धर्मायण, अंक संख्या 126, आगम विशेषांक
अंक 126, पौष, 2079 वि. सं., 9 दिसम्बर, 2022ई. से 6 जनवरी, 2023ई
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इस अंक के आलेखों की सूची तथा विवरण
1. आगम की लोकोन्मुखी परम्परा (सम्पादकीय)
2. आगम और निगम- डा. जनार्दन यादव
निगम शब्द से वैदिक साहित्य का बोध होता है तथा आगम शब्द से लौकिक भाषा में रचित संहिता, आगम तथा तन्त्र शब्द से अभिहित साहित्य का बोध होता है। उपासना की पद्धति के अर्थ में आगम वह पद्धति है, जिसमें देवताओं का आवाहन किया जाता है तथा उनका पूजा अतिथि-सत्कार की शैली में की जाती है। स्पष्ट रूप से कहा जाये तो वैदिक साहित्य के बाद भारतीय ज्ञान का परवर्ती विकास समेकित रूप से हमें आगम के ग्रन्थों में मिलते हैं। इसलिए आज हमारे लिए आगम के ग्रन्थों का समेकित अध्ययन आवश्यक हो गया है। प्रस्तुत लेख में आगम की विभिन्न शाखाओं के मूल सिद्धान्त तथा उनके ग्रन्थों का विवरण प्रस्तुत किया गया है। यह लेख धर्मायण में पूर्व-प्रकाशित है।
3. आगमों में देवालय निर्माण का रचनात्मक स्वरूप- डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू’
आगम के ग्रन्थों में केवल उपासना विधि नहीं है। वहाँ हम वास्तु, शिल्प, पदार्थ-विज्ञान, रसायन-विज्ञान आदि वैज्ञानिक विमर्श भी पाते हैं। भारतीय मनीषियों ने शिल्प पर बहुत काम किया है। गाँव, नगर, राजधानी कैसे बसाना चाहिए, उनमें मार्ग किस प्रकार बनाये जायें, किस व्यवसाय के लोग नगर में किस दिशा में वास करें, इन सब विषयों पर सिद्धान्त लिखे गये हैं। वास्तविकता है कि भारतीयों के मत से मनुष्य का समग्र जीवन ही अध्यात्ममय है, ईश्वर-विमर्श और उससे पृथक् जीवन हो ही नहीं सकता है। अतः वास्तु में भी देवताओं का स्थान निर्धारित कर वास्तु-पुरुष की अवधारणा बनायी गयी, कला एवं विज्ञान को भी आध्यात्मिक रूप दिया गया। आगम के ग्रन्थों में शिल्प के सिद्धान्त प्रचुर रूप में मिलते हैं जो रेखागणितीय सिद्धान्त पर आधारित भवन-निर्माण का शास्त्र है। लेखक ने इस आलेख में देवालय निर्माण के आगमिक सिद्धान्त का विवेचन किया है।
4. उत्कलीय संस्कृति में लक्ष्मीपूजा- डा. ममता मिश्र दाश
‘लोक’ की धारा बहती नदी है, तो ‘शास्त्र’ उस नदी में से घड़ा में भरकर सुरक्षित किया गया जल। अतः लोक का अपना विशिष्ट महत्त्व है। लोकधारा का संपोषण महिलाओं के द्वारा होता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी, सास से बहू तक संस्कृति की वह धारा चलती रहती है। वर्तमान पीढ़ी ग्लोबलाइजेशन की बाढ़ में सब कुछ भुलाकर दूर-दराज स्थानों से लाई गयी जलोढ़ मिट्टी से सबकुछ पाट देता चाह रही है, ऐसे समय में हमें अपनी मिट्टी की चिन्ता अधिक करनी होगी। हमें उनलोक परम्पराओं को सुरक्षित करना होगा, जो भविष्य में जाकर शास्त्र बन सके और अगली पीढ़ी को मार्ग-निर्देशन दे सके। अतीत के शास्त्रकारों ने इसी परिस्थिति में परम्पराओं को लिपिबद्ध किया होगा, जो आज शास्त्र बन गये हैं। हर क्षण परिवर्तन का क्षण होता है। ऐसे में हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि जब सब कुछ बदल ही रहा है तो फिर वर्तमान राग अलाप कर क्या होगा? आगे भी कुछ ‘उलट जाने’ वाली बात नहीं होगी; भविष्य में जो होगा, उसका सूत्र भी अतीत में ही होगा। इस दृष्टि से विदुषी लेखिका का यह आलेख महत्त्वपूर्ण है। उड़ीसा क्षेत्र की भारतीय-परम्परा का यह प्रलेखन विशेष रूप से मननीय है।
5. वैष्णवागमों में सूर्य- श्री महेश प्रसाद पाठक
आगम की कुल छह शाखाओं वैष्णव, गाणपत्य, सौर, शाक्त, शैव एवं आग्नेय में यद्यपि सूर्य से सम्बन्धित सौर शाखा का पृथक् है। इस शाखा से सम्बन्धित ग्रन्थ साम्ब-पुराण हमें मिलते हैं; भविष्य-पुराण में भी सौर आगम के सिद्धान्तों का पर्याप्त उल्लेख हुआ है। 10वीं शती तक हमें आदित्य पुराण के अस्तित्व का भी पता चलता है। वीरमित्रोदय के पूजा प्रकाश में मित्रमिश्र ने इस शाखा पर पर्याप्त सामग्री दी है। दक्षिण के भास्कर राय ने तृच-भास्कर में सौर-आगम का पर्याप्त विवेचन किया है, किन्तु इस शाखा के बहुत ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं। यह भी सम्भावना व्यक्त की जा सकती है कि वैष्णवागमों में सूर्य के स्वरूप का सम्मिलन विष्णु के साथ हो गया हो और दोनों शाखाएँ एकीकृत हो गयी हो। अतः हमें वैष्णवागमों में सूर्य पर प्रचुर सामग्री मिलती है। अनेक स्थलों पर सूर्य तथा विष्णु को अभिन्न मान लिया गया है। प्रस्तुत लेख में वैष्णवागमों में सूर्य का विवरण दिया गया है।
6. निगम और आगम- स्वामी करपात्रीजी महाराज
निगम तथा आगम दोनों भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। दोनों की परिभाषा तथा स्वरूप को लेकर काफी ऊहापोह की स्थिति आज भी बनी है। वेद को ही प्रमाण मानने वाले लोग ‘आगम’ का नाम सुनते ही चिढ़ने लगते हैं। बहुत सारी भ्रान्तियाँ फैला दी गयी हैं। आगम के एकाध श्लोक लेकर विना सन्दर्भ दिये उसकी परम्परा को दूषित बतला दी गयी है। ऐसे में आगम की मीमांसा-सम्मत परिभाषा पर विमर्श आवश्यक हो जाता है। आगम क्या है? कैसे यह वेदमूलक है? इसकी क्या विशेषता है? -इन तीन प्रश्नों पर विश्रुत सनातनी विद्वान् अनन्तश्रीविभूषित स्वामी करपात्रीजी महाराज का यह प्रवचन पठनीय हो जाता है। यह सम्पूर्ण आलेख डा. रेवाप्रसाद द्विवेदी तथा डा. कमलेशदत्त त्रिपाठी के संयुक्त सम्पादन में वाराणसी से प्रकाशित सन्मार्ग पत्रिका में प्रकाशित है। इस विशाल आलेख में से यहाँ लगभग आधा आलेख सुधी पाठकों के लिए साभार प्रस्तुत किया जा रहा है।
7. लोक और अध्यात्म में तन्त्रसाधना – डॉ. पार्थ सारथि शील
आगम के सिद्धान्तों पर विचार करने के बाद इसके व्यावहारिक पक्षों पर भी विमर्श आवश्यक हो जाता है। आगम परम्परा में गुरु, गुरुमन्त्र, दीक्षा, साधना आदि आवश्यक अंग हैं। साधक को किन-किन बातों पर ध्यान देना होता है, इसका भी विवेचन आवश्यक हो जाता है। अकसर देखा जाता है कि विना गुरुदीक्षा लिए, परम्परा की शब्दावली को विना जाने लोग यत्र-यत्र किताबों को खरीदकर उससे आधी-अधूरी बात पढ़कर साधना करने लगते हैं तथा अपने को तान्त्रिक घोषित कर देते हैं। ऐसे लोगों की साधना निष्फल हो जाती है। ये लोग एक ओर शास्त्र और परम्परा को बदनाम करते हैं तो दूसरी ओर समाज में अनेक प्रकार के आपराधिक कृत्यों को अंजाम देते हैं। अतः आवश्यक है कि हमें शास्त्र की गम्भीरता को जानना होगा। ज्ञान, योग, चर्या एवं क्रिया इन चारों अंगों को अचछी तरह हृदयंगम करना होगा। लेखक ने आगम के सम्बन्ध में इन विषयों को रखा है। साथ ही यहाँ श्रीअमृतेश्वर-भैरव-महिम्नस्तोत्र में बीज-मन्त्रोद्धार पर भी विवेचना की है, जो आगम के बीजोद्धार का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है।
8. कलि-काल में प्राणियों के लिए आगम ही हितकारी- डा. राजेन्द्र राज
आगम की एक सामान्य परिभाषा है कि भगवान् शंकर ने जो शास्त्र पार्वती से सुनाया वह आगम है। अनेक आगमोक्त स्तोत्रों में हम प्रथम पंक्ति पाते हैं- कैलासशिखरासीनं गौरी पृच्छति शंकरम् यानी, कैसाल के शिखर पर अवस्थित गौरी ने महादेव से पूछा। प्रश्न लोकमंगल से सम्बन्धित होते हैं। पार्वती के प्रश्न पर भगवान् शिव जो उपदेश करते हैं वे लोकमंगल के उपाय होते हैं। यही आगम है। वैष्णवागम में अनेक ग्रन्थ ऋषियों तथा मुनियों के संवाद के रूप में होने के कारण इस परिभाषा में अव्याप्ति दोष रहने पर भी बहुत उपयोगी है। तुलसीदास ने भी सम्पूर्ण रामकथा भगवान् शिव की उक्ति के रूप में लिखी है अतः उसे भी आगम के रूप में मान्यताप्राप्त है। गोस्वामीजी ने ‘रामचरितमानस’ के स्रोत के रूप में भी आगम का नाम लिया है। मध्यकाल में धर्मसुधार आन्दोलन में भी आगम का प्रमुख योगदान रहा है। लोकभाषा के माध्यम से मध्यकालीन संतों ने आगम की परम्परा को ही जन-जन तक फैलाने का कार्य करते हुए समाज को एकसूत्र में बाँधने का प्रयास किया है। रामानन्दाचार्य की पूरी परम्परा आगम की परम्परा है, जिसमें ज्ञान, योग, क्रिया तथा चर्या ये चारों अंग प्रस्फुटित हुए हैं। लेखक ने इसी अर्थ में कलियुग में आगम को ही हितकारी माना है।
9. भारतीय ज्ञान परम्परा में आध्यात्मिक अनुसन्धान- डॉ. अजय शुक्ला
सबसे बड़ा प्रश्न उठता है कि अध्यात्म का पालन हम क्यों करें? क्या केवल परम्परा को निबाना ही अध्यात्म है? अध्यात्म का व्यावहारिक पक्ष अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है और वह पक्ष है- आत्मकल्याण, जनकल्याण, समाज-कल्याण, उन्नति तथा शान्ति। रन्तिदेव का चरित एक ओर आदर्श है, जो “न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्। कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्॥” यानी राज्य, स्वर्ग, मोक्ष इन सब से महत्त्वपूर्ण है परोपकार। लेखक ने अध्यात्म के इस व्यावहारिक पक्ष पर बल दिया है तथा विभिन्न प्रकार से शब्दों के द्वारा आत्मदर्शन को लोकदर्शन से जोड़कर देखा है।
10. शाक्तागमों की तीन पद्धतियाँ -निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु
आगम की प्रमुख छह शाखाओं में शाक्त आगम सबसे अधिक बदनाम है। कारण यह है कि शाक्तागम सबसे जटिल तथा गोपनीय है अतः इसके पारिभाषिक शब्द इस प्रकार कूटशब्दों के द्वारा स्थापित किये गये हैं है कि जो व्यक्ति परम्परा में विदिवत् दीक्षित नहीं है, वह अनर्थ कर बैठेगा। कौलोपनिषद् की व्याख्या में भास्कर राय ने इसे स्पष्ट किया है। इस शाक्तागम में उपासना के तीन प्रकार हैं, जिन्हें भाव कहा गया है। लेखक ने स्पष्ट किया है कि वर्तमान में अदीक्षित लोग किस प्रकार अनर्थ कर रहे हैं, जिसका आभास पूर्वाचार्यों को भी हो गया था कि वीरभाव से उपासना के नाम पर भ्रष्टता कैसे फैलेगी। वास्तविकता है कि पारिभाषिक शब्दों के दो अर्थ होते हैं- सामान्यार्थ तथा सम्प्रदायार्थ। जो सम्प्रदाय को विधिवत् नहीं जानते हैं वे सामान्यार्थ के अनुसार व्यवहार कर सम्प्रदाय को दूषित कर देते हैं। “कुमारीरसपिष्टेन” में घृतकुमारी का अर्थ होगा न कि कुमारी कन्या का। यह एक उदाहरण है। लेखक ने इसी सन्दर्भ में शाक्तागम की तीन पद्धतियों का विवेचन यहाँ प्रस्तुत किया है।
11. त्रिदेवों के अंश भगवान दत्तात्रेय- गोवर्धन दास बिन्नानी ‘राजा बाबू’
भगवान् दत्तात्रेय भारतीय परम्परा में योग के देवता माने जाते हैं। ये ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश तीनों के अवतार माने जाते हैं। अतः इनके तीन मुख हैं। सती अनसूया एवं महर्षि अत्रि इनके माता-पिता माने जाते हैं। आचार्य शंकर ने इनकी स्तुति करते हुए लिखा है- “जो आदि में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अन्त में सदाशिव है, उन भगवान दत्तात्रेय को बारम्बार नमस्कार है। ब्रह्मज्ञान जिनकी मुद्रा है, आकाश और भूतल जिनके वस्त्र है तथा जो साकार प्रज्ञानघन स्वरूप है, उन भगवान दत्तात्रेय को बारम्बार नमस्कार है।” भगवान् दत्तात्रेय कैसे अनसूया के पुत्र के रूप में इसकी कथा रोचक है। इस कथा में सतीत्व का तेज तथा ऋषिपत्नी का वात्सल्य भाव अभिव्यक्त हुआ है। इसी कथा के कारण जब राम सीता के साथ महर्षि अत्रि के आश्रम पहुँचे थे तो सती अनसूया ने सीता को बहू मानकर उऩका स्वागत-सत्कार किया था तथा दिव्य आभूषणों से सुसज्जित किया था।
12. ‘महावीर चरित’ की रामायण-कथा- आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं।– प्रधान सम्पादक
13. 19वीं शती की कृति ‘रीतिरत्नाकर’ में एक बोध कथा
19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक ‘रीतिरत्नाकर’ का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं।
इस पुस्तक में एक प्रसंग आया है कि किसी अंगरेज अधिकारी की पत्नी अपने बंगला पर आसपास की पढ़ी लिखी स्त्रियों को बुलाकर उनसे बातचीत कर अपना मन बहला रही है। साथ ही भारतीय संस्कृति के विषय में उनसे जानकारी ले रही है। इसी वार्ता मंडली में वर्ष भर के त्योंहारों का प्रसंग आता है। पण्डित शुक्लाजी की पत्नी शुक्लानीजी व्रतों और त्योहरों का परिचय देने के लिए अपनी दो चेलिन रंगीला और छबीला को आदेश देतीं हैं।
यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह ग्रन्थ अवध प्रान्त के सांस्कृतिक परिवेश में लिखा गया है। इसमें अनेक जगहों पर बंगाल प्रेसिंडेंसी को अलग माना गया है।
सन् 1872 ई. के प्रकाशित इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा में बहुत अन्तर तो नहीं है किन्तु विराम, अल्प विराम आदि चिह्नों का प्रयोग नहीं हुआ है जिसके कारण अनेक स्थलों पर आधुनिक हिन्दी के पाठकों को पढ़ने में असुविधा होगी। इसलिए यहाँ भाषा एवं वर्तनी को हू-ब-हू रखते हुए विराम-चिह्नों का प्रयोग कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ स्थलों पर अनुच्छेद परिवर्तन भी किए गये हैं। जिन शोधार्थियों को भाषा-शैली पर विमर्श करना हो, उन्हें मूल प्रकाशित पुस्तक देखना चाहिए, जो Rīitiratnākara के नाम से ऑनलाइन उपलब्ध है।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
महावीर मन्दिर प्रकाशन
महावीर मन्दिर प्रकाशन
महावीर मन्दिर प्रकाशन
धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक