धर्मायण अंक संख्या 140 तीर्थयात्रा-विशेषांक

अंक 140, फाल्गुन, 2080 वि. सं., 25 फरवरी- 24 मार्च, 2024ई..
श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के रूप में https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।
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अंक की आलेख-सूची एवं विवरण
चरैवेति चरैवेति- सम्पादकीय
यात्रा चाहे वह किसी प्रकार की न हो व्यक्ति को सर्वथा नये परिवेश में जाना पड़ता है, जिसमें वह नये-नये लोगों से मिलता है, नयी नयी घटनाओं से उसका सामना होता है। मार्ग में अपने घर से विपरीत परिस्थिति से वह गुजरता है। कितनी भी सुविधा के साथ वह यात्रा क्यों न करे, वह सर्वथा ‘स्वस्थ’ नहीं रह पाता है। वहाँ सब कुछ नयापन होता है। यही नवीनता उसके लिए रमणीय होती है। नवता ही रमणीयता है। मैदानी इलाके का व्यक्ति छोटी-छोटी पहाड़ियों पर जाकर भी मचल उठता है और असहज अनुभूतियों को समेट कर लौटता है। यही अनुभूतियाँ जब दूसरों को सुनायी जाती है तो दूसरा व्यक्ति भी रोमांचित हो जाता है। यही कारण है कि यात्रा-साहित्य विश्व भर में सबसे अधिक पठनीय माना गया है।
महाकालेश्वर से ओंकारेश्वर- प्रो. (डॉ.) शत्रुघ्न प्रसाद
भारतवर्ष के 12 ज्योतिर्लिंगों में उज्जयिनी के महाकाल अति प्राचीन हैं। महाकवि कालिदास ने भी मेघदूत में आयासपूर्वक इस स्थल का उल्लेख किया है। वे इन्हें चण्डीश्वर के रूप में देखते हैं तथा उनका यक्ष मेघ से अनुरोध करता है कि जब तक सूर्यास्त न हो जाए तब तक उज्जयिनी में महाकाल के पास ठहर जाना और सन्ध्या की पूजा के समय अपनी गरज की सार्थक कर लेना। महाकाल मन्दिर का यह जीवन्त वर्णन है। साथ ही नर्मदातट पर स्थित ओंकारेश्वर या अमलेश्वर महिमामण्डित है। स्वनामधन्य लेखक अपने यात्रा-वृत्तान्त में कुछ प्रश्न भी उठाते हैं, इसके माध्यम से संस्कृतिबोध की दुहाई देते हैं। तो क्या धर्म और संस्कृति में कोई समन्वय है? इसी सन्दर्भ में यह आलेख महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
केदारनाथ यात्रा -एक संस्मरण- डॉ. शैलकुमारी मिश्र
यह आज से 50 वर्ष पूर्व का यात्रा-वृत्तान्त है, जब बहुत साधन नहीं थे। उसमें भी निष्ठावान् एवं नियमों का दृढ़ता से पालन करने वाले विद्वान् पिता के साथ एक बहू, एक पुत्री तथा एक शिशु की माँ की यात्रा का वृत्तान्त रोमांचित करता है। रास्ते में भटक जाना फिर एक कुत्ता के द्वारा रास्ता दिखाना- सब कुछ विशिष्ट है। यात्रा में हमारी मान्यता है कि भटके हुए यात्री की सहायता करने उन्हें सही मार्ग दिखाने के लिए देवाधिदेव महादेव अपने गण भैरव को कुत्ता के रूप में भेज देते हैं। बहुत स्थलों पर यह मान्यता है। देवघर की काँवर यात्रा में भी लोग यह मानते हैं। हालाँकि अब तो इतने मार्ग-निर्देश बोर्ड लग दिए गये कि वह अनुभूति ही समाप्त होती जा रही है। हम आज तीर्थयात्रा को व्यावहारिक रूप से पर्यटन में बदलते जा रहे हैं, जो धार्मिक परम्परा पर आघात है।
कंबुज में वन्दना के स्वर- डॉ. श्रीकृष्ण “जुगनू”
भारतीय परम्परा के वास्तुशास्त्री जिन्होंने संस्कृत के वास्तु सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों का अनुवाद तथा सम्पादन किया हो, वे जब किसी दुनियाँ के आश्चर्यजनक पराचीन वास्तुशिल्प को प्रत्यक्ष देखें तो निश्चित रूप से उनकी दृष्टि आम लोगों से अलग होगी। कंबोडिया के अंगकोरवाट मन्दिर का यह यात्रा-वृत्तान्त ऐसा ही है। वहाँ रामायण के चित्र भित्तियों पर उत्कीर्ण हैं। जुगनूजी ने लिखा है “मैं जब कंबोडिया के अंगकोरवाट मंदिर में खड़ा होकर उसकी भित्तियों को देख रहा था तब मेरा मन कैलाश मन्दिर, अलोरा गुफा और नागदा मंदिर की भित्तियाँ देख रहा था। मेरा चित्त तब उत्तररामचरित में रमा-रमा-सा था।” अंगकोरवाट में विष्णु की प्रतिमा दर्शनीय है। आठ भुजाओं वाले विष्णु यहाँ प्रतिष्ठित हैं। लेखक की मान्यता है कि कम्बोडिया के भित्तिचित्रों का अवलोकन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि कलाकारों ने राम और श्याम को एक धातल पर चित्रित किया है। यहाँ यदि रामायण के दृश्य हैं तो श्रीकृष्ण की गोवर्द्धन लीला के उच्चित्रण भी हुए हैं। यदि यहाँ ध्वजादण्ड की परम्परा नहीं रही है तो उसका भी सटीक कारण लेखक ने दिया है।
माँ के चरणों की ओर- आचार्या कीर्ति शर्मा
तीर्थयात्राओं के कुछ ऐसे संस्मरण होते हैं, जिनमें केवल संयोग होता है। जिससे मिलने की बात हम सोच कर चलते हैं उससे भेंट नहीं हो पाती, लेकिन कोई दूसरा ही मिल जाता है जो अपेक्षा से अधिक सहायक सिद्ध हो जाता है। इसे हम क्या मानें? यही पर आकर हमारी निष्ठा निर्णायक हो जाती है। बुद्धिवाद की दृष्टि से तो से संयोग माना जाएगा लेकिन दैवी शक्ति के प्रति निष्ठा हो तो यह तीर्थयात्रा की सफलता कही जाने लगी है। लेखिका को अपनी यात्रा के क्रम में ऐसी अनुभूति हुई है। विन्ध्याचल एवं मुण्डेश्वरी- ये देवी के ऐसे दो प्रसिद्ध तीर्थस्थल हैं, जो पर्वतीय सौन्दर्य के साथसाथ यात्रा में होने वाले रोमांच से भरे हुए हैं। मुण्डेश्वरी बिहार के कैमूर जिले में भभुआ से 9 कि.मी. एकल पवरा पहाड़ी पर अवस्थित प्राचीनतम जीवित मन्दिर है, जहाँ मन्दिर के गर्भगृह में मुखलिंग के रूप में शिव विराजित हैं। यहाँ माता मुण्डेश्वरी को समर्पित अहिंसक बलि लोगों को रोमांचित करता है, जब जीवित छाग माता सामने अर्पित किए जाने पर निःस्पन्द हो जाता है। इसी प्रकार गुप्त नवरात्र में विन्ध्याचल की महिमा बढ़ जाती है।
बुग्यालों और पर्वत शिखरों पर- डॉ. कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव
हिमालय के शिखरों पर देवता विराजते हैं यह मान्यता भारत में रही है। लोक मान्यता है कि आज जहाँ बद्रीनाथ का दर्शन होता है वहाँ से हटकर भगवान् रुद्रनाथ के मन्दिर में दर्शन देंगे। अतः रुद्रनाथ को हम ‘भविष्यबद्री’ कहा जाता है। उत्तराखण्ड के चमोली जिले में स्थित भगवान शिव का रुद्रनाथ जी का मन्दिर पंचकेदार में से एक जाना जाता है। यह भी मान्यता है कि यहाँ भगवान् शिव के मुख की पूजा होती है जबकि उनका सम्पूर्ण स्वरूप पशुपतिनाथ काठमाण्डू में अवस्थित है। लेखक ने अपनी यात्रा के क्रम में अनुभव किया है कि ऐसे भयानक एवं दुर्गम रास्ते पर ईश्वरीय शक्ति की कृपा के विना यात्रा सम्भव नहीं है। दुर्गम पर्वतमालाएँ और गहरी घाटियाँ यहाँ भय उत्पन्न करती है। उस पर से हाड़ गला देने वाली सर्दी आधुनिक सुविधाओं के रहते भी बाधा पहुँचाती है। ऐसे में कल्पना की सकता है कि आज से सौ वर्ष पहले किस परिस्थिति में तीर्थयात्री यहाँ पहुँचते रहे होंगे।
वैष्णोदेवी की वह यात्रा- पं. भवनाथ झा
सन् 1998ई. की घटना है। उन दिनों मैं मोकामा शहर के बगल में स्थित औंटा गाँव के एक सरस्वती शिशु मन्दिर में संस्कृत का अध्यापक था। कुछ दिनों तक तो मैं औंटा में ही एक कमरा में रहा। वह कमरा एक अभिभावक के द्वारा उपलब्ध कराया गया था, जिनके बच्चे को मैं एक-दो घंटा पढ़ा देता था। इन्हीं के घर खाना-पीना भी हो जाता था। मैं चूँकि संस्कृत का अध्येता था तो मुझे गाँव के लोग पुरोहिताइ कराने पर जोर डालने लगे। कभी-कभार मुझे अनिच्छा से जाना भी पड़ता था। अपनी बिगड़ती छवि को देखकर मैंने मोकामा शहर में आवास रखने का फैसला किया।
अनजाने रास्ते, अनजानी चुनौतियां… श्री रवि संगम
यह एक अलग प्रकार का आलेख है। इसमें तीर्थयात्रा तो है पर उद्देश्य है सर्वेक्षण और फोटोग्राफी। पर रोमांचक यात्रा के दौरान विपरीत परिस्थिति में जब कहीं से अचानक सहायता मिल जाती है तो मन के अंदर की दैवी आस्था बाहर आ जाती है। घने जंगल, पहाड़ियाँ की शृंखलाएँ, घाटियाँ, घाटियों में बहते झरने, दूर दूर तक बस्ती का कोई नामोनिशान नहीं- ऐसे दुर्गम रास्ते पर वर्षा के कारण यदि सुनसान शिव मन्दिर में रात बितानी पड़े और वहाँ अचानक खाने-पीने का भी इन्तजाम हो जाए और रात्रि के अन्त में एक चमकीला प्रकाशपुंज दिखाई पड़े तो स्वाभाविक रूप से हम ईश्वर की कृपा की अनुभूति कर लेते हैं। बिहार के रोहतास जिले का गुप्ताधाम ऐसा ही एक दुर्गम स्थल है, जहाँ जाने के लिए कई पर्वतशृंखलाओं को लाँघने पड़ता है। चेनारी प्रखंड के उगहनि गाँव में स्थित गीता आश्रम के रास्ते से गुप्ताधाम तक लेखक की पैदल यात्रा का वृत्तान्त हमें इन्ही रोमांचक अनुभूतियों से साक्षात्कार कराता है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते- विद्यावाचस्पति महेश प्रसाद पाठक
यह सच है ईश्वरीय तत्त्व हमारे मन में निवास करता है और उसी की छवि हम दृश्य संसार में देखते हैं। तभी तो लेखक ने शिवरात्रि के अवसर पर काशी विश्वनाथ का दर्शन करते समय मात्र श्रीराम का स्मरण करते ही सिन्दूरीवर्ण वाले लिंग का दर्शन कर लिया। क्या बाबा विश्वनाथ ने उन्हें बजरंगबली के रूप में दर्शन दिया था! जबकि दूसरी बार गये तो शिवलिंग का वर्ण सामान्य था। हमें उपर्युक्त तथ्य को समझने में इससे सहायता मिलती है। इसी प्रकार, लेखक की दूसरी यात्रा में सहसा कोई अपरिचित व्यक्ति आता है और सोते हुए लेखक परिवार को जगा जाता है कि आपकी गाड़ी छुटने वाली है। वह कैसे जान गया कि ये सोते हुए लोग उसी गाड़ी से यात्रा करने वाले हैं! यदि हम आस्थावान् हैं तो हमें दैवी शक्ति की अनुभूति होती है।
बालकरूपी भगवान महादेव -डॉ सरोज शुक्ला
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिला में बालकरूप में भगवान् शिव विराजते हैं। ये तीन गाँवों में हैं इनमें से एक बड़ोह गांव, दूसरी फत्तू गांव और तीसरी बालकरूपी गाँव में। एक किसान तीर्थयात्री के द्वारा स्थापित हैं। इनकी स्थापना के प्रसंग लोक-मान्यताएँ हमें चमत्कृत करती हैं। तीर्थस्थानों की स्थापना के प्रसंग में हर स्थल पर कुछ न कुछ मान्यताएँ अवश्य विख्यात हो जाती है, जो इतिहास के रूप में कही जाती है। यह इतिहास नाम लोक अक्सर हमारी आस्था की परीक्षा ले लेती है। हम उन अजीब प्रसंगों को इतिहास मानते हैं या दन्तकथा, किंवदन्ती आदि नामों से पुकार कर उसकी आस्तिकता को चुनौती दे देतें हैं, यह हमारी निष्ठा पर निर्भर करता है। वास्तव में ये लोक-आस्था की कथाएँ होतीं हैं, जो यह मान लेती है कि ईश्वर यहाँ स्वयं इस रूप में विराजमान हैं।
पीड़ा की अनुभूतियों के बीच- श्रीमती प्रीति सिन्हा
मानव मन स्वाभाविक रूप से दया, करुणा तथा प्रेम से भरा होता है। वे तो लोभ, मोह आदि हैं जो शत्रु हैं जो हमें सीधी राह चलने नहीं देते। यात्रा के क्रम में हमारे अंदर परोपकार की भावना तो जग जाती है हम दूसरे की सहायता के लिए वादे कर देते हैं, पर यदि किन्ही कारणों से उसे पूरा नहीं कर सके तो जीवन भर के लिए यह कसक मन में रह जाती है। लेखिका के इस यात्रा-वृत्तान्त में यह चरम बिन्दु है गृद्धकूट पर्वत पर एक असहाय अंधी वृद्धा की सहायता के लिए दिया गया वचन पालन न कर पाने स्थिति में होने वाली छटपटाहट का बखान करती है।
यायावर के बढ़ते कदम और अतीत का अहसास- श्री नवीन कुमार मिश्र
यहाँ लेखक के दो यात्रा-वृत्तान्त हैं। एक में लेखक ने लेखक की अनुभूति तीर्थयात्रा के प्रति अनुराग तथा उसके लिए कष्ट सहन करने की बात है। आज हम सुविधाभोगी हो गये हैं। तीर्थयात्रा में भी आधुनिक सुख-सुविधाएँ खोजने लगे हैं फलतः हम प्रकृति से जुड़ नहीं पाते हैं। हम कल्पना करें कि आज से हजारो वर्ष पूर्व जब हमारे पूर्वज यहाँ आते रहे होंगे तो कैसी स्थिति रही होगी!
दूसरा वृत्तान्त लातेहार के नगर भगवती उग्रतारा मंदिर की यात्रा का है। लेखक ने पत्रकारिता के अनुभव का उपयोग करते हुए यहाँ के मन्दिर की स्थापना से सम्बन्धित इतिहास तथा वर्तमान स्थिति का विवरण दिया है। इस देवी मन्दिर में आज 500 वर्ष पूर्व लिखी पद्धति की पाण्डुलिपि के अनुसार पूजा होती है। मुस्लिम समुदाय के लोग भी यहाँ भक्तिभाव से देवी की पूजा करते हैं। यह उनकी परम्परा है, जिसे वे शताब्दियों से निभा रहे हैं। मन्दिर के पीछे एक मजार है, जिस पर देवी मन्दिर से भेजा गया ध्वज फहराता है। सबकुछ प्राकृतिक है। लेखक ऐसे स्थल की यात्रा कर भावविह्वल हो जाते हैं।
मदुरै और रामेश्वरम की यात्रा- श्री रमणदत्त झा
मन्दिर का परिसर हमारे दर एक सात्विक भाव को जन्म देता है, जिसका उदय होते ही मानवत प्रत्यक्ष हो जाती है। यदि ईश्वरत्व के प्रति हमारी आस्था मजबूत हो तभी ऐसी स्थिति बनती है। यदि हम शिवलिंग पर चढ़ाये गये प्रसाद को चूहा के द्वारा खाते देखें और इसी एक घटना से हमारी आस्था डगमगा जाए तो हमें सोचना चाहिए कि हमारी आस्था पहले से भी नहीं थी। जो पहले से थी ही नहीं, वह क्या डगमगाएगी! ठीक इसके विपरीत, हमें तीर्थयात्रा के दौरान र्मिक अथवा अन्य कारणों से यदि किसी अज्ञात व्यक्ति के द्वारा सहायता मिल जाती है तो हम उसीसे भावविह्वल हो जाते हैं और मान लेते हैं कि उसी ईश्वरत्व के द्वारा हमारी सहायता की गयी है। लेखक ने ऐसी ही एक अनपेक्षित सहायता का उल्लेख किया है, जो उन्हें समुद्र के किनारे पर एक दम्पती के द्वारा मिली थी। उन्होंने ही मन्दिर में दर्शन करते समय भीड़ से बचाने में सहायता की और संयोग से समुद्र के तट से रामेश्वरम् पहुँचाने में भी। आइए पढ़ते हैं यह यात्रा-वृत्तान्त।
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे- श्रीमती रंजू मिश्रा
क्या तीर्थयात्रा में देवता के द्वारा परीक्षा ली जाती है? क्या कभी ऐसी स्थिति आ जाती है जब हम मानवता के कारण दूसरे की सहायता कर बैठते हैं और स्वयं नारकीय स्थिति में पहुँच जाते हैं। ट्रेन के स्लीपर क्लास की यात्रा में इस कल्पनाशील और भक्तिमयी लेखिका के साथ ऐसी ही घटना घटी। छोटे-छोटे बच्चों के साथ रात में यात्रा करती हुई एक शबर-नारी को इन्होंने अपनी सीट के पास जगह दे दी और बच्चों के मल-मूत्र त्याग से सारे लोग परेशान हो गये। फिर भी वह शबर-नारी निर्विकार रही। उसी अवस्था में उसने अपना शृंगार किया। लेखिका की अनुभूति है कि वह कैसी थी जो मल-निर्मल, गंध-सुगन्ध के बीच निर्विकार रही। हम मल के बीच ही तो रह रहे हैं। संसार ही मलमय है। मल-मूत्र के बीच का शृंगार ही तो संसार का सुख है। क्या यह घटना उसी का संकेत ही तो नहीं। भगवान् जगन्नाथ इसी सत्य से तो परिचित करा रहे थे। ट्रेन से उतरते समय उस शबर-नारी की आंखों में लेखिका के प्रति ज्ञापित कृतज्ञता में मानो प्रभु जगन्नाथ की सुदृष्टि का आभास मन को शुकून पहुँचा रहा था कि तुम परीक्षा में सफल हो चुकी हो-
कामं क्रोधं च लोभं च यो जित्वा तीर्थमाविशेत्।
न तेन किंचिदप्राप्तं तीर्थाभिगमनाद् भवेत्॥
केदारनाथ मंदिर की अकल्पनीय शिल्प कलाकृति- श्री संजय गोस्वामी
सन् 2013 में केदारनाथ में भयंकर भूस्खलन हुआ। पानी तथा पत्थर की तेज धारा में सबकुछ बह गया पर केदारनाथ का मन्दिर क्षतिग्रस्त भी नहीं हुआ। एक पत्थर का चट्टा आकर मन्दिर के ठीक सामने इस रकार स्थिर हो गया कि धारा दो भागों में बँट गयी। इसे आज भीम का शिला कहते हैं। आखिर यह भूस्खलन क्यों हुआ, इसके क्या भौगोलिक कारण थे और मन्दिर को की क्षति क्यों नहीं पहुँची इस विषय पर अनेक अटकलें लगायी गयीं। वहाँ की भौगोलिक स्थिति तथा मन्दिर निर्माण के समय बरती गयी सावधानियाँ हमें यह सोचने को विवश कर देती है कि हमारे अतीत में जिन शिल्पियों ने इस मन्दिर का निर्माण किया होगा, उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी भव्य मन्दिर के निर्माण की तकनीक से परिचित रहे होंगे। 21वीं सदी में भी केदारनाथ की भूमि भवन शिल्प के लिए सही नहीं है। यहाँ बर्फ के दबाव से मकान ध्वस्त हो जायेंगे, पर भारतीय परम्परा के वास्तुविद् सूत्रधार ने शिखर के कमल को उलटा बनाकर इस दबाब से मुक्ति की तकनीक निकाल ली थी।
रामचरितमानस में यायावरी- डॉ. विजय विनीत
सूर्यदेव प्रथम यायावर माने गये हैं तभी तो यात्रा को महिमामण्डित करने के लिए सूर्य का उदाहरण ऐतरेय ब्राह्मण के गाथा भाग में दिये गये- “जो बैठा है, उसका ऐश्वर्य बैठ जाता है, खड़े व्यक्ति का ऐश्वर्य खड़ा होता है, जो सोया है, उसका ऐश्वर्य भी सो जाता है, पर चलने वालों का ऐश्वर्य तो चलता ही जाता है। चलने वालों को मधु और स्वादिष्ट गूलर मिल जाते हैं। देखो न, सूर्य की महानता, जो चलते समय कभी आलस्य नहीं करता! कलियुग सोता है, द्वापर-युग जम्भाई लेता है, त्रेतायुग उठ खड़ा होता और सत्ययुग चल प़ड़ता है। जो चलता है उसकी जाँघें फूल-सी हो जाती है, आत्मा फल पाने लायक हो जाती है, उसके सारे पाप श्रम से रास्ते में ही धुल जाते हैं। इसलिए चलते रहो, चलते रहो।” ऐतरेय ब्राह्मण के 32वें अध्याय के ये पद्य यायावरी की महत्ता प्रतिपादित करते हैं। स्पष्ट है कि यायावरी प्राचीन काल से महत्त्वपूर्ण रही है। यहाँ लेखक ने रामचरितमानस के सन्दर्भ में यायावरी प्रतिपादित की है।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक