धर्मायण, अंक संख्या 115, सरस्वती-अंक
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इस अंक के आलेख एवं उनका विवरण
1. सरस्वती श्रुतिमहती महीयताम् -भवनाथ झा
सनातन धर्म में विद्या की देवी के रूप में सरस्वती की पूजा प्राचीन काल से प्रचलित है। यद्यपि वैदिक वाङ्मय में जिस सरस्वती का उल्लेख है, वह एक नदी है। वह जल-देवता के रूप में प्रसिद्ध है। ऋग्वैदिक ऋषि कवष ऐलूष की कथा के प्रसंग में सरस्वती की चर्चा है, किन्तु वहाँ उसे जल-देवता का एक रूप माना गया है। अलबत्ता, ऋग्वेद के वाक् विषयक मन्त्रों में वाक् को देवी माना गया है, किन्तु वहाँ उन्हें पुस्तक और वीणा धारण करनेवाली नहीं माना कहा है।
2. भगवती सरस्वती : नदी से प्रतिमारूप में प्रतिष्ठा -डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि सरस्वती नदी का तट वैदिक ज्ञान का आदि केन्द्र रहा है। इसके दोनों तटों पर वैदिक ऋषियों ने मन्त्रों का दर्शन किया है तथा अनेक प्रकार के यज्ञों का आयोजन किया। शतपथ ब्राह्मण में राजा के राज्यभिषेक हेतु लिये जाने वाले 17 प्रकार के जलों में सर्वप्रथम सरस्वती नदी का जल लेने का विधान है। इससे स्पष्ट है कि शतपथ ब्राह्मण काल में सरस्वती नदी विलुप्त नही हुई थी, वह प्रवाहित हो रही थी। तांड्य-ब्राह्मण में सरस्वती नदी के विनशन स्थान पर लुप्त होने एवं प्लक्ष प्रस्रवण स्थान पर पुनः दृश्य होने का उल्लेख है। अतः इससे स्पष्ट होता है कि शतपथ ब्राह्मण काल में सरस्वती नदी प्रवाहित हो रही थी, जिससे जल की मात्र कम हो रही थी। इसके बाद जब आर्य वहाँ से चलकर पूर्व की ओर बढ़े तो अपने मूलस्थान की स्मृति में उन्होंने सरस्वती को देवी के रूप में मानकर उन्हें अपने पूर्वजों के उत्कृष्ट ज्ञान का प्रतीक मानने लगे। यह संभावना अधिक है कि सरस्वती के देवत्व का विकास इस रूप में हुआ होगा। इस विकास क्रम को यहाँ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विवेचित किया गया है।
3. संस्कृत काव्यों में सरस्वती का स्वरूप -डा. लक्ष्मीकान्त विमल
विद्यादायिनी सरस्वती की कृपा की इच्छा भारत के सभी कवियों तथा शास्त्रकारों की रही है। बौद्ध एवं जैन शास्त्रकार भी ग्रन्थों के आरम्भ में सरस्वती का स्मरण कर उनकी कृपा पाने के लिए स्तुति की रचना करते रहे हैं। संस्कृत के कतिपय कवियों ने तो अपनी रचना में सरस्वती को एक पात्र के रूप में चित्रित कर उने मुख से गूढ़ ज्ञान का भी प्रतिपादन कराया है। महाभारत के आरम्भ का सर्वाधिक प्राचीन श्लोक जो परम्परा से किसी भी आर्ष ग्रन्थ के पारायण के लिए मंगलाचरण के रूप में रूढ़ हो चुका है, देवी सरस्वती का उल्लेख करती है। दण्डी ने भी चतुर्मुख-मुख-कमल के समूह के बीच हंस के समान भ्रमण करने वाली सरस्वती का स्मरण कर अपने मन में रमण करते रहने के लिए प्रार्थना की है। कृष्णमिश्र तथा गोकुलनाथ उपाध्याय में तो अपने दार्शनिक नाटक में सरस्वती को पात्र के रूप में चित्रित कर उन्हीं के मुख से उपदेश दिलाया है। इस प्रकार संस्कृत के ग्रन्थकारों ने सरस्वती को किस रूप में चित्रित किया है, यह यहाँ गवेषणीय है।
4. वर दे, वीणावादिनि वर दे -डॉ. विजय विनीत
रमणीयता वहीं है, जो क्षण-क्षण नवीन हो रही हो। भारतीय कवियों के बीच यह प्रसिद्धि रही है- क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः। चाहे हम समाज को रमणीय बनाना चाहते हों चाहे अपने काव्य को, हमें सतत नवीनता की अपेक्षा होती है। हिन्दी के प्रख्यात कवि निरालाजी ने अपने भारतीय समाज की रमणीयता के लिए इसी नवीनता की कामना की थी तथा वीणावादिनी माँ सरस्वती से नव गति, नव लय, नव ताल, नव छन्द आदि से युक्त स्वर देने की प्रार्थना की है। महाप्राण निराला की यह हिन्दी कविता 20वीं शती की सबसे प्रसिद्ध ‘सरस्वती-वंदना’ रही है। इस छोटे से गीत अथवा कविता में छायावाद के प्रमुख स्तम्भ निराला ने अनेक गूढ़ अर्थों की व्यंजना करायी है। ‘नव’ शब्द के बारम्बार प्रयोग से शब्दध्वनि का भी चमत्कार यहाँ देखने को मिलता है, जो श्रोताओं को नवीनता के एक उल्लासमय वातावरण में स्थापित कर देता है। इसी विशिष्ट कविता पर अर्थतात्त्विक विवेचन यहाँ प्रस्तुत है।
5. सरस्वती का सप्त सारस्वत रूप -श्री महेश प्रसाद पाठक
प्राचीनतम वैदिक ज्ञान के केन्द्र की सरस धारा सरस्वती नदी जब ऋषियों से दूर चली गयी तो उन्हें खोजने का प्रयत्न हुआ। जब आर्य वहाँ से पूर्व की ओर चले तो उन्होंने सरस्वती की दिव्य मूर्ति की कल्पना की तथा उन्हें आराध्या मान लिया। धीरे धीरे सनातन धर्म की विभिन्न शाखाओं में विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती अनेक रूप में कल्पित की जाने लगी। वेद, आगम, तन्त्र-साहित्य, लोक-साहित्य में उनका स्वरूप परिवर्तित होने लगा, लेकिन सभी रूपों में वे विद्यादायिनी बनी रहीं। तन्त्र साहित्य में एकजटा, नीलसरस्वतीस, महासरस्वती, तारा आदि के रूप में उनकी उपासना अक्षुण्ण होती रही। न केवल सनातन-परम्परा में अपितु बौद्ध एवं जैन परम्परा में भी सरस्वती का स्थान बना रहा। तारा को भी भारती के रूप में पूजने की बात हम शिलालेख में भी पाते हैं। यहाँ सरस्वती के स्वरूप में परवर्ती विकास का विवेचन हुआ है।
6. मकर संक्रांति एवं वसंत पंचमी -पुनीता कुमारी श्रीवास्तव
लोक-परम्परा जीवन्त होती है, इसीलिए वह किसी भी शास्त्र से महत्त्वपूर्ण होनी चाहिए। वह बहती नदी की धारा है तो शास्त्र कलश में रखा हुआ स्थिर जल। अतः हर काल में लोक-परम्परा का प्रलेखन आवश्यक हो जाता है। इसी दृष्टि से हमने यहाँ माघ मास के दो महत्त्वपूर्ण पर्वों का प्रलेखन कराने का प्रयास किया है।
शुभकामना है कि पुनीताजी का लेखन इसी प्रकार आगे बढ़ता रहे। इस पत्रिका में नये लेखकों को भी प्रश्रय देकर लेखन के प्रति उनका मनोबल बढ़ने के लिए हम दृढ़संकल्प हैं।
7. सरस्वती पूजा-विधि (संकलित)
आज सरस्वती पूजा की अनेक विधियाँ एवं पद्धतियाँ उपलब्ध हैं, जिनमें भारी-भड़कम वेद के मन्त्रों को जोड़कर उन्हें सामान्य उपासक से एकदम दूर कर दिया गया है। इसके विपरीत हमारे पूर्वजों ने आगम-पद्धति से ऐसी विधि बतलायी थी, जिससे सभी लोग पूजा कर सकें तथा पौराणिक मन्त्रों के द्वारा इष्टदेवता की स्तुति कर सकें। हम धीरे-धीरे उस पद्धति को भूलते जा रहे हैं। धर्मायण की अंकसंख्या में 15 में भी सरस्वती की एक पूजा विधि प्रकाशित हुई थी। इस अंक में भी हम म.म. रुद्रधर, म.म. रघुनन्दन तथा पं. रमाकान्त ठाकुर के द्वारा समर्थित पूजा पद्धति दे रहे हैं जिसमें सरस्वती से सम्बन्धित वे मन्त्र मिलते हैं, जिनका उल्लेख लक्ष्मीधर ने 12वीं शती में भी किया है।
8. भक्ति की चरम अवस्था शरणागति का विवेचन -शत्रुघ्नश्रीनिवासाचार्य पं. शम्भुनाथ शास्त्री वेदान्ती
सनातन परम्परा में भक्ति को प्रधानता दी गयी है। भक्ति में सरलता है, किन्तु मन की उच्च अवस्था की आवश्यकता होती है अतः वह एक साधना है। भक्ति के नव अंगों का प्रतिपादन किया गया है, जिसे सभी शाखाएँ स्वीकार करती है। वस्तुतः श्रवण से लेकर आत्मनिवेदन तक अन्य जितने सारे अंग हैं वे सभी अन्तिम आत्मनिवेदन में जाकर अपने उत्कर्ण को प्राप्त करते हैं। उस आत्मनिवेदन के बाद कुछ अवशेष नहीं रह जाता है। जैसे सभी नव रस शान्तरस में जाकर समाहित हो जाते हैं उसी प्रकार नवधा भक्ति आत्मनिवेदन में समाहित होती है और वही शरणागति की अवस्था है। परमहंस विष्णुपुरी में भक्ति के इन अंगों को परिभाषित करते हुए इसका व्याख्या की है। इसी व्याख्यान का निचोड़ यहाँ प्रस्तुत है। विशेष रूप से पादसेवन, वंदन, दास्य तथा आत्मनिवेदन का विवेचन यहाँ किया गया है।
9. बिहार की नदियों से जुड़े सीता-तीर्थ-स्थल -श्री रवि संगम
बिहार प्रान्त धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहाँ भारत की शायद ही कोई धार्मिक परम्परा छूटी हो जिससे सम्बद्ध स्थल यहाँ न हों। रामायण, महाभारत तथा पौराणिक साहित्य से सम्बन्धित अनेक तीर्थ स्थल तो यहाँ हैं ही, अपितु, बौद्ध, जैन, सिख, सूफी, ईसाई आदि धाराओं से सम्बन्धित भी अनेक स्थल यहाँ हैं। यदि हम रामकथा से सम्बद्ध स्थलों की बात करें तो यहाँ 23 जिलों में वे फैले हुए हैं। इसमें भी विशेष रूप से सीता के सम्बन्धित अनेक स्थल हैं, जिन्हें तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। इनमें से नदी के तटवर्ती सीता-क्षेत्रों को यहाँ संकलित किया गया है।
विशुद्ध पर्यटन साहित्य की शैली में लिखा गया यह आलेख उन जनश्रुतियों पर भी प्रकाश डालता है, जिनका उल्लेख किसी प्रामाणिक ग्रन्थों में नहीं है, लेकिन उस स्थल पर जाने के बाद आम जनता उन आख्यानों के कारण उन स्थलों से जुड़ी हुई हैं। पर्यटकों को स्थानीय लोगों के द्वारा जो सूचनाएँ दी जाती हैं, उनकी भी उल्लेख यहाँ किया गया है। अगले अंक में भी हम अन्य सीता से जुड़े अन्य स्थानों का अवलोकन करेंगे।
10. आनन्द-रामायण-कथा -आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं। – प्रधान सम्पादक
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक