धर्मायण, अंक संख्या 117, भरत-चरित विशेषांक
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आलेख के शीर्षक एवं विषयवस्तु का विवरण
1. अवधी काव्य ‘भरत-विलाप’ का एक विवेचन –भवनाथ झा (सम्पादकीय)
त्याग एवं भ्रातृप्रेम के प्रतीक महात्मा भरत के वृत्तान्त पर स्वतंत्र काव्य की रचना कम हुई है। अतः अवधी का एक काव्य जिसकी रचना का श्रेय कभी गोस्वामी तुलसीदास को दिया जाता है तो कभी उनसे भी पूर्ववर्ती कवि ईश्वरदास या ईश्वरीदास को। रचना का सम्पादन होकर प्रकाशन भी हुआ है, किन्तु तुलसीदास की भनिता वाले पदों से संबलित प्रतियाँ भी अल्प नहीं हैं।अतः प्रस्तुत भरत–विलाप या भरत-मिलाप फिर से गवेषणीय हो गया है।
2. भरत-चरित का आध्यात्मिक पक्ष –पं. शम्भुनाथ शास्त्री
भारत में त्याग, प्रेम, तपस्या की शिक्षा देने के लिए भरत का आविर्भाव हुआ है। राम उन्हें राज्य का भोग करने का आदेश करते हैं, किन्तु भरत उसका त्याग कर राम को ही वन से लौटा लाने के लिए अनशन पर बैठ जाते हैं। धरना और अनशन का प्राचीनतम उल्लेख हमें भरत के प्रसंग में देखने को मिलता है। फिर भी राम अपने वचन से डिगते नहीं तो वसिष्ठ के संकेत पर भरत चरणपादुका लेकर लौट आते हैं और उसे ही सिंहासन पर स्थापित कर स्वयं तपस्वी वेष में शासन करते हैं। भरत के चरित का यह एक पक्ष है, जिससे हम सभी परिचित हैं। दूसरा आध्यात्मिक पक्ष है कि महात्मा भरत भी अवतारी पुरुष थे। वे भगवान् विष्णु के पाञ्चजन्य शङ्ख के अवतार थे। उनका भी जन्म देवांश के रूप में हुआ था। साथ ही, वे श्रीराम के समान ही सभी गुणों से सम्पन्न थे।
3. विष्णुधर्मोत्तरपुराण में श्रीभरत चरित – डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के छोटे भाई, उनके अनन्य भक्त, सेवक, तपस्वी, त्यागी, महात्मा भरत की चर्चा सर्वविदित है। किन्तु योद्धा तथा समरविजेता का रूप बहुत चर्चित नहीं रहा है। राम के राज्याभिषेक के पश्चात् राम के कहने पर भरत के मामा युधाजित् सिन्धु नामक अपना राज्य भरत दे देते हैं। वहाँ पर गन्धर्वों का उपद्रव रहा करता था। कालिदास ने रघुवंश (15.87–89) में लिखा है कि भरत ने गन्धर्वों को परास्त कर स्वयं हाथों में वीणा पकड़ ली, अर्थात् शान्तिपूर्वक गायन कला में लीन हो गये। उस सिन्धु देश राजधानी तक्षशिला बसायी जहाँ अपने पुत्र तक्ष को राजा बना दिया। फिर पुष्कलावती राजधानी बनायी जहाँ पुत्र पुष्कल को राजा बनाया और स्वयं राम की सेवा में अयोध्या लौट आये। भरत के इस राजनैतिक पक्ष पर विष्णुधर्मोत्तर पुराण में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है।
4.भरतजी का बारहमासा –डॉ. अनुभूति चौहान
सनातन धर्म की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि आराध्य आराधकों के परिजन बन जाते हैं। वे इस प्रकार लोक में घुलमिल जाते हैं कि सहज स्वाभाविक गीतों के माध्यम से वे अभिव्यक्त किये जाते हैं। श्रद्धालुगण उनका जन्मदिन मनाते, छठी मनाते हैं, उन्हें झूला पर झुलाते हैं, उन्हें गीत गाकर सुलाते, उठाते, खिलाते, हाथ धोते स्वयं को आराध्य के साथ एकाकार कर लेते हैं। इस प्रकार भक्त कभी स्वयं को अकेला नहीं समझते। बारहमासा गीतों की एक प्रसिद्ध लोकविधा है, जिसमें सभी 12 महीनों के अनुरूप आचरण का भाव होता है। राम के अनुज, त्याग, तपस्या, विनय एवं श्रीराम के दास्यभाव के मूर्त रूप महात्मा भरत भी इन लोकगीतों के चरित–नायक बने हैं, यह उनके दिव्य रूप को स्पष्ट करता है। यहाँ पश्चिम भारत का एक भरत–बारहमासा प्रस्तुत है।
5. वेंकटार्य कृत ‘भरतज्यैष्ठ्यनिर्णय’ ग्रन्थ–परिचय (लक्ष्मण बड़े भाई थे या भरत?)– डा. ममता मिश्र दाश
यद्यपि वाल्मीकि–रामायण के दाक्षिणात्य पाठ में स्पष्ट रूप से यह निर्देश कर दिया गया है कि श्रीराम के जन्म के 18 घंटा बाद भरत का जन्म हुआ तथा अलगे 6 घंटा के बाद लक्ष्मण एवं शत्रुघ्न का जन्म हुआ। लेकिन भास, कालिदास जैसे प्राचीन ग्रन्थकारों ने लक्ष्मण को ज्येष्ठ मान लिया है। फलतः रामायण के टीकाकारों के समक्ष दोनों पक्ष रहे हैं। सबने अपने अपने ढंग से भरत को ज्येष्ठ सिद्ध किया है। फलतः इस विषय पर विमर्श की आवश्यकता देखते हुए दक्षिण भारत के वाधूल गोत्रोत्पन्न श्रीनिवासार्य पुत्र वेंकटार्य ने ‘भरतज्यैष्ठ्यत्वनिर्णय’ नामक एक ग्रन्थ की ही रचना कर डाली। इस अप्रकाशित ग्रन्थ की तीन पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं। इन पाण्डुलिपियों के आधार पर पाठ तैयार किया जा सकता है। इसमें भी वेंकटार्य ने भरत को ही ज्येष्ठ माना है। पाण्डुलिपि-शास्त्र की राष्ट्रीय स्तर की विदुषी ने विवरणी में उपलब्ध सामग्री के आधार पर इस ग्रन्थ का विवरण यहाँ प्रस्तुत किया है।
6. त्याग के प्रतीक महात्मा भरत– डा. मोना बाला
महात्मा भरत त्याग के प्रतीक हैं। माता कैकेयी उनके लिए विशाल साम्राज्य की व्यवस्था करती है, लेकिन वे उसे ठुकराकर श्रीराम को वन से लिवा लाने के लिए नगरवासियों के साथ चल पड़ते हैं। वाल्मीकि-रामायण में इस स्थल पर भरत का राज्य प्रबन्धन अद्भुत है। वाल्मीकि ने दिखा दिया है कि भरत कुशल प्रबन्धक हैं। वे जिस प्रकार अयोध्या से चित्रकूट तक का मार्ग बनबाते हैं, कुशल कारीगरों और श्रमिकों की व्यवस्था करते हैं, वह उनके राज्य-प्रबन्धन का उत्कृष्ट उदाहरण है। लेकिन वे चित्रकूट पहुँचकर श्रीराम को वापस लोटाने के लिए हर प्रकार से प्रयास करते हैं, यहाँ तक कि अनशन और धरना पर भी बैठ जाते हैं। अन्त में श्रीराम के आदेश पर उनकी चरणपादुका लेकर लौटते तो हैं पर अयोध्या न जाकर नन्दिग्राम में सिहासन पर राम की चरणपादुका को रखकर अनुचर की तरह प्रजा का पालन मुनि वेष में करते हैं। यह भरत के त्याग की पराकाष्ठा है। डा. मोना बाला का यह आलेख अंक 82 में भी पूर्व प्रकाशित है।
7.भास के नाटकों में भरत चरित– डा. रामविलास चौधरी
महात्मा भरत त्याग के प्रतीक हैं। माता कैकेयी उनके लिए विशाल साम्राज्य की व्यवस्था करती है, लेकिन वे उसे ठुकराकर श्रीराम को वन से लिवा लाने के लिए नगरवासियों के साथ चल पड़ते हैं। वाल्मीकि-रामायण में इस स्थल पर भरत का राज्य प्रबन्धन अद्भुत है। वाल्मीकि ने दिखा दिया है कि भरत कुशल प्रबन्धक हैं। वे जिस प्रकार अयोध्या से चित्रकूट तक का मार्ग बनबाते हैं, कुशल कारीगरों और श्रमिकों की व्यवस्था करते हैं, वह उनके राज्य-प्रबन्धन का उत्कृष्ट उदाहरण है। लेकिन वे चित्रकूट पहुँचकर श्रीराम को वापस लोटाने के लिए हर प्रकार से प्रयास करते हैं, यहाँ तक कि अनशन और धरना पर भी बैठ जाते हैं। अन्त में श्रीराम के आदेश पर उनकी चरणपादुका लेकर लौटते तो हैं पर अयोध्या न जाकर नन्दिग्राम में सिहासन पर राम की चरणपादुका को रखकर अनुचर की तरह प्रजा का पालन मुनि वेष में करते हैं। यह भरत के त्याग की पराकाष्ठा है। डा. मोना बाला का यह आलेख अंक 82 में भी पूर्व प्रकाशित है।
8. युगावतार श्रीराम के श्रीचरणचिह्न की व्यापकता– श्री महेश प्रसाद पाठक
महर्षि वाल्मीकि के बाद संस्कृत के प्राचीनतम नाटककार भास हैं, जिन्होंने रामकथा पर लिखा है। इनके नाटकों की पाण्डुलिपि दक्षिण भारत से मिली थी, जिनमें से दो नाटक– प्रतिमा एवं अभिषेक रामकता पर आधारित हैं। अभिषेक नाटक में तो नहीं किन्तु प्रतिमा-नाटक में महात्मा भरत का विवरण उपस्थित होता है। इस नाटक की सबसे बड़ी विशेषता है कि इन्होंने कैकेयी की छवि को अत्यधिक उदात्त बना दिया है। भास की मान्यता है कि दशरथ का शाप अटल था। पुत्र वियोग में उनकी मृत्यु निश्चित थी। भरत तथा शत्रुघ्न नाना के घर ही दूर रह रहे थे। लक्ष्मण राम के विना कहीं दूर जाते ही नहीं तब तो राम की मृत्यु की आशंका बनती जा रही थी, ऐसी स्थिति में उस आशंका के निवारण के लिए केकैयी ने कलंक अपने सर लेकर राम को बचा लिया। भास की अद्भुत परिकल्पना है। विस्तार से पढ़े–
9.भरत की सौगन्ध (कविता) –आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री
‘धर्मायण’ पत्रिका का यह सौभाग्य रहा है कि इसके लिए आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री-जैसे महान् रचनाकार लिखते रहे हैं। इनकी कृतियाँ ‘मानस का स्थापत्य’ (अंक 7-8), ‘सुन्दरे किं न सुन्दरम्!’ (अंक 9-31), ‘राम : विविध आयाम’ (अंक 32-37), ‘सुन्दरकाण्ड का अतिशयित सौन्दर्य’ (अंक 30) प्रकाशित हुई हैं। इन विशिष्ट आलेखों तथा ग्रन्थों के अतिरिक्त अनेक कविता तथा निबन्ध भी प्रकाशित हैं। प्रस्तुत कविता धर्मायण के प्रवेशांक में प्रकाशित हुआ है।
10.अध्यात्म रामायण में भरत का दिव्य चरित– डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य
रामकथा को आध्यात्मिक स्वरूप में प्रस्तुत करने में अध्यात्म–रामायण अन्वर्थक अतः सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने रामानन्दाचार्य को इसका रचना का श्रेय देते हैं। इस ग्रन्थ में मध्यकालीन भक्ति–परम्परा के विस्तार में भक्ति का विवेचन हुआ है। प्रस्तुत लेखक ने यहाँ ग्रन्थकारों का आह्वान किया है कि वे अध्यात्म–रामायण से श्रवण, कीर्तन आदि नवधा भक्ति के अंगों कों की व्याख्या करने वाले श्लोकों का संकलन कर उसका विवेचन कर परमहंस विष्णुपुरी (विशेष द्रष्टव्य ‘धर्मायण’ अंक संख्या 114) की रचना ‘भक्तिरत्नावली’ की शैली में एक ग्रन्थ का निर्माण करें। लेखक का मानना है कि भरत के सन्दर्भ में ही उन्हें सारे अंगों की व्याख्या करने वाले श्लोक मिल जायेंगे।
11. श्रीभरतकवच – आनन्द-रामायण से कलित
भगवान् विष्णु के शङ्ख पाञ्चजन्य के अवतार, दिव्य भरत श्रद्धालुओं के न केवल अनुसरणीय पात्र रहे हैं, बल्कि प्राचीन काल से इनके मन्त्र आदि भी मिलते हैं। भरत को भी पूज्य देवता के रूप में प्रतिष्ठा मिली है। अगस्त्य–संहिता में रामार्चन के आवरण देवता के रूप में इनकी पूजा के लिए अर्घ्यमन्त्र मिलते हैं तो ‘आनन्द–रामायण’ में हमें ‘सुतीक्ष्णप्रोक्त भरत–कवच’ मिले हैं। इस कवच में भरत के दिव्य स्वरूप का सांगोपाङ्ग वर्णन आया है तथा अन्य कवचों की तरह ही इसकी भी फलश्रुति कही गयी है। इन्हें भरतखण्डेश्वर कहा गया है। फिर भी वे सप्तद्वीपेश्वर श्रीराम के दास माने गये हैं। यहाँ आनन्द–रामायण के मनोहरकाण्ड के 15वें सर्ग से यह कवच प्रस्तुत है।
12. आनन्द-रामायण-कथा –आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत–सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण–कथा हमने उनके जीवन–काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं।– प्रधान सम्पादक
13. बिहार : सीता-तीर्थ स्थल –श्री रवि संगम
बिहार राज्य पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। यहाँ के पर्यटन-स्थलों पर विमर्श करने पर स्पष्ट होता है कि सभी सम्प्रदायों के स्थल यहाँ हैं जो विविधता में एकता दिखाते हुए हमारे भाइ–चारे को मजबूत करते हैं। यहाँ महाभारत, रामायण, बौद्ध, जैन, सिख, सूफी, शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर आदि सभी परम्पराओं के स्थल पर्यटकों को आकृष्ट करते हैं।बिहार में सीता माता से जुड़े स्थलों की बड़ी संख्या है। आलेख की दृष्टि से इन स्थलों को तीन भागों में बाँटा गया। नदी के किनारे स्थित स्थलों को एक आलेख के रूप में धर्मायण की अंक संख्या 115 में प्रकाशित किया गया है। इस दूसरे भाग में विवाह से पूर्व एवं बाद के स्थलों का विवेचन किया जा रहा है। अगले तीसरे तथा अंतिम भाग में शेष स्थलों का उल्लेख होगा।
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक