्रसाद शास्त्री सदृश विद्वानों से हम परिचित हो सकें। एसे कविवर तथा शास्त्राचार्य के पुत्र श्री जयदेव मिश्र को धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने एक परिचयात्मक लेख लिखा है। हलाँकि इस लेख में उनके कृतित्व पर प्रामाणिक विवरण नहीं है, तथापि व्यक्तित्व के सम्बन्ध में किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती है।
15. बिहार : सीता तीर्थ-स्थल ( भाग – 3 ) श्री रवि संगम
बिहार में जगज्जननी सीता से सम्बन्धित तीर्थ-स्थलों एवं मन्दिरों के विषय पर केन्द्रित शंखला का यह अंतिम अंश है। इसमें ऐसे स्थलों का विवरण दिया गया है, जिनके सम्बन्ध में स्थानीय जनश्रुतियाँ प्रभावी रही है। “इस अंक में श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद, देवी सीता सहित, पिंडदान हेतु बिहार की यात्रा एवं देवी सीता के निर्वासन से जुड़े बिहार स्थित स्थलों से जुड़े 7 जिले (पटना, राजगीर, नालंदा, अरवल, पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, जमुई व नवादा) ऐसे हैं—जिनका विशेष धार्मिक महत्व है। इनमें कुछ स्थलों का पौराणिक साक्ष्य है और कुछ स्थल आस्था के अनुसार प्राचीन काल से पूजित हैं। (इस अंक में उन्ही का उल्लेख किया गया है )।”
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक