धर्मायण अंक संख्या 139 सन्त-साहित्य विशेषांक
अंक 138,पौष, 2080 वि. सं., 27 दिसम्बर, 2023ई. से 25 जनवरी, 2024ई.
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शीर्षक एवं आलेखों का विवरण नीचे पढ़ें
अंक की आलेख-सूची एवं विवरण
1. सन्त लक्ष्मीनाथ गोसाँई के हस्तलेख- सम्पादकीय
19वीं शती में मिथिला के पूर्वी भूभाग में सन्त लक्ष्मीपति अर्थात् बाबाजी लक्ष्मीनाथ गोसाँई ऐसे सन्त थे, जिन्होंने लोकभाषा में रचे भक्ति-गीतों के माध्यम से समाज को एक सूत्र में बाँधकर रखने का कार्य किया। सनातन धर्म की यह लोक-परम्परा थी, जो शास्त्रीय परम्परा के समानान्तर लोकोन्मुखी होकर बह रही थी। सन्त लक्ष्मीपति के कुछ हस्तलेख यहाँ संकलित हैं।
2. सन्त साहित्य में सनातन धर्म- श्री राधा किशोर झा
सनातन धर्म में हर काल में लोक-कल्याण की भावना से समता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है। काल के प्रवाह में जब कोई वस्तु अप्रासंगिक हो गयी है तो उसकी प्रासंगिकता का विरोध भी हुआ है। यही कारण है कि आगम ने वैदिक कर्मकाण्ड की ग्रन्थि का विरोध किया तो 8वीं शती के बाद प्रवाहित सन्त साहित्य ने पूर्ववर्ती व्यवहार पक्ष का भी विरोध किया, किन्तु सिद्धान्त पक्ष वे ही रहे जो वेद में कहे गये थे। इस प्रकार, सन्त साहित्य में भी सनातन का वही स्वरूप प्रवाहित है जो वैदिक साहित्य में है।
3. सौराष्ट्र के सन्तों द्वारा सामाजिक-सद्भावना का सन्देश- डॉ. राजकुमार उपाध्याय ‘मणि’
सांस्कृतिक दृष्टि से गुजरात प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध रहा है। इसका प्राचीन नाम गुर्जर प्रदेश है। संस्कृत के काव्यशास्त्रियों ने गुर्जरी नारियों की वर्णन रीति के सन्दर्भ में किया है। इसकी प्रदेश के दक्षिणी भाग को लाट देश के नाम से भी ख्याति मिली है। अनुप्रास अलंकार के सन्दर्भ में इस प्रदेश की अपनी विशेषता रही है, अतः लाटानुप्रास एक भेद के रूप में स्थापित है। इसी सम्पूर्ण प्रदेश का एक नाम सौराष्ट्र भी है। यहाँ लोकभाषा में रचना करने वाले सन्तों की एक विशेष परम्परा रही है, जिन्होंने सामाजिक भेज-भाव को दूर कर एकता, सामाजिक समरसता तथा लोककल्याण के लिए काम किया है। ईसा की 14वीं शती से नरसी मेहता, मूलदास, अखा, मेकण, गिरिधर आदि सन्तों की वाणियाँ आज भी प्रासंगिक हैं। एक क्षेत्रविशेष पर आधारित यह सर्वेक्षण अग्रतर शोधकार्य हेतु महत्त्वपूर्ण है।
4. मानवेतर योनि के संत- विद्यावाचस्पति महेश प्रसाद पाठक
हिन्दी का सन्त शब्द संस्कृत के ‘सन्’ शब्द का तद्भव रूप है। इसकी व्युत्पत्ति अस् भुवि धातु से शतृ प्रत्यय लगाकर की गयी है। मेदिनी कोष में इसका अर्थ दिया गया है- सन्साधौ धीरशस्तयोः। मान्ये सत्ये विद्यमाने त्रिषु साध्व्युमयोस्त्रियाम्। इस प्रकार, साधुता, धीरता, प्राशस्त्य, मान्यता, तथा सत्यता ये सभी सन्त के गुण हैं। अतः हमने जहाँ जहाँ इन गुणों का अस्तित्व देखा उन्हें सन्त मान लिया है चाहे वे मनुष्येतर प्राणी, पशु, पक्षी या वनस्पति ही क्यों न हो। हम भारतीय सबमें समान रूप से ईश्वरीय कलाओं के अंश देखते रहे हैं। इस आलेख में काक, गीद्ध, ऊँट, हाथी आदि योनियों के सन्तों की चर्चा की गयी है। हाथी के रूप में श्रीरामदास की कथा तो 18वीं शती की है, जिनके गुरु जगज्जीवनदास दादू-पन्थ के मान्य सन्त रहे हैं। उन्होंने एक हाथी को गले में तुलसीमाला पहनाकर तथा माथे पर तिलक कर अपना शिष्य बना लिया था। ऐसे मानवेतर सन्तों की कथाएँ यहाँ सकलित हैं।
5. नाथ योगियों की लोकपरम्परा और उनका अवदान- डॉ. विभा ठाकुर
सनातन धर्म हमेशा लोकोन्मुख रहा है। जब अतीत में ही वेद के मन्त्र लोक के लिए बोधगम्य नहीं रहे तो लोकसंग्रह के लिए हमारे पूर्वज सन्तों के द्वारा संस्कृत भाषा में आगम-संहिताएँ रची गयीं और उपासना की आगम-पद्धति समाज में प्रचलित हुईं। वैदिक यज्ञ के स्थान पर अतिथि-सत्कार की शैली में आगम की उपचार-पद्धति को मान्यता मिली। आगे चलकर जब संस्कृत भी आम जनता के लिए दुर्बोध हुई तो जनभाषा के माध्यम से सिद्ध और नाथ सन्तों ने लोक को सनातन धर्म से जोड़ने कार्य किया। इस प्रकार, सनातन लोकभाषा के माध्यम से सन्तमत के नये रूप में आ गया। इस नये रूप को सँवारने में नाथयोगियों की अहम भूमिका रही है। आज जब हम वेद को ही सर्वस्व मानने की ग्रंथि बाँधकर इस जनभाषा की धारा को खारिज करने लगते हैं और पश्चगामी बन जाते हैं तो सनातन लोक से दूर होता चला जाता है। इस प्रकार, हमारी सनातन परम्परा हमेशा लोक-कल्याण हेतु, लोकोन्मुखी होकर नये-नये रूप में समाजोपयोगी बनती रही है। हमें इस परिवर्तन के स्वर को गौर से देखना चाहिए।
6. संत तुकाराम की ईश्वरीय अवधारणा- श्री संजय गोस्वामी
किसी गाँव में एक धनी मानी व्यक्ति था। उसके पास एक पुराना महल-जैसा घर था। वह पत्नी तथा बच्चों के साथ सुख से रहता था। कालान्तर में बच्चे बड़े हुए, परिवार बढ़ा, तो वह घर छोटा पड़ने लगा। अब दो प्रकार के मत सामने आये। कुछ लोगों ने कहा कि यहीं घर हमारा मूलस्थान है हम इसे छोड़कर नहीं जायेंगे। दूसरा मत था कि हम एक नया घर बना लें ताकि सभी एक साथ रह सकें। तीसरा मत भी सामने आया कि कुछ लोग पुराने घर में ही रहें तथा कुछ नये घर में। अब विवाद बढ़ने लगा। इसका समाधान निकाला गया कि इसी पुराने घर के चारों ओर विस्तार कर लिया जाये और सभी लोग एक साथ रहें। भारतीय संतमत यही समाधान प्रस्तुत करता है। संतमत के साथ पुरोहित वर्ग का जो विरोध है उसे भी हमें इसी रूप में देखना चाहिए। सन्त तुकाराम की गाथा में यह स्पष्ट हो जायेगा। तुकाराम महाराष्ट्र के सन्तों में से अन्यतम हैं, जिन्होंने सबको साथ लेकर चलने का संदेश दिया है।
7. प्रेमानुरागी सुंदर कुंवरि- आयुष्मती शैरिल शर्मा
18वीं शती में राजस्थान के रूपनगर, कृष्णगढ़ (किशनगढ़) में राठौर वंशीय महाराज राजसिंह एवं महारानी बांकावती की पुत्री तथा संतकवि नागरी दास की बहन सुन्दर कुँवरि कृष्णभक्ति परम्परा की श्रेष्ठ कवयित्री रही हैं। इनका विवाह संवत् 1822 वि. में राघवगढ़ के खींची राजवंश में महाराज बलवंत सिंह के साथ हुआ। इन्होंने 12 ग्रन्थों की रचना की थी, जिनमें अधिकांश अभी अप्रकाशित हैं। मित्रशिक्षा नामक ग्रन्थ तो आजतक अज्ञात है। हमारी प्राक्तन पीढ़ी के विद्वानों ने जिस प्रकार पाण्डुलिपियों से ऐसे कवियों की रचनाएँ खोजकर उन्हें सम्पादित कर जन-सुलभ कराया तो आज भविष्य हमसे भी यह अपेक्षा रखती है कि हम भी अपना दायित्व पूरा करें। इस दिशा में ऐसे आलेख महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं जो हमें केवल सूचना प्रदान करते हैं। इनके आधार पर हमें अग्रतर कार्य के लिए प्रवृत्त होना चाहिए। आज भारत में पाण्डुलिपियों के सम्बन्ध में जो सर्वेक्षण विवरण सामने आ रहे हैं उनसे पता चलाता है कि अभी बहुत कुछ करना शेष है। जितने प्रकाशित हैं, उनसे कम अप्रकाशित भी नहीं होंगे।
8. सन्तकवि भवानाथ झा प्रसिद्ध भोमर झा- श्री विनोद कुमार झा
मिथिला में केवल संस्कृत भाषा-साहित्य में निबद्ध ज्ञान-परम्परा ही नहीं, लोकभाषा के सन्त साहित्य की भी पुष्ट परम्परा है। खेद है कि इस दिशा में अभीतक बहुत कार्य नहीं हुए हैं। ऐसे ही एक सन्तकवि भवानाथ झा प्रसिद्ध भोमर झा हैं। ये दरभंगा जिला के रमौली गाँव के थे। प्रसिद्ध सन्तकवि लक्ष्मीनाथ गोसाँई से इनकी मैत्री थी। इनकी रचनाओं की पाण्डुलिपि दो भागों में मिली हैं, जिनमें कुल 784 पृष्ठ हैं। अनेक पृष्ठों पर चित्र भी बने हुए हैं, जिनमें से कुछ चित्र गीतों के भाव पर बने हैं तथा कुछ अन्य विषयक भी हैं। गीतों का लेखन तीन लिपियों में हुआ है- देवनागरी, मिथिलाक्षर तथा कैथी। ये तीनों लिपियाँ उन दिनों इस क्षेत्र में प्रचलित थी। सन्तकवि भोमर झा की ये रचनाएँ उनके वंशज के संरक्षण में सुरक्षित हैं। यहाँ हमने उनके वृद्ध-प्रपौत्र श्री विनोद कुमार झाजी से आग्रह कर उनसे सूचनाएँ एकत्र की हैं जो यथावत् यहाँ संकलित हैं। यह मात्र सूचना प्रदान हेतु है।
9. कबीरपंथ के संत कवि घरभरन झा- श्री रमण दत्त झा
यह मात्र सूचनाप्रद आलेख है। चूँकि यह एक चौकाने वाली सूचना प्रदान करता है अतः शोधकर्ताओं के लिए महत्त्वपूर्ण है। मिथिला में इन पंक्तियों के लेखक ने बचपन में अनेक बार निर्गुण साधुओं के मुँह से संसार की निःसारता का बखान करने वाले पदों का गायन मैथिली भाषा में छन्दोबद्ध सुना है। बचपन की वे यादें अब ताजी हो जा रही हैं जब इस प्रकार से साहित्य से परिचय प्राप्त हो रहा है। यद्यपि इसकी भाषा सधुक्कड़ी है, किन्तु स्थानीय भाषा के ठेठ शब्द आ गये हैं। सम्भव है कि मिथिला में जहाँ एक ओर संस्कृत के माध्यम से ज्ञान परम्परा की दुन्दुभि बजती रही वहाँ समाज में आम जनता के बीच कबीर सम्प्रदाय के लोग भी अपना राग अलापते रहे। यहाँ अनेक कबीर-पन्थ मठ भी हैं, जिनके साहित्य को ढ़ूढ़ना आज शेष है। तत्काल यहाँ एक संरक्षित पाण्डुलिपि के सम्बन्ध में सन्तकवि घरभरन झा के ही वंशज परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं।
10. भगवान श्रीकृष्ण के भक्त कवि रसखान- डा. राजेन्द्र राज
भारतीय परम्परा जो सर्वांग रूप से सनातन की धारा से ओतप्रोत है, उसमें सूफी सन्तों की धारा मिली हुई है। राजा तथा राजनीति भले जो करै, कहे पर आम जन सुख-दुःख से लड़ते हुए एक-दूसरे का साथ निभाते हुए समाज में एक साथ रहे हैं। जनभाषा में सत्साहित्य का यही प्रयोजन रहा है। भारतीय आम जन के बीच घुल-मिल कर दही में शहद के समान जब इस्लाम का रंग बदला तो सूफी सन्तों की वाणी निकल पड़ी। एक ओर राम आदर्श थे तो दूसरी ओर कृष्ण आनन्द की मूर्ति बने। मध्यकाल के अनेक सन्त कवियों ने श्रीकृष्ण की इस आनन्दमयी मूर्ति का अनुसरण अपनी रचनाओं के माध्यम से किया। इन सूफी सन्तों में रसखान का नाम बड़े आदर के साथ लिया जा सकता है।
11. सिया राम मय सब जग जानी- डॉ. अजय शुक्ला
भारतीय मानस में श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में स्थापित रहे हैं। इतिहास की बात करें तो बौद्ध जातक के गाथा भाग में, जो बुद्धकाल का साहित्य माना जाता है, उसमें भी श्रीराम की राज्य अवधि 16 हजार वर्ष की अलौकिकता से युक्त है। यह श्रीराम के विषय में भारतीय जनमानस को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त है। वही परम्परा हमें मध्यकालीन सन्त-साहित्य में भी मिलती है। ‘सियाराममय सब जग जानी’ केवल एक सम्प्रदाय विशेष का उद्घोष नहीं अपितु समाज की यथास्थिति की अभिव्यक्ति है। आधुनिक काल में युवा चरित्र-निर्माण में इस अभिव्यक्ति का प्रयोग आत्मकल्याण तथा समाज कल्याण के लिए किया जा रहा है। लेखक का मानना है कि श्रीराम के सहारे जिस अद्वैत की बात हम सिद्धान्त रूप से कर रहे हैं, उनसे हम वर्तमान युवा पीढ़ी का दिशा-निर्देश कर उन्हें संतुलित तथा एकीकृत कर सकते हैं। लेखक ने व्यावहारिक रूप से इन कार्यों का परिणाम देखा है।
12. भगवान श्रीराम द्वारा अपना विराट् स्वरूप दिखाना- डॉ. शारदा मेहता
इस वर्ष दिनांक 22 जनवरी की तिथि इतिहास में महत्त्वपूर्ण रही है। इस दिन अयोध्या में जन्मस्थान पर बने भव्य मन्दिर में रामलला की स्थापना हुई है और सम्पूर्ण देश तथा विदेश भी राममय हो गया है। इस अवसर पर कथावाचन की परम्परा की विदुषी डा. शारदा मेहता ने भगवान् श्रीराम के द्वारा माता कौसल्या को दिखाए गये अपने विराट् रूप का दर्शन कराया है। जिस प्रकार माता कंस के कारागार नें माता देवकी ने श्रीकृष्ण के विराट् चतुर्भुज रूप को देखकर अचम्भित होकर उनसे बालरूप मे दर्शन की अभिलाषा प्रकट की ठीक वैसा ही वर्णन सन्तकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस में किया है। इसी विराट् स्वरूप की यहाँ विवेचना की गयी है।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक