Dharmayan vol. 107 Jala-vimarsha-Ank
धर्मायण, अंक संख्या 107, जल-विमर्श विशेषांक
- (Title Code- BIHHIN00719),
- धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की पत्रिका,
- मूल्य : पन्द्रह रुपये
- प्रधान सम्पादक आचार्य किशोर कुणाल
- सम्पादक भवनाथ झा
- पत्राचार : महावीर मन्दिर, पटना रेलवे जंक्शन के सामने पटना- 800001, बिहार
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धर्मायण, अंक संख्या 107, ज्येष्ठ, वि.सं. 2078- जल-विमर्श विशेषांक –
विषय-सूची एवं विवरण
सनातन धर्म में जल तथा जलाशय का संरक्षण-
सनातन धर्म में जिस प्रकार जल विमर्श हुआ है, वह आज के लिए भी प्रासंगिक है। एक ओर तालाब, कूप आदि खुदवाने के लिए अत्यधिक पुण्य का उल्लेख हुआ है तो दूसरी ओर तालाब, कूप आदि जलाशयों में कूड़ा-कचड़ा फेकने के लिए उच्चतम आर्थिक दण्ड देने तथा उसी व्यक्ति के हाथों सफाई कराने का भी विधान किया गया है। महाभारत एवं स्मृति-ग्रन्थों में जल संरक्षण सम्बन्धी विधि-निषेध एवं दण्ड-विधान का विमर्श यहाँ किया गया है।<<आलेख पढें>>
वैदिक साहित्य में जल-विमर्श-
जल के दिव्य रूपों तथा अनेक भेदों का वर्णन ऋग्वेद से ही प्रारम्भ हो जाता है। वेदों में एक ओर दिव्य, आन्तरिक्ष और पार्थिव के रूप में 3 भेद तथा अम्भ, मरीची, भर और आप् के रूप में 4 भेद किये गये हैं तो दूसरी ओर नदियों के भोगोलिक स्वरूप का भी वर्ण हमें मिलता है। इस प्रकार वैदिक साहित्य में साध्य एवं साधन- दोनों के रूप में जलतत्त्व पर विमर्श हुआ है।<<आलेख पढें>>
प्राचीन काल में जलप्राप्ति के साधन-
आज हमने तालाब को कूड़ादान बना डाला है; कूपों को भरकर उस पर मकान बना लिया, नदियों को तटबन्धों से घेरकर ‘हैंगिंग रिवरʼ बना डाला, पेयजल को व्यर्थ ‘बाइपासʼ कर डाला, तभी तो हम पानी पीने के लिए भी बाजार पर निर्भर हो गये हैं! बाजारवाद की देन हो या विकास के नाम पर अपभ्रष्ट मार्ग, दोनों ही स्थितियों में मनुष्य के साथ-साथ पशु-पक्षी तक प्यासे मर रहे हैं। जल-संकट से जूझते हुए हम भविष्य में और संकटग्रस्त होंगे। लेकिन सनातन धर्म की परम्परा में प्राचीन काल में जल-प्रबन्धन के लिए क्या-क्या उपाय किये गये, वे यहाँ पठनीय हैं। <<आलेख पढें>>
भारत की हर भाषा में जल ज्ञान-
वैज्ञानिकों ने जल को H2o नाम दे दिया दिया तो उन्हें लगा कि जल पर हमें छोड़ किसी ने नहीं लिखा है। हमारे भारतीय भी पूरी 19वीं शती में यही सिद्ध करने में लगे रहे है कि संस्कृत में धार्मिक और काव्य-साहित्य छोड़कर कुछ है ही नहीं। सच्चाई यह है कि भारत की सभी भाषाओं में जल-विमर्श हुआ है। संस्कृत की व्यापकता के कारण तो सर्वाधिक विमर्श संस्कृत भाषा में है। लेखक ने अपने लेख में जल-विषयक ग्रन्थों की प्राचीन भण्डारों में खोजबीन और उपलब्धता की बात कही है। यह प्रसन्नता का विषय है कि जिन ग्रन्थों की इसमें सूचनाएँ और संकेत हैं, वे सभी लेखक ने स्वयं ही सम्पादित और अनूदित किए हैं। इस सदी में जलशास्त्र पर उनका अपूर्व कार्य है।<<आलेख पढें>>
म. म. मधुसूदन ओझा प्रणीत ‘अम्भोवादʼ में जलतत्त्व की समीक्षा-
पञ्चमहाभूतों में सबसे पहले उत्पन्न जल-तत्त्व पर वेद से पुराण पर्यन्त पर्याप्त दार्शनिक विवेचन हुआ है। इन सभी दार्शनिक विवेचनाओं को एकत्र कर म.म. मधुसूदन बिहार के मुजप्फरपुर जिला के म.म. मधुसूदन ओझा ने कुल 336 कारिकाओं में ‘अम्भोवादʼ ग्रन्थ की रचना की। इसका प्रकाशन पं. मधुसूदन ओझा सीरीज-9 के अन्तर्गत डॉ. दयानन्द भार्गव के सम्पादन में पं. मधुसूदन ओझा प्रकोष्ठ, संस्कृत विभाग जयनारायणव्यास विश्वविद्यालय जोधपुर से 2002 ई. में हुआ है। इसी ग्रन्थ के आधार पर यह आलेख प्रस्तुत है।<<आलेख पढें>>
जलतत्त्व का दार्शनिक विमर्श-
डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य
इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति एवं लय में जल की सत्ता दार्शनिकों ने स्पष्ट की है। इसी जलतत्त्व के प्रति अपनी आस्था के कारण गणेश, वरुण एवं अब्देवी की उपासना की भी परम्परा रही है। लेखक ने स्पष्ट किया है कि जो दिव्य जल है, उसके साकार रूप में हम गणेश तथा कलशाधिष्ठित वरुण की पूजा करते हैं। मूर्ति-पूजा का सम्बन्ध कहीं न कहीं से सूक्ष्म दार्शनिकता से तो अवश्य है!<<आलेख पढें>>
जलदेवता वरुण-
सृष्टि के आदि में उत्पन्न जल ‘आदि कारणʼ के रूप में सनातन परम्परा में है। ऋग्वेद में ‘राजाʼ के रूप में बहुचर्चित वरुण को इसका अधिपति बनाया गया। ऐतरेय ब्राह्मण के हरिश्चन्द्रोपाख्यान में वरुण पुत्र देनेवाले हैं, तो कुपित होने पर उदर में प्रविष्ट होकर जलोदर रोग उत्पन्न करने वाले भी हैं। वे प्राणियों को न्याय देने वाले, अपराधियों को ‘पाशʼ में बाँधनेवाले तथा सभी पापों से मुक्त करनेवाले माने गये हैं। उनके हाथों में एक ऐसी दिव्यज्योति है, जिससे सम्पूर्ण संसार चल रहा है। ऐसे सर्वशक्तिशाली देवता को जल का अधिपति माना गया है। यहाँ इसी वरुण देव पर विस्तृत विवेचन किया गया है।<<आलेख पढें>>
गंगाजल का वैज्ञानिक विश्लेषण (बिहार के संदर्भ में समस्याएँ एवं समाधान)
-श्री गजानन मिश्र
गंगा नदी भारतीय संस्कृति की प्रवाहिका रही है। मानवीय भूलों के कारण गंगाजल की शुद्धता में ह्रास हुआ है, लेकिन इस जल की मूल रासायनिक तथा विशिष्ट परमाण्विक संरचना के कारण आज भी यह जल विशिष्ट है। इस विशिष्ट संरचना पर वैज्ञानिक दृष्टि से प्रकाश देते हुए लेखक ने बिहार में गंगा की समस्याओं तथा समाधान का भी मार्ग प्रस्तुत किया है। लेखक स्वयं बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग में अतिरिक्त सचिव के पद से अवकाशप्राप्त है। इनके द्वारा किया गया गम्भीर शोध यहाँ प्रस्तुत है।<<आलेख पढें>>
उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में गंगा का भौगोलिक एवं धार्मिक दिग्दर्शन –
‘स्कन्दपुराणʼ के स्थल माहात्म्यों में केदारखण्ड एवं मानस खण्ड वर्तमान उत्तराखण्ड राज्य में हैं। यहाँ हिमालय से गंगा निकलकर अनेक रूपों में अनेक नदियों को अपने में समेटती आगे बढ़ती है। इनके किनारे अनेक तीर्थ हैं, जिनमें पञ्च-केदार, पञ्च-बद्री तथा पञ्च-प्रयाग ये तीन पञ्चक अति महत्त्वपूर्ण हैं। इन तीर्थों के सम्बन्ध में लोक-परम्पराएँ भी हैं। इन सभी विषयों को समेटते हुए यह आलेख प्रस्तुत है।<<आलेख पढें>>
बिहार के कुछ जलप्रपात एवं प्राकृतिक जलाशय-
हमारा बिहार जल के मामले में धनी है। यहाँ अनेक गंगा, कोशी, गण्डक आदि अनेक विशाल नदियाँ बहती हैं। साथ ही, नदियों की धारा में आये परिवर्तनों से प्राकृतिक झील भी काफी संख्या में है, जो न केवल जल भण्डारण की दृष्टि से अपितु पर्यटन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। दक्षिण बिहार में पहाड़ियों से गिरते जलप्रपात भी प्राकृतिक जलस्रोत के रूप में बिहार के लिए वरदान है। धार्मिक आस्था से जुड़े हुए इन प्राकृतिक जल-स्रोतों के स्थल को पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया गया है। यहाँ पर ऐसे ही कुछ प्राकृतिक जल-स्रोतों का उल्लेख किया जा रहा है।<<आलेख पढें>>
नालंदा विश्वविद्यालय की दिनचर्या में जल-विमर्श-
जल हमारे जीवन का आधार है, इसलिए जल का एक नाम ‘जीवनʼ भी है। जल शुद्ध भी करता है, अतः जल को शुद्ध रखना अति आवश्यक है। ‘जल की शुद्धताʼ तथा ‘जल से शुद्धताʼ दोनों को प्रति हमारे पूर्वज साकांक्ष रहे है। फलतः वे जलाशय की शुद्धता के प्रति भी अपना दायित्व निभाते रहे हैं। यहाँ नालन्दा विश्वविद्यालय की दिनचर्या से इन तीनों विषयों पर विमर्श प्रस्तुत है। इस ऐतिहासिक विवरण को विस्तार से चीनी यात्री इत्सिंग ने लिखा है। इत्सिंग स्वयं नालन्दा विश्वविद्यालय में 671ई. से 695 ई. तक छात्र के रूप में रहे थे। यहाँ जो कुछ भी है, वह आँखों देखा तथा हाथों किया विवरण है।<<आलेख पढें>>
सुरसरि संताप (कविता) –
श्री दामोदर पाठक
जीवनदायिनी दिव्य सम्पदा-जल-
श्री महेश प्र. पाठक
आज नदियों पर बाँध बनाये जा रहे हैं, फलतः नदियाँ सूख रही हैं, उनमें गाद भरने की अलग समस्या आ गयी है। हमारे जल-स्रोत जिस प्रकार सूखते जा रहे हैं, हम कुओं को भरते जा रहे हैं, तालाबों को कूड़ादान बना रहे हैं, हमने तालाब में जल के आमगन-निर्गमन के रास्ते बन्द कर दिये हैं। वर्षा की कमी होती जा रही है, ऐसी स्थिति में यह जानना जरूरी हो जाता है कि हमारे पूर्वज जल के प्रति कितने संवेदनशील थे। साथ ही, आज की परिस्थिति में जल-संरक्षण के लिए हमें क्या करना चाहिए यह जानकारी भी आवश्यक हो जाता है।<<आलेख पढें>>
नदियों, जलस्रोतों संरक्षण की आवश्यकता-
श्री राजीव नंदन मिश्र ‘नन्हेंʼ
सांख्य-दर्शन में तो स्पष्ट रूप से प्रकृति और पुरुष के कारण सृष्टि की उत्पत्ति के क्रम में प्रकृति को हमारी माता माना गया है। वहाँ सूक्ष्म प्रकृति है, लेकिन दिखाई पड़नेवाली स्थूल प्रकृति भी हमें माता के समान पालती-पोसती है। जल रूप ‘जीवनʼ देने के लिए वह कभी गंगा-जैसी नदी बनती है तो कभी जंगलों में वृक्ष के अंदर हम प्यासे लोगों के लिए जल धारण करती है। <<आलेख पढें>>
ज्योतिष में भूगर्भीय जल का ज्ञान-
आचार्या कीर्ति शर्मा
पृथ्वी के तल पर उगी वनस्पति तथा एक निश्चित गहराई पर मिले चिह्न के आधार पर भू-गर्भ जल की खोज के लिए वराहमिहिर ने पर्याप्त विवेचन किया है। इसे उन्होंने ‘बृहत्संहिताʼ के 54वें अध्याय में दकार्गल नामक ध्याय में 125 श्लोकों में लिखा है। आचार्या कीर्ति शर्मा ज्यौतिष की अध्येत्री तथा अध्यापिका रहीं हैं। राजस्थान-जैसे जल-संकट वाले क्षेत्र से हैं। इनके इस पृथक् आलेख का यहाँ स्वागत है। लेखिका को असीम शुभकामनाएँ!<<आलेख पढें>>
वाशिष्ठ रामायण-कथा की रामकथा-
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं। – प्रधान सम्पादक <<आलेख पढें>>
अहा!
बहुत सुंदर।
गंभीर काम हुआ है। जल जैसे प्रासंगिक विषय को केंद्र में रखकर सेवा सम्मत कार्य किया गया है। यह कार्य इस पत्रिका को हर वर्ग के बीच ले जाकर विचार के लिए प्रेरित करने में समर्थ है। विद्वानों ने पर्याप्त श्रम करके संदर्भ खोज निकाले हैं। हालांकि कुछ संदर्भ सापेक्ष ही हैं लेकिन प्रासंगिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी दृष्टिगत रखा गया है। मैं पिछले बीस साल से जल विषय पर काम कर रहा हूं और यह निश्चित कह सकता हूं कि इस अंक में अनेक विषय समेटे गए हैं और संस्कृत के साक्ष्यों, संदर्भों का प्रामाणिक पाठ होने से अतीव उपयोगी लग रहा है।
मित्रों को इसको अधिकाधिक संख्या में प्रेषित कर जल के प्रति जागरण का प्रयास करना चाहिए।
• डॉ. श्रीकृष्ण “जुगनू”, उदयपुर। (धर्मायण पत्रिका के WhatsApp समूह पर पर प्रेषित)