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लेखकों से निवेदन
‘धर्मायण’ के अगले अंक, (अंक संख्या 118, वैशाख, सं. 2079) के लिए प्रस्ताव की पृष्ठभूमि
केन्द्रीय विषय- “लोक-देवताओं के रूप में परशुराम, नरसिंह, कूर्म एवं बुद्ध की उपासना”
हम सनातन धर्मावलम्बी हैं। सनातन धर्म एक विशाल वटवृक्ष है, जिसमें अनेक काल में अनेक शाखाएँ निकलीं, टहनियाँ फैलती गयी और सनातन धर्म अपने विशाल आयाम में सारी जनता को विना भेद-भाव किए समेटता गया। सब एक धर्म से जुड़े रहे। इतिहास गवाह है कि समाज के सभी लोग अपनी विभिन्न पद्धतियों से अपने-अपने इष्टदेव से जुड़े रहे और उपासना के स्तर सनातनी कहलाते रहे।
इस सन्दर्भ में यूरोपीय विद्वान् विलियम क्रुक्स का सर्वेक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसने देखा है कि कैसे समाज के सभी वर्ग के लोग मन्दिरों में जाकर पूजा-पाठ करते हैं, वे पशुओं और पक्षियों की उपासना करते हैं उन्हें- नरसिंह, कच्छप, वराह आदि नामों से लोक-देवता के रूप में पूजते हैं। लोकभाषाओं में उनके मन्त्र हैं, लोकगीत हैं, वे विभिन्न प्रकार के कष्टों को दूर करने के लिए शाबर मन्त्रों का उपयोग करते हैं। इन मन्त्रों के माध्यम से सेवयं को इष्टदेव के निकट पाते रहे हैं। गुरुस्मरण के द्वारा गुरु का सामीप्य पाते रहे हैं, अंततः उनकी उपासना-पद्धति सनातन की पद्धति है। यह 19वीं शती के मध्य तक की स्थिति है। इसके बाद से धीरे-धीरे इसमें ह्रास होता हुआ हम देख रहे हैं, जिसके कारण बहुत-सारी भेद-भाव की भ्रान्तियाँ पनप रही है।
मध्यकाल के धर्म-सुधारकों ने इसी लोक-पद्धति को शास्त्रीय रूप देने का प्रयास किया। अवतारों की पूजा की पद्धतियाँ बनीं, उऩके सम्बन्ध में शास्त्रीय निबन्ध लिखे गये। भारतीय बहुदेववाद उसकी व्यापकता है, जो सबको समेट लेने की शक्ति रखता है। धर्मसुधारकों का यही उद्देश्य रहा है कि समाज के सभी वर्ग के लोग उपासना के स्तर पर समान रूप से माने जायें, ताकि सामाजिक समरसता का भाव बना रहे। ईसा की दूसरी सहस्राब्दी में शैवों और वैष्णवों के बीच एकता बनाने का सफल प्रयास हुआ। वैष्णव-परम्परा इस समन्वय के लिए बहुत कारगर सिद्ध हुआ है।
सिद्धों एवं नाथों की यही लोक-परम्परा है। रामानन्दाचार्य ने भी ‘रामावत सम्प्रदाय’ के द्वारा यही काम किया। कबीर, रैदास, तुलसीदास, दादू, आदि इसी उद्देश्य को लेकर चले। सबका एक उद्देश्य था समाज से लोगों को धर्म से जोड़ना तथा उनके बीच शान्ति और भाईचारे का संदेश देकर सामाजिक समरसता को मजबूती प्रदान करना।
रामानन्दाचार्य ने ‘वैष्णवमताब्जभास्कर’ में परशुराम-जयन्ती, नरसिंह-जयन्ती आदि मनाने का उल्लेख किया। धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में भी हम उपास्य देवताओं के सम्बन्ध में यही दृष्टि मिलती है।
लोक-पद्धति की बात करें तो हमें आश्चर्य लगेगा कि धर्मराज, नरसिंह, कच्छप आदि देवता गोसाँई (कुलदेवता) के रूप में अनेक जातियों में पूजित हैं। बंगाल के चर्मकार जाति में ‘कतैनी’ देवी पूजित हैं जो कात्यायनी से अभिन्न हैं। इसका अर्थ है कि अतीत में एक स्थान में निवास करने वाले सभी जातियों के लोग एक देवता के उपासक रहे होंगे। आज भी गाँवों में ब्रह्म बाबा की पूजा होती है, पीपल के पेड़ के नीचे सभी वर्ग के लोग घोड़े की मूर्ति चढ़ाते हैं। क्या यह सामाजिक समरता अध्याय नहीं है?
आज आवश्यकता है कि हम इन सूत्रों को ‘लोक’ के बीच से खोजकर सामने लायें। इस क्रम में परशुराम, नरसिंह, कूर्म, बुद्ध की चर्चा लोक-साहित्य में उपास्य देव के रूप में हुआ है। नरसिंह भगवान् रक्षा करने वाले देव माने गये हैं। इन सभी अवतारों का मास वैशाख है। अतः ‘धर्मायण’ पत्रिका के वैशाख मास का अंक इसी भाव-भूमि और दृष्टिकोण पर प्रस्तावित है।
आलेख दिनांक 12 अप्रैल तक प्राप्त कराने का कष्ट करेंगे।
यह अंक दिनांक 17 अप्रैल को प्रकाशित होगा।
आलेख dharmayanhindi@gmail.com पर भेजें। विशेष वार्ता के लिए 9430676240 पर (दोपहर 1:30 से 3:30 को छोड़कर) सम्पर्क करें या whatsapp संदेश भेजें।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक