धर्मायण, अंक संख्या 121, रक्षाबंधन-विशेषांक
अंक 121, श्रावण, 2079 वि. सं., 14 जुलाई-12 अगस्त 2022ई.
श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए वीर बहादुर सिंह, महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।
- (Title Code- BIHHIN00719),
- धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय चेतना की पत्रिका,
- मूल्य : पन्द्रह रुपये
- प्रधान सम्पादक आचार्य किशोर कुणाल
- सम्पादक भवनाथ झा
- पत्राचार : महावीर मन्दिर, पटना रेलवे जंक्शन के सामने पटना- 800001, बिहार
- फोन: 0612-2223798
- मोबाइल: 9334468400
- सम्पादक का मोबाइल- 9430676240 (Whtasapp)
- E-mail: dharmayanhindi@gmail.com
- Web: www.mahavirmandirpatna.org/dharmayan/
- पत्रिका में प्रकाशित विचार लेखक के हैं। इनसे सम्पादक की सहमति आवश्यक नहीं है। हम प्रबुद्ध रचनाकारों की अप्रकाशित, मौलिक एवं शोधपरक रचनाओं का स्वागत करते हैं। रचनाकारों से निवेदन है कि सन्दर्भ-संकेत अवश्य दें।
आलेख के शीर्षक एवं विषयवस्तु का विवरण
1. रक्षे मा चल मा चल (सम्पादकीय आलेख)- पं. भवनाथ झा
श्रावण पूर्णिमा के दिन देश भर में किसी न किसी रूप में श्रावणी पर्व मनाया जाता है। इस दिन दो प्रकार के पर्व होते हैं-(क) उपाकर्म एवं (ख) रक्षाबन्धन। उपाकर्म ब्राह्मणों का पवित्र कर्म है। इस दिन यज्ञोपवीत बदला जाता है। परम्परा के अनुसार वेदाध्ययन प्रारम्भ करने का यह पहला दिन होता है। अतः इस दिन से ब्राह्मण वेदाध्ययन आरम्भ करते हैं, साथ ही पूर्ववर्ष अध्ययन में हुई त्रुटियों के लिए प्रायश्चित्त करते हैं। यह विशुद्ध वैदिक कर्म है। आगम-सम्प्रदाय में रक्षाबन्धन का कर्म प्रचलित है। अतः रक्षाबन्धन सार्वजनीन है। समाज के सभी वर्ग के लोग इसका अनुष्ठान करते हैं। वर्तमान में यदि अखिल भारतीय स्तर पर हम देखें तो इस रक्षाबन्धन के तीन स्वरूप आज प्रचलन में है- (क) बहन के हाथों भाई को राखी बाँधना। (ख) घर के श्रेष्ठ व्यक्ति के द्वारा महिला एवं पुरुष सभी को राखी बाँधना। (ग) ब्राह्मण अथवा गुरु के यजमान तथा शिष्य को राखी बाँधना। स्थानभेद से इनमें से एक की प्रधानता हर जगह पर है। रक्षाबन्धन के इन्हीं विविध रूपों पर प्रामाणिक जानकारियाँ इस अंक में दी गयी है। हमारा प्रयास रहा है कि इसकी मूल परम्परा को हम वैदिक मणिबन्धन के साथ जोड़कर देखें। सभी परिस्थितियों में यह रक्षाबन्धन व्यक्ति की रक्षा का भाव लिए हुआ है।
2. रक्षाबन्धन के अथर्ववेदीय सन्दर्भ- डा. सुन्दरनारायण झा
पृथ्वी पर अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाएँ हैं। कुछ प्रत्यक्ष हैं तो कुछ अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष बाधाओं को पार करने हेतु हमें बल की आवश्यकता होती है, किन्तु अप्रत्यक्ष बाधाओं को दूर करने हेतु देवता तथा गुरुजनों की कृपा आवश्यक मानी गयी है। यह सिद्धान्त वैदिक काल से आज तक विभिन्न रूपों में प्रतिपादित है। अथर्ववेद में ऋणात्मक शक्तियों के शमन हेतु ‘मणिबन्धनʼ का विधान किया गया है, जिसे कृत्या-निवारण करते हैं। यही वैदिक रक्षाविधान क्रमशः विकसित होता हुआ वर्तमान काल में रक्षाबन्धन के रूप में हमें अतिभौतिक बाधाओं से रक्षित करता है। यह प्रमुख सनातन परम्परा है। इसमें पुरोहित अथवा श्रेष्ठजन के हाथों विशेष प्रकार से बनायी गयी पोटली बँधवाते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं। अथर्ववेद में शुक्राचार्य ऋषि के नाम पर एक सूक्त है, जिसके मन्त्रों में इसी मणिबन्धन का विधान किया गया है। सम्भवतः पौराणिक काल में शुक्र के द्वारा राजा बलि को राखी बाँधने की कथा का मूल यही सूक्त है। यहाँ इसी अथर्ववेदीय सूक्त का विवेचन किया गया है।
3. रक्षाबन्धन के विविध वैदिक पक्ष- श्री अरुण कुमार उपाध्याय
रक्षा की आवश्यकता हर क्षेत्र में होती है। ज्ञान की परम्परा, धर्म, राष्ट्र, समाज एवं व्यक्ति स्वयं रक्षित होकर ही रक्षा प्रदान करते हैं। आगम ग्रन्थों में ‘कवचʼ मन्त्रों की अवधारणा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए है। हम देवता से प्रार्थना करते हैं कि हे देव आप हमें पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर, नीचे से रक्षित करें। वैदिक काल में प्रतिदिन सन्ध्यावन्दन के समय जल से चारों ओर घेरा डालकर ‘आपो मामभिरक्षन्तुʼ कहकर रक्षा की कामना की जाती थी। रक्षा के इन सभी आयामों का समन्वित रूप हमें श्रावणी पूर्णिमा का पर्व रक्षाबन्धन में देखने को मिलता है। पुरोहित राजा को रक्षापोटलिका बाँखते हैं, क्योंकि राजा की रक्षा का अर्थ है- राष्ट्र की रक्षा। एक व्यापारी यदि राखी बँधाते हैं तो इसका अर्थ है- राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की रक्षा। इसी प्रकार एक लुहार रक्षित होकर लोहा सम्बन्धी धातु-विज्ञान की रक्षा कर पाने में समर्थ होता है। यह है- रक्षाबन्धन का व्यापक स्वरूप। इसी व्यापक स्वरूप को यहाँ लेखक ने स्पष्ट किया है।
4. श्रावणी उपाकर्म- डा. टी. एस. षण्मुख शिवाचार्य एवं डा. दीपा दुराइस्वामी
भारत की वैदिक परम्परा में श्रावणी पूर्णिमा के दिन उपाकर्म महत्त्वपूर्ण है। गौरव की बात है कि इसकी परम्परा आसेतु-हिमाचल भारत की अखण्डता का डिंडिम घोष करती है। काश्मीर के राजा रणवीर सिंह बहादुर के आदेश से इसी उपाकर्म की पद्धति प्रकाशित की गयी थी, जो उस क्षेत्र में भी उपाकर्म के प्रचलन को सिद्ध करती है। सुदूर दक्षिण में तो आज भी लोग परम्परागत विधि से स्वशाखानुकूल उपाकर्म का आयोजन करते हैं। इस दिन उपाकर्म के बाद वेदाध्ययन आरम्भ होता है। इस आलेख के लेखकद्वय इस विषय के अधिकारी विद्वान् हैं। दोनों शैवागम के विशेष अध्येता हैं। इस आलेख को लिखने हेतु इनका आभारी हूँ। इस आलेख के लिए डा. ममता मिश्र ‘दाश’ का विशेष आभारी हूँ, जिन्होंने प्रयत्न कर इस विषय के प्रामाणिक लेखक-द्वय से इसे लिखा कर ‘धर्मायणʼ पत्रिका हेतु एक बहुमूल्य रत्न संग्रह करने का कार्य किया है।
5. श्रीजगन्नाथ और श्रावणोत्सव डा. ममता मिश्र ‘दाशʼ
जगन्नाथ मन्दिर की परम्परा में श्रावणी पूर्णिमा का विशेष महत्त्व है। इस दिन बलराम का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इसी दिन राक्षी नीति मनाया जाता है। लेखक के अनुसार- “इसे ‘राखी लागि नीतिʼ भी बोलते हैं। परम्परा के अनुसार श्रीमन्दिर का पाटरा विशोयी सेवक पट्टसूत्र से चार राखियाँ बनाकर समर्पण करता है। देवी सुभद्रा के द्वारा श्री जगन्नाथ, श्रीबलभद्र, श्रीसुदर्शन को पहनायी जाती हैं। सुभद्रा खुद भी अपने हाथ में बाँधती है। उन्हें सुपारी से बनायी गयी चार मालाएँ पहनायी जाती है।” इसका अर्थ है कि जगन्नाथ पुरी की धार्मिक परम्परा में भी देवी सुभद्रा, भगवान् कृष्णा, श्रीबलभद्र तथा श्रीसुदर्शन को इस दिन राखियाँ अर्पित की जाती है। देवताओं को राखियाँ अर्पित करने की यह परम्परा सनातन है। प्रत्येक घर में भी अपने अपने इष्ट-देवता को राखी अर्पित कर घर के सदस्यों के द्वारा इसे कलाई में बाँधना देहिक, दैविक एवं भौतिक तापों से हमें बचाने का एक परम्परागत उपासना-कर्म है। बहनें भी यदि देव को अर्पित राखी बाँधे तो निश्चय ही वह अलौकिक शक्ति से भरी हई होंगी।
6. “माई आज राखी बँधावत कुंजन में दोऊ” सुश्री शैरिल शर्मा
महाकवि जयदेव ने सरस मन के साथ हरि-स्मरण हेतु भागवत यानी श्रीकृष्ण की उपासना की अनुशंसा की है। भारत के इस धराधाम पर व्रजक्षेत्र इस भावना की क्रीडाभूमि रही है। अतः आध्यात्मिकता के साथ मानवीय संवेदनाएँ हम इस क्षेत्र के साहित्य में कूट-कूट कर भरा हुआ पाते हैं। रक्षाबन्धन में रक्ष्य के प्रति सारे हृद्गत भाव झलक जाते हैं। वह रक्ष्य पुत्र, पुत्री, शिष्य, भ्राता कोई भी हो सकता है। अतः आलम्बन भेद से रक्षाबन्धन के भी अनेक प्रकार हो जाते हैं। विदुषी लेखिका की मान्यता है कि व्रज-साहित्य में रक्षाबन्धन के तीन भाव हमें स्पष्ट रूप से मिलते हैं- “1. पहला द्वारिका लीला का भाव है जिसमें (भाई-बहन), नंदालय का, और गुरु-शिष्य का भाव निहित होता है। 2. दूसरा निकुंज लीला का भाव है। 3. तीसरा वैदिक परम्परा का भाव है अर्थात रक्ष-रक्षक का भाव है।” इन तीनों भावभूमियों पर आधारित व्रज-साहित्य का विवेचन करता हुआ यह आलेख प्रस्तुत है।
7. सौहार्द का प्रतीक- रक्षाबन्धन श्री महेश प्रसाद पाठक
रक्षाबन्धन जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसमें रक्षा की प्रधानता है। अनिष्टकारी तत्त्वों से रक्षा, दृष्ट अथवा अदृष्ट तत्त्वों से रक्षा इस बन्धन की प्रमुख वस्तु है। सबसे प्रमुख बात है कि यह परस्पर सौहार्द तथा प्रेम की रक्षा करता है। चाहे गुरुजन शिष्यों को राखी बाँधें चाहे बहन अपने भाई को राखी बाँधे, सम्बन्ध की रक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण है। भविष्य पुराण के उत्तरपर्व के 137वें अध्याय में युधिष्ठिर एवं कृष्ण के संवाद के रूप में रक्षाबन्धन की कथा आयी है, जहाँ गुरु शुक्राचार्य के द्वारा अपने शिष्य राजा बली को राखी बाँधने का उल्लेख है। इस आलेख में लेखक ने रक्षाबन्धन के विविध स्वरूपों की व्याख्या कर उस दिन के कर्तव्य तथा भद्रा सम्बन्धी विचार पर भी शास्त्रीय विवरण दिया है। कई बार रक्षाबन्धन के समय को लेकर मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं। जब भद्रा के कारण अपराह्ण के समय राखी बाँधने का मुहूर्त तो बहनें रूठ जातीं हैं, उनके लिए भद्रा-विचार पढ़ना अपेक्षित होगा।
8. रक्षाबन्धन की मूल कथा
भविष्य-पुराण के उत्तर पर्व के 137वें अध्याय में श्रावणी पूर्णिमा के दिन रक्षाबन्धन का विधान किया गया है। इसमें श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से इस प्रसंग में गुरु शुक्राचार्य के द्वारा राजा बलि को रक्षा-गुटिका बाँधने के प्रभाव की कथा सुनाते हैं।
9. गणेश वन्दना घनश्याम दास हंस
10. रक्षाबन्धन : विविध लोक परम्पराएँ- 1. डा. श्रीकृष्ण जुगनू, 2. सुश्री पुनीता कुमारी श्रीवास्तव, 3. सुश्री शिवानी शर्मा , 4. डा. सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य।
रक्षाबन्धन अखिल भारतीय स्तर पर मनाया जाने वाला पर्व है। यद्यपि स्थान तथा संस्कृति के भेद से इसके स्वरूप में हमें भेद मिलते हैं। कहीं पर बहन के द्वारा भाई को राखी बाँधने की परम्परा अधिक प्रचलित है तो कहीं पर श्रीकृष्ण को राखी बाँधने की परम्परा मुखर है। व्रज में जयन्ती अर्थात् जौ के पौधे की राखी बँधती है तो मिथिला में अपने हाथों से बनायी गयी रुई की राखी ब्राह्मणों तथा पुरोहितों के द्वारा बाँधने की परम्परा है। साथ ही श्रावण पूर्णिमा को मनायी जाने वाली अन्य धार्मिक परम्पराएँ भी हैं, किन्तु बाह्यस्वरूप में भिन्नता होते हुए भी सबके बीच एक सामान्य सेतु है, जो हमें आसेतु-हिमालय अखण्ड भारत की परिकल्पना को प्रतिबिम्बित करता है। यहाँ हमने ऐसे कुछ आलेखों का संग्रह किया है, जिससे हम विविधता में एकता के स्वरूप का दर्शन कर सकें।
11. शाश्वती गीता डॉ. कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव
देश में श्रीमद्भगवदगीता की गायन शैली में ‘शाश्वती गीताʼ हिंदी गीतों में रचना संपन्न.. देश की सांस्कृतिक राजधानी कही जाने वाली काशी ( वाराणसी) में जन्मे और यहीं के मूल निवासी डॉ कवीन्द्र नारायण श्रीवास्तव मूलतः पत्रकार हैं। देश की अग्रणी न्यूज़ एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया (पी. टी.आई.) में न्यूज़ एडिटर रहे डॉ कवीन्द्र ने राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर, ओम्बुड्समैन प्लान इन इंडिया विषय पर डॉक्टर ऑफ फिलॉसॉफी (पीएच. डी.) और एल एल बी किया है। बिहार में पी टी आई में प्रिंसिपल संवाददाता के रूप में कार्य करने के दौरान पंचायत में नारियों की स्थिति पर ‘पंचायत की दुनिया में आधी आबादीʼ पुस्तक और रिपोर्ताज पर इन्हें संयुक्त राष्ट्र द्वारा पोषित संस्था ‘द हंगर प्रोजेक्टʼ ने नई दिल्ली में दो लाख रुपये नकद और प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया था। बिहार के पत्रकारों में डॉ कवीन्द्र पहले पत्रकार थे, जिन्हें यह सर्वोच्च सम्मान मिला हुआ है। इनकी अध्यात्मिक कृति में राम की खोज, राम गीता पुस्तकों के अतिरिक्त खिड़कियों की डाक (मुक्तक संग्रह), समंदर की साजिश, (गजल संग्रह), श्रीगीता (खण्डकाव्य) इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। राजा राम रचनावली, स्वदेशी जागरण राष्ट्रीय पत्रिका, सप्तक स्वर, डॉ कृष्णा निगम अभिनंदन ग्रन्थ, राष्ट्रीय महिला सम्मेलन पत्रिका, पी. टी. आई महासंघ राष्ट्रीय पत्रिका के सम्पादक भी रहे हैं। श्रीमद्भगवदगीता का हिंदी गीतों में रूपान्तरण ‘शाश्वती गीताʼ इनकी आठ वर्षों की सतत प्रयास का नतीजा है।
12. जब कर्णावती ने हुमायूँ को राखी भेजी मूल लेखक- जेम्स टॉड, अनुवादक- डा. काशीनाथ मिश्र
आज रक्षाबन्धन के विविध रूपों में बहन के द्वारा भाई को राखी बाँधने की परम्परा सबसे अधिक प्रचलित हो गयी है तथा इसके इतिहास के रूप में कर्णावती के द्वारा हुमायूँ को राखी भेजने की कथा दुहरायी जाती रही है। इस कथा को सबसे पहले लिखने वाले जेस्म टॉड थे, जिन्होंने राजस्थान के इतिहास के रूप में इसे लिखा था। इस कथा में बहन के द्वारा रक्षा की माँग करना केन्द्रबिन्दु में है। अतः इसने रक्षाबन्धन की व्यापक पुरातन परम्परा को कैसे संकुचित करने का कार्य किया है, इसे जानने के लिए हमने यहाँ मूल अंश का हिन्दी अनुवाद उद्धृत किया है। हमारी कामना है कि हमारी बहनें स्वयं इतनी सशक्त हों कि वे अपने, आपने भाई तथा सम्पूर्ण राष्ट्र की रक्षा कर सकें, भाई से रक्षा की गुहार लगाने जरूरत न हो।
लेफ्टिनेंट-कर्नल जेम्स टॉड; 20 मार्च 1782-18 नवम्बर 1835) ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एक अधिकारी तथा भारतविद् थे। इंग्लेंड निवासी जेम्स टॉड वर्ष 1817-18 में पश्चिमी राजपूत राज्यों के पॉलिटिकल एजेंट बन कर उदयपुर आए। इसी दौरान संकलित सामग्री के आधार पर अन्होंने सन 1829 में ‘एनल्स एंड एंटीक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान’ का पहला खण्ड और सन 1934 में दूसरा खण्ड प्रकाशित किया।
13. राखी (कविता) मूल लेखिका- मिस एम्मा रॉबर्ट्स, अनु.- डा. काशीनाथ मिश्र
इंग्लैंड निवासी कैप्टन विलियम रॉबर्ट्स की बेटी मिल एम्मा रॉबर्ट्स का जन्म इंग्लैंड में अथवा लीड्स के निकट मैथली में 27 मार्च, 1791 ई. में हुआ था। माता-पिता की मृत्यु के बाद वह अपनी बड़ी बहन के तथा उनके पति आर.ए. मैकनॉटेन के साथ 1828ई. में भारत आ गयी। भारत में वह आगरा, कानपुर तथा इटावा में दो वर्षों तक यात्रा करती रही और इसके दौरान संकलित सामग्री के आधार पर उन्होंने कई आलेख लिखे जिनका संकलन बाद में ‘सीन्स एण्ड कैरैक्टरेस्टिक्स ऑफ हिन्दुस्तानʼ के रूप में हुआ। मिस एम्मा रॉबर्ट्स एक कुशल कवयित्री भी थीं। भारतीय दृश्यों पर लिखी उनकी संवेदनात्मक कविताओं का पहला संकलन 1830 में ‘ओरियण्टल सीन्सʼ के नाम से हुआ तथा उसकी परिवर्धित संस्करण टिप्पणी के साथ 1832 में प्रकाशित हुआ। 1832ई. में प्रकाशित प्रति में उनकी 17 कविताएँ हैं, जिनमें ‘ब्राह्मण’, ‘ताजमहल’, ‘एक मुमूर्षु हिन्दू’, ‘गंगा के किनारे की एक रात’, ‘आँधी’, ‘एक मुसलमान की कब्र’, ‘एक हिन्दू लड़की’, ‘भारत की एक शाम का दृश्य’ आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इन्हीं कविताओं से एक ‘राखी’ भी है।
14. राखी की ऐतिहासिक कहानियाँ (संकलित)
भाई से रक्षा की गुहार लगाने वाली एक अबला बहन साहित्यकारों को भी भा गयी। विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिकʼ ने रक्षाबन्धन कहानी लिखी तो प्रेमी हरिकिशन ने उदयसिंह की माता कर्मवती (कर्णावती का दूसरा नाम) के द्वारा हुमायूँ को राखी भेजने की कथा पर आधारित ऐतिहासिक नाटक लिखा, जो हिन्दी के साथ गुजराती में भी प्रकाशित हुआ। ऐतिहासिक कहानियाँ लिखने वालों ने इस स्वरूप का इतिहास खोजना चाहा तो उन्हें गयासुद्दीन तुगलक के काल (1320-1325) की एक कहानी मिली। वृन्दावन लाल वर्मा की कहानी इसी पृष्ठभूमि पर आधारित है, जब पन्ना ने पड़ोसी राजा रामसिंह को राखी भेजकर तुगलकी सेना से नागौर को बचाने के लिए गुहार की थी। दूसरी कहानी प्रिंस ऑफ वेल्स की पत्नी एलेक्जेंड्रा तथा जयपुर के नरेश रामसिंह (द्वितीय) से सम्बन्धित है। कथाकारों ने इन्हें अपने-अपने ढंग से लिखा है।
इन दोनों कहानियों का सारांश यहाँ प्रस्तुत है।
15. आनन्द-रामायण-कथा आचार्य सीताराम चतुर्वेदी
यह हमारा सौभाग्य रहा है कि देश के अप्रतिम विद्वान् आचार्य सीताराम चतुर्वेदी हमारे यहाँ अतिथिदेव के रूप में करीब ढाई वर्ष रहे और हमारे आग्रह पर उन्होंने समग्र वाल्मीकि रामायण का हिन्दी अनुवाद अपने जीवन के अन्तिम दशक (80 से 85 वर्ष की उम्र) में किया वे 88 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए। उन्होंने अपने बहुत-सारे ग्रन्थ महावीर मन्दिर प्रकाशन को प्रकाशनार्थ सौंप गये। उनकी कालजयी कृति रामायण-कथा हमने उनके जीवन-काल में ही छापी थी। उसी ग्रन्थ से रामायण की कथा हम क्रमशः प्रकाशित कर रहे हैं। – प्रधान सम्पादक
16. स्वाध्याय सबसे बड़ा धर्म – श्री राधा किशोर झा
परवर्ती साहित्य में भी कहा गया है- क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च चिन्तयेत् अर्थात् प्रत्येक क्षण विद्या और प्रत्येक कण अन्न के संचय करने की सोच रखनी चाहिए। पतञ्जलि ने तो महाभाष्य में अध्ययन की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा है कि छह अंगों के साथ वेदों का अध्ययन विना किसी उद्देश्य का किया जाना चाहिए। यह निष्कारण धर्म है। वैदिक साहित्य के सन्दर्भ में इसे ही स्वाध्याय कहा गया है। स्वाध्याय के सम्बन्ध में तो इतना तक कह दिया गया है कि यदि केवल स्वाध्याय ही करें तो यज्ञ का भी फल मिल जाता है। उपनिषत् साहित्य में जिस समय इस अवधारणा की स्थापना हुई उस समय केवल अंगों सहित वेद-संहिता ही अध्ययन की सामग्री थी। आधुनिक परिस्थिति में हमें यह जानना चाहिए कि ज्ञान के जो भी ग्रन्थ हैं- रामायण, महाभारत, गीता, पुराण आदि सभी स्वाध्याय के विषय हो जायेंगे। इतना ही नहीं यदि हम और व्यापक अर्थ लें तो ज्ञान का कोई भी ग्रन्थ इसके अन्तरत आ जायेंगे, जिनका प्रतिदिन अध्ययन करना हमारे लिए सबसे बड़ा धर्म होगा।
17. 19वीं शती की कृति ‘रीतिरत्नाकरʼ में पर्व-त्योहारों का विवरण
19वीं शती में जब स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष जोर दिया जा रहा था तब हिन्दी भाषा के माध्यम से अनेक रोचक ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें कहानियों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी। ऐसे ग्रन्थों में से एक रीतिरत्नाकर का प्रकाशन 1872ई. में हुआ। उपन्यास की शैली में लिखी इस पुस्तक के रचयिता रामप्रसाद तिवारी हैं। इस पुस्तक में एक प्रसंग आया है कि किसी अंगरेज अधिकारी की पत्नी अपने बंगला पर आसपास की पढ़ी लिखी स्त्रियों को बुलाकर उनसे बातचीत कर अपना मन बहला रही है। साथ ही भारतीय संस्कृति के विषय में उनसे जानकारी ले रही है। इसी वार्ता मंडली में वर्ष भर के त्योंहारों का प्रसंग आता है। पण्डित शुक्लाजी की पत्नी शुक्लानीजी व्रतों और त्योहरों का परिचय देने के लिए अपनी दो चेलिन रंगीला और छबीला को आदेश देतीं हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह ग्रन्थ अवध प्रान्त के सांस्कृतिक परिवेश में लिखा गया है। इसमें अनेक जगहों पर बंगाल प्रेसिंडेंसी को अलग माना गया है। सन् 1872 ई. के प्रकाशित इस ग्रन्थ की हिन्दी भाषा में बहुत अन्तर तो नहीं है किन्तु विराम, अल्प विराम आदि चिह्नों का प्रयोग नहीं हुआ है जिसके कारण अनेक स्थलों पर आधुनिक हिन्दी के पाठकों को पढ़ने में असुविधा होगी। इसलिए यहाँ भाषा एवं वर्तनी को हू-ब-हू रखते हुए विराम-चिह्नों का प्रयोग कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए कुछ स्थलों पर अनुच्छेद परिवर्तन भी किए गये हैं। जिन शोधार्थियों को भाषा-शैली पर विमर्श करना हो, उन्हें मूल प्रकाशित पुस्तक देखना चाहिए, जो Rītiratnākara के नाम से ऑनलाइन उपलब्ध है।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
महावीर मन्दिर प्रकाशन
महावीर मन्दिर प्रकाशन
महावीर मन्दिर प्रकाशन
धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक