धर्मायण अंक संख्या 133 फलश्रुति विशेषांक

अंक 133, श्रावण, 2080 वि. सं., 4 जुलाई-31 अगस्त, 2023ई
श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए वीर बहादुर सिंह, महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के रूप में https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।
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अंक की आलेख-सूची एवं विवरण
1. कर्म एवं ज्ञान के फल का समन्वय- सम्पादकीय
फल की इच्छा किसे नहीं होती है? और कोई क्रिया तबतक क्रिया नहीं कहलायेगी जबतक कि उसका कोई परिणाम न निकले। हम जाने की क्रिया को तबतक पूर्ण नहीं मानेंगे जबतक स्थान परिवर्तन न हो। ईश्वर को हमने सर्वशक्तिमान् माना है तो उनकी उपासना भी निष्फल नहीं हो सकती है। हम उपासना करेंगे तो देवता प्रसन्न होंगे और वे प्रसन्न होंगे तो हमें प्रसन्नता देंगे। चूँकि ईश्वर अघटन-घटना-पटु हैं तो यानी वे सर्वसमर्थ हैं, सबकुछ कर सकते हैं तो हमें जो लौकिक जगत् में मिल नहीं पा रहा है, उसे भी वे देने में समर्थ हैं। अतः उपासना की फलश्रुति ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का शाब्दिक प्रतिपादन है। सकाम कर्म के जो फल हमारे ग्रन्थों में कहे गये हैं, वे प्रथमतः इस रूप में व्याख्यायित किए जा सकते हैं।
2. मीमांसा-दर्शन में अर्थवाद- विद्यावाचस्पति महेश प्रसाद पाठक
वैदिक संहिता का व्याख्यात्मक भाग ब्राह्मण ग्रन्थ कहलाते हैं। प्रत्येक वेद से सम्बद्ध इनके ब्राह्मण हैं, जैसे ऋग्वेद से सम्बद्ध ब्राह्मण ऐतरेय है तथा शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ ब्राह्मण है। इन ब्राह्मण ग्रन्थों में 10 विषय-वस्तुएँ हैं– मन्त्रों का प्रयोजन, शब्दार्थ, बुरे कार्य का निषेध, अच्छे कार्य की प्रशंसा, अग्रतर कार्य, पहले किए गये कृत्य, निर्धारण, कल्पना एवं उपमान। इन 10 विषयों के माध्यम से वेद के अर्थ को समझाया गया है। सायणाचार्य ने मन्त्र भाग तथा ब्राह्मण भाग दोनों के सम्मिलित रूप को वेद कहा है। इस प्रकार, वैदिक साहित्य में जो निन्दा एवं प्रशंसा हैं उन्हें सम्मिलित रूप से अर्थवाद कहा जाता है। यही अर्थवाद परवर्ती साहित्य में फलश्रुति है, जिससे यह पता चलता है कि हमें अमुक कार्य करना चाहिए अथवा नहीं। अतः फलश्पुति को जानने के लिए हमें वैदिक साहित्य के अर्थवाद को जानना पड़ेगा, जिसका विवेचन मुख्यतः मीमांसा शास्त्र में हुआ है। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि मीमांसा वाक्यार्थ का सही बोध कराने वाला शास्त्र है।
3. लौंगाक्षि-भास्कर द्वारा प्रतिपादित अर्थवाद- डा. दयाशंकर शास्त्री
मीमांसा-दर्शन में लौंगाक्षि भास्कर कृत ‘अर्थ-संग्रह’ नामक ग्रन्थ शास्त्र में प्रवेश के लिए सबसे प्रामाणिक माना गया है। इसमें मीमांसा के सभी विषयों को प्रारम्भिक स्तर पर व्याख्यायित किया गया है ताकि इसके अध्ययन के पश्चात् पाठक को मीमांसा-दर्शन को समझने में कोई असुविधा नहीं होगी। इस ग्रन्थ पर संस्कृत में तो अनेक व्याख्याएँ हैं, किन्तु हिन्दी में डा. दयाशंकर शास्त्री की व्याख्या छात्रों के लिए सबसे सुन्दर है। इसमें अर्थसंग्रह की मूल पंक्तियों का अनुवाद तथा बालबोधिनी नामक विस्तृत व्याख्या है। मीमांसा के अर्थवाद को समझने के लिए यहाँ हमने संगत अध्याय से बालबोधिनी व्याख्या का साभार संकलन पाठकों की सुविधा के लिए किया है। इस व्याख्या से स्पष्ट है कि “अर्थवाद भी वेद के ही अन्तर्गत है। इस प्रकार अर्थवाद को भी धर्म-यागादि क्रिया का प्रतिपादक होना चाहिए, अतएव अर्थवाद वाक्य अभिधा द्वारा न तो स्वार्थपरक ही होता है और न क्रियापरक ही, किन्तु वहाँ लक्षणा द्वारा यह समझा जाता है कि अर्थवादवाक्य विधिविहित पदार्थ की प्रशंसा एवं निषेधवाक्य द्वारा निषिद्ध पदार्थ की निन्दा करते हैं। विहित एवं निषिद्ध क्रियायें होती हैं अथवा क्रियाओं के अङ्गभूत अन्य पदार्थं। इस प्रकार अर्थवाद वाक्य परम्परया क्रियापरक ही होते हैं अर्थात् धर्मपरक ही होते हैं।” एतावता, परवर्ती साहित्य में उक्त फलश्रुति भी लक्षणा शक्ति के द्वारा विधान एवं निषेध करते हैं, अभिधा शक्ति से नहीं।
4. संस्कृत साहित्य में स्तोत्र : एक परिशीलन- डा. ममता मिश्र ‘दाशʼ
संस्कृत साहित्य में स्तोत्रों का भण्डार है। इनमें ईश्वर का गुणानुवाद, नामकीर्तन, उपालम्भ, याचना तथा क्षमा-प्रार्थनाएँ हैं। इन स्तोत्रों की रचना का अपना वैशिष्ट्य है, इनमें मनुष्य के हृदय की कोमलता, अज्ञानता, किंकरता तथा क्षुद्रता के निरूपण के साथ-साथ आलंकारिक भाषा, विद्वत्ता तथा छन्दःप्रवाह की झलक मिलती है। इस आलेख में सिद्ध किया गया है कि इन विशेषताओं के कारण अनेक ऐसे स्तोत्र हैं जो पारम्परिक रूप से जन-कण्ठ में सदियों से समाये हुए हैं। प्रस्तुत आलेख में इन स्तोत्रों के प्रकार, उनके मूलतत्त्व तथा विषयवस्तु का प्रतिपादन किया गया है। शंकराचार्य के अनेक स्तोत्रों के आधार पर स्तोत्र-साहित्य में कथ्य की विविधता भी यहाँ विवेचित है। इसी के साथ जुड़ा हुआ है- स्तोत्र की फलश्रुति का निहितार्थ। अतः फलश्रुति पर सर्वाङ्गीण विवेचन से पूर्व इस आलेख को पढ़ा जाना चाहिए।
5. देवी माहात्म्य के परिप्रेक्ष्य में फलश्रुति- पं. मार्कण्डेय शारदेय
उपासना में फलश्रुति का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह मानव की प्रवृत्ति है कि “प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते” और वही प्रयोजन फल है और उसका कथन फलश्रुति। निष्काम कर्म तो कुछ भी हो ही नहीं सकता,कामना चाहे सांसारिक सुख की हो अथवा अक्षत ब्रह्मसायुज्य की हो। इस आलेख में शक्तिपूजा की परम्परा में फलश्रुति के विधान पर विशेष रूप से विचार किया गया है। लेखक का अभिमत है कि उपासना के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने के लिए तथा ग्रन्थों की भी रक्षा ओर ख्याति प्रदान करने के लिए फलश्रुति का विधान किया गया है। इसके माध्यम से ऋषियों ने हमें विधि तथा निषेध का पाठ पढ़ाया है।
6. फलश्रुति : प्रवृत्ति एवं निवृत्ति धर्म के सन्दर्भ में- डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य
इस आलेख में कहा गया है कि दो प्रकार के वैदिक कर्म होते हैं- सुखप्राप्ति के लिए तथा निःश्रेयस की सिद्धि के लिए। सुखप्राप्ति के लिए अर्थात् धन, जन, मान, मर्यादा, प्रतिष्ठा आदि सांसारिक भोग के लिए जो कर्म हैं, वे काम्य कहलाते हैं तथा मोक्षप्राप्ति के लिए सहायक जो कर्म हैं वे नैःश्रेयसिक कहलाते हैं। ‘मन्त्रमहौदधि’ का भी कथन है कि हमें शुभ कार्य के लिए भी काम्यकर्म नहीं करना चाहिए, अतः इस सिद्धान्त को यदि हम मान लें तो सारी फलश्रुतियाँ व्यर्थ हो जायेगी। अतः लेखक ने स्पष्ट किया है कि “प्रवृत्त धर्म भी वेद तात्पर्य की परिधि में सविधि सम्पन्न होना चाहिए। सविधि सम्पन्न होने से प्रवृत्त धर्म भी निवृत्त धर्म का संचारक हो जाता है।” इस प्रकार यदि हम काम्यकर्म में भी विधि एवं निषेध का पालन करते हैं तो वह काम्य भी करने योग्य हो जाता है और वह निवृत्त धर्म का संचारक हो जाता है। उदाहरणार्थ मारण, मोहन उच्चाटनादि काम्यकर्म हैं, उनका वर्णन किया गया है, किन्तु अन्य स्थलों पर निषेध भी किया गया है अतः यदि उस निषेध का पलन करते हुए हम ऐसे कार्यों से विरत होकर दूसरे की भलाई के लिए काम्य कर्म भी फलश्रुति के आधार पर करते हैं तो वह निवृत्त धर्म होगा। अतः फलश्रुतियाँ विधि-निषेधपरक हैं।
7. फलश्रुति की व्यापक भूमिका- श्रीमती रंजू मिश्रा
इस आलेख में फलश्रुति की व्यापकता का विवेचन किया गया है। यहाँ सिद्ध किया गया है कि न केवल उसासना के सन्दर्भ में अपितु भारतीय परम्परा के जो भी शास्त्र हैं उनमें विधि-निषेध के कथन के लिए फलश्रुतियाँ कही गयी है। जब हम परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् कहते हैं तो परोपकार की फलश्रुति हमें उसके लिए प्रेरित कर एक दिशा निर्देश देती है। यह भारतीय परम्परा में कथन की विशिष्ट शैली है, जो हमें न केवल देवोपासना के परिप्रेक्ष्य में मिलता है बल्कि आयुर्वेद तथा ज्योतिष जैसे विषयों में भी मिलता है। यहाँ देवोपासना भी इस अर्थ में पृथक् नहीं है, उसकी फलश्रुतियों में उक्त विधि-निषेध कथन आयुर्वेद की दृष्टि से हमें लाभ पहुँचाने तथा हानि से रोकने के लिए है। आलेख में इस बात की हमें झलक मिलती है कि हम भारतीय परम्परा की शास्त्रीय धाराओं को समानान्तर नहीं कह सकते हैं, वे एक-दूसरे से इतनी प्रगाढ़ रूप से जुड़ी हुई हैं कि हमें फलश्रुतियों का विवेचन एक व्यापक परिदृश्य में करना चाहिए और इस प्रकार, शास्त्रों में उक्त फलश्रुतियाँ हमारे निर्देशक सिद्ध होती हैं।
8. फलश्रुति और कर्मवाद का सिद्धान्त- डा. राजेन्द्र राज
भारतीय दर्शन की विशेषता है कि हर अच्छे कर्म की ओर प्रेरित करने के लिए तथा बुरे कार्य से विरत करने के लिए फलश्रुतियों का कथन हुआ है। अतः जिस वाक्य को सुनकर हम अच्छे कार्य की ओर प्रेरित होते हैं अथवा निषेध सुनकर उससे अलग हो जाते हैं वे सभी फलश्रुतियाँ हैं और उन सभी फलश्रुतियों में हमें आकर्षक लोभ दिया गया है। हम यदि घोर भौतिकवादी हैं तब भी हमें वे फलश्रुतियाँ भौतिक सुख की प्राप्ति के नाम पर ही सही, हमें उचित मार्ग दिखाती हैं और उस मार्ग पर चलकर हम निःश्रेयस की सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। ये फलश्रुतियाँ हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं फलतः कर्मवाद के सिद्धान्त के सन्दर्भ में इनकी व्याख्या की जा सकती है।
9. मन्दिर-अर्चा में ध्यान की भूमिका- डा. दीपा दुराइस्वामी
पूजा दो प्रकार की होती हैं- आत्मार्थ और परार्थ। आत्मार्थ पूजा वह है जो अपने लिए की जाती है और मन्दिरों में होनेवाली पूजा परार्थ-पूजा है। परार्थ पूजा करनेवाले को पुजारी कहते हैं तथा आत्मार्थ पूजा करनेवाले को साधक कहते हैं। आत्मार्थ-पूजा में संक्षिप्तता तथा सरलता होती है, किन्तु परार्थ-पूजा में शास्त्र के सभी नियमों का यथोचित पालन करना होता है तथा पूजा के उपकरण भी अनिवार्य हो जाते हैं। इस आलेख में परार्थ पूजा के सन्दर्भ में ध्यान की भूमिका को शास्त्रीय विधि के परिप्रेक्ष्य में समझाया गया है। यहाँ यद्यपि शैवागम के ग्रन्थ कामिकागम के आधार पर प्रतिपादन किया गया है, किन्तु कमोबेश यही नियम आगम की अन्य शाखाओं जैसे- शाक्त, वैष्णव आदि में भी हैं, केवल इष्टदेव तथा पूजा के उपकरण बदल जाते हैं। इस आलेख में स्पष्ट किया गया है कि ध्यान कर्मकाण्ड के साथ साथ योग का भी अंग है बल्कि योग के आसन से लेकर ध्यान तक सभी अंग कर्मकाण्ड में दैनिक कर्म के रूप में परिगणित हैं- आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा ध्यान ये सभी मन्दिर के एक पुजारी के दैनिक कर्तव्य हो जाते हैं।लेखक के मूल अंगरेजी आलेख का अनुवाद सम्पादक द्वारा किया गया है।
10. असमिया माधव कंदली रामायण से दशरथजी का विवाह प्रसंग- डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
असम के राजा महामाणिक्य (1330-1370ई.) के दरबारी कवि माधव कंदली ने राजा को असमिया भाषा में रामकथा सुनाने के लिए वाल्मीकि-रामायण एवं अन्य रामकथा के ग्रन्थों के आधार पर इसकी रचना की थी। इस रामायण की विशेषता है कि इसमें उन्होंने रामकथा के पात्रों में मानवीय भावनाएँ भरी हैं, अतः इसे आध्यात्मिक जगत् में उतना आदर नहीं मिल पाया। किन्तु काव्य के रूप में इसे बहुत ख्याति मिली। 15वीं शती में इस रामायण के आदिकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड नष्ट होगे, जिसे श्रीमन्त शंकरदेव ने बड़ी आस्था के साथ पूरा किया। इसी आदिकाण्ड में दशरथ के तीनों विवाह का प्रसंग विस्तार से आया है। इस प्रसंग का वर्णन यहाँ किया गया है।
11. नायर-जाति की अक्षुण्ण सामाजिक प्रथाएँ- श्री राहुल सिंह गौतम
अपनी प्राचीन परम्परा और संस्कृति बचाने से बचती है और वही हमें बचाती भी है- धर्मो रक्षति रक्षितः का यह सम्यक् अर्थ है। भारत के सुदूर दक्षिण में मालावार के क्षेत्र में स्वयं को परशुराम के द्वारा संरक्षित मानने वाली नायर जाति इसका अनूठा उदाहरण है। वे भलें चातुर्वण्य में शूद्र कहे जाते हों, किन्तु इन्होंने अपनी पूरी परम्परा को संजोकर रखी है। ये मूलतः नागदेवता, शिव, कार्तिकेय, कात्यायनी, भद्रकाली और कुछ लोकदेवताओं की उपासना करती है। उपासना में यन्त्रों के आलेखन का उपयोग करते हैं। इनकी दिनचर्या तथा संस्कार-सम्बन्धी आचारों को देखकर लगता है कि ये आजतक विशुद्ध वैदिक रीति-रिवाज को निभाते रहे हैं। इनमें मातृसत्तात्मक परिवार बहुत दिनों तक रहा किन्तु 1930ई. के बाद धीरे-धीरे पितृसत्तात्मक होने लगे हैं। तथापि इनके आचार-व्यवहार आज भी कमोबेश सुरक्षित हैं। इस प्रकार ये उत्तर भारतीय सनातनी परिवार के लिए संस्कृति एवं परम्परा के संरक्षण के परिप्रेक्ष्य में अनुकरणीय हैं।
12. रामचरितमानस की रामकथा- आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं। इस अंक में रामचरितमानस से सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड एवं उत्तरकाण्ड की कथावस्तु संकलित हैं।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक