धर्मायण अंक संख्या 147 शरद् ऋतु अंक

अंक 147, आश्विन-कार्तिक, 2081 वि. सं., 19 सितम्बर-15 नवम्बर, 2024ई.
श्री महावीर स्थान न्यास समिति के लिए महावीर मन्दिर, पटना- 800001 से ई-पत्रिका के रूप में https://mahavirmandirpatna.org/dharmayan/ पर निःशुल्क वितरित। सम्पादक : भवनाथ झा।
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अंक के आलेख एवं विषयवस्तु
1. देवोत्थान एकादशी का एक संस्मरण- सम्पादकीय
देवोत्थान एकादशी आते ही बचपन की याद में खो जाता हूँ। बचपन में हमारे लिए यह सबसे महत्त्वपूर्ण दिन इस बात के लिए होता था कि इसके बाद से ईख चबाने की छूट मिल जाती थी। गाँव में ईख की खेती होती थी, पर छठ से पहले आँवला और देवोत्थान एकादशी से पहले ईख चूसने पर रोक था। नया गुड़ भी तब तक खा नहीं सकते थे। कुछ लोग छठ के बाद खाना आरम्भ कर देते थे, पर हमारे आँगन में चूँकि देवोत्थान एकादशी मनायी जाती थी, इसलिए पिताजी कहते थे- पहले नये ईख से भगवान् का घर बनेगा, तब कोई चूस सकेंगे और गुड़ का व्यवहार कर सकेंगे। भगवान् का घर बनना यानी देवोत्थान एकादशी का दिन।
2. दीपावली-पर्व-विनिर्णय- पण्डित गङ्गाधर पाठक
इस वर्ष 2024ई. में दीपावली को लेकर विद्वानों के बीच बहुत वाद-विवाद चला। दिनांक 30 अक्टूबर तथा दिनांक 01 नवम्बर को लेकर विवाद चला था। शास्त्रीय विधि से गणना करने वाले पारम्परिक पंचांगकार जहाँ 30 अक्टूबर को दीपावली मान रहे थे, वहाँ कम्प्यूटरीकृत दृक् पंचांग वाले विद्वान् 01 नवम्बर पर जोर दे रहे थे और अपनी बात की पुष्टि के लिए धर्मशास्त्रीय निबन्धों की घुमा-फिराकर व्याख्या कर रहे थे साथ ही, अनेक प्रकार के मत के लिए धर्मशास्त्रीय निबन्धकारों को दोष दे रहे थे। लेखक की मान्यता है कि दीपावली के विषय पर धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में कोई दुबिधा नहीं है। इनके वर्तमान व्याख्याता अप्रासंगिक विवेचनाओं के आधार पर भ्रान्ति उत्पन्न कर रहे हैं। लेखक ने सभी पक्षों पर विवरण देते हुए इन भ्रान्तियों को दूर करने का प्रयास किया है। आशा है कि भविष्य में दीपावली से सम्बन्धित कोई भ्रान्ति उत्पन्न होगी तो यह आलेख मार्गदर्शक होगा। लेखक के अनुरोध पर इस आलेख में सभी अंक देवनागरी में रखे गये हैं।
3. जगन्नाथ पुरी की पीठेश्वरी माँ विमला- डा. ममता मिश्र ‘दाशʼ
प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् डी.सी. सरकार ने महापीठ निर्णय की 10 पाण्डुलिपियों के आधार पर अपनी पुस्तक ‘द शाक्तपीठाज्’ में लिखा है- “उत्कले नाभि देशश्च विरजाक्षेत्रमुच्यते। विमला सा महादेवी जगन्नाथस्तु भैरवः।” (पृ. 45) इस प्रकार जगन्नाथ क्षेत्र की अधीश्वरी देवी के रूप में माँ विमला की महिमा है। जगन्नाथ मन्दिर के पश्चिम-दक्षिण कोण में इस मन्दिर में आश्विन मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी से ही पूजा आरम्भ हो जाती है और माता के 11 रूपों के दर्शन क्रमिक रूप से होते हैं। अन्तिम रूप सिंहवाहिनी है जिसमें माता 3 दिनों तक विराजती हैं। इतना ही नहीं सम्पूर्ण उड़ीसा में अनेक शक्तिपीठ हैं, जिनके अध्ययन से यहाँ की शाक्त परम्परा स्पष्ट होती है। आइए हम उड़ीसा की शाक्त परम्परा का अवलोकन करें।
4. भट्ट कमलाकर कृत नवरात्रविधि- डा. नन्दिनी दास
निर्णयसिन्धु के प्रणेता कमलाकर भट्ट के पूर्वज मूलतः महाराष्ट्र के थे, किन्तु तीन पीढ़ी से ये काशी में रहे। अकबर के समय में नारायण भट्ट के निर्देशन में टोडरमल्ल ने काशी विश्वनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण किया था। नारायण भट्ट की प्रसिद्ध रचना त्रिस्थलीसेतु है। इसी नारायण भट्ट के ज्येष्ठ पुत्र कमलाकर भट्ट थे। इनके 30 ग्रन्थों की सूची अभी तक मिली है। इनके अतिरिक्त अनेक अन्य ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ भी हमें मिल रहीं है, जो अभी तक अज्ञात थीं। नवरात्र-विधि ऐसा ही लघुकाय किन्तु महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसका प्रथम बार सम्पादन यहाँ किया गया है। आशा है कि इस संपादन से विद्वान् गण लाभान्वित होंगे।
5. त्रिगुणात्मिका स्वरूप में स्थित देवी भगवती- विद्यावाचस्पति महेश प्र.पाठक
शक्ति उपासना की परम्परा में दुर्गासप्तशती का अनन्य महत्त्व है इसकी पौराणिक कथा का मूल प्रयोजन है ऋषि सुमेधा के उपदेश से राजा सुरथ द्वारा की गयी देवी की सकाम उपासना के फल के रूप में उनका आठवें मन्वन्तर का अधिपति बनना तथा समादि नामक वैश्य के द्वारा देवी की निष्काम उपासना से मोक्ष की प्राप्ति। इसी क्रम में सुमेधा देवी के चरितों का वर्णन करते हैं। किन्तु दूसरी ओर इस शक्ति उपासना का दार्शनिक प्रतिपादन भी दुर्गासप्तशती तथा देवीसूक्तों में हुआ है। त्रिगुणात्मिका स्वरूप में देवी को सृष्टि का मूलाधार माना गया है और उस शक्ति को ब्रह्म के रूप में परिभाषित किया गया है। देवी के दार्शनिक स्वरूप की यह व्याख्या यहाँ प्रस्तुत है।
6. सनातन की एकात्मकता का उद्घोष- कुमार गंगानन्द सिंह
कुमार गंगानन्द सिंह (1898-1971) बिहार के बहुत बड़े चिन्तक, राजनीतिज्ञ तथा कार्यकर्ता थे। स्वतंत्रता के बाद सन् 1954ई. में बिहार विधान परिषद् के सदस्य हुए तथा 1960 में बिहार विधान सभा के सदस्य बने। 1962ई. में शिक्षामन्त्री भी बने। ये पूर्णिया के बनैली राजपरिवार में उत्पन्न हुए थे तथा 1922 ई. से वे बिहार की धार्मिक राजनीति तथा सामाजिक क्षेत्रों में सार्वजनिक रहे हैं। डॉ.विनोदानन्द झा विश्वबन्धु, जो गंगानन्द सिंह के पारिवारिक संबंधी थे, उन्होंने कुमार गंगानन्द स्मृति-ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए उनके पत्रों, भाषणों तथा अन्य क्रिया-कलापों का संकलन किया था, कतिपय कारणों से अप्रकाशित रहा। इसी सामग्री संकलन में प्रस्तुत भाषण भी संकलित है। इसे ऐतिहासिक भाषण को यहाँ उद्धृत किया गया है। इसके संपादन के क्रम में उपशीर्षक प्रस्तुत संपादक द्वारा दिए गये हैं, जिससे पाठकीयता बढ़ेगी तथा विषयों को समझने में आसानी होगी। इस भाषण से तत्कालीन बिहार की सामाजिक स्थिति तथा उसके लिए उपायों पर प्रकाश पड़ेगा। सबसे बड़ी बात है कि इस 100 वर्षों में क्या कितना सुधार हम कर सके हैं इस पर आत्मावलोकन का अवसर मिलेगा। -(संपादक)
7. बंदउँ बालरूप सोइ रामू- श्री गौरीशंकर वैश्य विनम्र
तुलसीदास स्वयं शब्दों की वर्णन सीमा तय करते हैं कि वाणी देख नहीं सकती और आखें बोल नहीं सकती अतः प्रत्यक्ष दिखा हुआ सौन्दर्य भी वर्णनातीत हो जाता है। लेकिन जब वर्ण्य विषय ही अनिर्वचनीय हो तो भला उसका वर्णन कैसे किया जा सकता है। अतः श्रीराम के बालरूप का वर्णन करते समय तुलसीदासजी उन्हें अनिर्वचनीय मूर्ति के रूप में नमन करते होते हैं। रामचरितमानस में बालरूप राम के वर्णनों में हम भाषा सम्बन्धी विशेषता भी पाते हैं। इन अंशों में अक्सर वे ठेठ जनभाषा का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। चिक्कन, गभुआर, झँगुलिया, अनरसे आदि शब्दों के माध्यम से उन्होंने वात्सल्य रस की जो अभिव्यंजना की है वह उन्हें ऊँचाई पर पहुँचा देती है।
8. अप्पदीपो भव- डा मयंक मुरारी
कार्तिक मास का मुख्य पर्व दीपावली है। यह अन्धकार की स्थिति में प्रकाश के अवलम्बन का पर्व है। वैदिक घोषणा है- तमसो मा ज्योतिर्गमय। अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना हमारे जीवन का प्रमुख उद्देश्य है। इसी बात को बुद्ध ने भी कहा था- अप्पदीपो भव। अश्वघोष रचित बुद्धचरितम् एक कथा आयी है कि महापरिनिर्वाण से ठीक पूर्व आनन्द ने बुद्ध से पूछा कि आपके नहीं रहने पर हमारे गुरु कौन होंगे। इस प्रश्न पर बुद्ध ने कहा था कि हमारे बताये हुए मार्ग तुम्हारे गुरु होंगे और उस मार्ग पर चलते हुए अपने अंदर के ज्ञान के प्रकाश से सभी प्रकाशित रहेंगे। आत्मदीपो भव- अप्पदीपो भव यद्यपि बौद्ध धर्म के नाम पर प्रख्यात है, किन्तु इसके आदिसूत्र वैदिक अवधारणाओं में हमें मिलते हैं। वही परम्परा आजतक प्रत्यक्ष रूप से अपने लौकिक स्वरूप में हम दीपावली पर्व के रूप में मनाते हैं। पार्थिव अंधकार के साथ आन्तरिक अन्धकार को दूर करना भी दीपावली का एक स्मारक संदेश है।
9. व्यवहारोत्पत्ति का क्रमशः इतिहास एवं परिभाषाएँ- डॉ. दिलीप कुमार नाथाणी
धर्म एवं अधर्म का निर्णय करते हुए अधर्म करने वालों को राजा के द्वारा दण्डित किया जाना चाहिए। यही धर्माधर्मविवेक समग्र रूप में व्यवहार है, जिसे हम प्राचीन भारतीय दण्ड-विधान के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। इसका प्रचुर विकास भारतीय ज्ञान-परम्परा में हमें मिलता है। इसी अर्थ में वर्तमान में हम ‘व्यवहार-न्यायालय’ का विकास पाते हैं। बहुत सारे अधर्म के लिए तो हमारे ऋषियों ने अलौकिक दण्ड-विधान कर नैतिक रूप से उनसे अलग रहने के लिए प्रेरित किया ताकि समाज स्वयं धर्म के पथ पर चले। इसे पाप-पुण्य के रूप में परिभाषित किया गया, तथापि यदि जनता कोई अधर्माचरण करे तो उसे राजा के द्वारा दण्ड्य माना गया। इस ‘व्यवहार’ में प्रमाणों के आधार पर अर्थ-विनिश्चय करने की प्रक्रिया को ‘न्याय’ मानकर 12वीं शती में गंगेश उपाध्याय ने प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः की अवधारणा के साथ नव्यन्याय की नींव रखी। इस प्रकार, वर्तमान न्याय-प्रणाली का समग्र विकास हम भारत में पाते हैं।
10. गाय अपनी माँ- श्री संजय गोस्वामी,
गावो मे सन्तु मातरः- यह भारत की मानसिकता है। प्राचीनकाल में हमारी सारी क्रियाएँ गोमाता के चारों ओर घूमती थी। अतः गाय को ही हम धन मानते रहे। पुराणों ने तो सभी देवी-देवताओं का निवास स्थान की परिकल्पना ही गोमाता के विभिन्न अंगों पर कर दी है। ऋग्वेद के कितव सूक्त में एक महत्त्वपूर्ण निर्देश है कि ऋषि एक गृहस्थ को जुआ में हार जाने पर दिखाते हैं कि यह तुम्हारी पत्नी है और यह तुम्हारी गाय है। अब इन दोनों के सहारे अपना नया जीवन आरम्भ करो और जुआ मत खेलो। इस प्रकार गोमाता हमारे परिवार का आधार हैं। यहाँ अथर्ववेद के कुछ सूक्तों के माध्यम से गाय की महिमा गायी गयी है।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक