मगध में सूर्यपूजा कैसे फैली?
मगध की सूर्यपूजा की कथा द्वापर युग के अंत समय से जुड़ी हुई है। भगवान् कृष्ण के पुत्र साम्ब को कुष्ठ रोग हो गया था, जिसे ठीक करने के लिए वसिष्ठ की आज्ञा से शाकद्वीप से सूर्योपासक मग ब्राह्मण लाये गये। घटना का क्रम ऐसा हुआ कि वे लोग मगध में आकर बस गये। इसकी कथा साम्बपुराण में मिलती है। धर्मायण के 83वें अंक में पं. सुरेशचन्द्र मिश्र का एक आलेख प्रकाशित है, जिसे हम पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं।
मगध क्षेत्र में सूर्यपूजा की परम्परा- पं. सुरेशचन्द्र मिश्र
सूर्य हमारे प्राचीनतम पूज्य देवता हैं। इनकी पूजा एवं माहात्म्य का विशद वर्णन साम्ब-पुराण में प्रचुरता से उपलब्ध है। यों तो भारतवर्ष के अधिकांश क्षेत्रों में सूर्य देवता की पूजा होती है परन्तु बिहार के मगध क्षेत्र की सूर्य-पूजा की चमक कुछ और ही है। यह चमक क्यों है इसकी तह में जाने से पहले यह विचारणीय होगा कि बुद्ध का भ्रमण-स्थल होने कारण इसका नाम बिहार पड़ा, परन्तु बिहार के एक क्षेत्र-विशेष को मगध क्यों कहा जाता है? फिर स्वतः प्रश्न उठ आता है कि जरासंध, अशोक आदि राजाओं ने भी इसके नाम मे कभी कोई परिवर्तन क्यों नहीं किया?
मुझे जैसा लगता है, मगध क्षेत्र के अधिकांश घरों में सूर्य पूजा यानी सूर्य षष्ठी पूजा कार्त्तिक शुक्ल षष्ठी और चैत्र शुक्ल षष्ठी को बड़े धूम-धाम से सम्पन्न की जाती है। इसमें कठोर उपवास एवं पवित्रता का पूरा ध्यान रखा जाता है। व्रत धारण करनेवाली स्त्रियाँ एवं पुरुष उस समय लोगों को साक्षात् सूर्य देवता ही दिखाई पड़ते हैं। मगध की पूजा-पद्धति भी और जगहों से समानता रखते हुए भी कुछ विशेषता की वाहिका है।
हाँ, तो पहले यह साफ कर दूँ कि इसका नाम ‘मगध’ क्यों पड़ा। संभवतः सूर्य पूजकों को ‘मग’ कहा जाता है। ‘मग’ की पौराणिक व्याख्या है ‘मार्त्तण्ड का ज्ञान रखनेवाला’। इसकी वैदिक व्याख्या है- ‘‘मन्त्रोत्पादको गुरुः।’’। अतः स्पष्ट है कि यहाँ सूर्यपूजक मगों की प्रधानता होने के कारण इस क्षेत्र का नाम ‘मगध’ पड़ा। मगान् सूर्यपूजकान् धारयति इति मगधः। अब मगध क्षेत्र की सूर्योपासना पद्धति पर थोड़ा दृष्टिपात करें-
- अगर एक साल आपने छठ व्रत करने की ठान ली तो यह व्रत अबाध आप की वंश परम्परा बन गया। ऐसा कठोर नियम अन्य जगहों में नहीं देखा जाता।
- अर्घ्य-डाली पर प्रथम वर्ष आपने जो वस्तुएँ रखीं हैं। प्रतिवर्ष उन वस्तुओं से ही अर्घ्य निवेदन किया जायगा।
- व्रती दो दिनों का कठोर उपवास करते है। इस अवधि में कंबल अथवा पुआल पर सोना विशेष फलदायक है।
- व्रती संयत के दिन से ही किसी से कठोर बात नहीं बोलते हैं।
- किसी को कड़ी नजर से देखना व्रत-विरुद्ध माना जाता है।
- पुरानी संयत एवं लोहंडा (चतुर्थी एवं पंचमी) के दिन प्रसाद खाने के लिए यथाशक्य विना भेदभाव के सबों को बुलाया जायगा, यहाँ जाति-पाति का भेद-भाव अत्यन्त वर्जित है।
- सूर्य प्रसाद का मूल मंत्र सबमें सम भाव है।
- षष्ठी तिथि व्रतियों के लिए पूर्ण उपवास का दिन है। इस दिन निर्जला व्रत धारण कर शाम को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
- सप्तमी तिथि को उगते हुए सूर्य को अर्घ्य प्रदान कर व्रती पारणा करते हैं।
- प्रायः देखा जाता है कि यह व्रत स्त्रियाँ अधिक करती हैं, पुरुष कम।
हमारे देश का कोणार्क मन्दिर शिल्पकला के लिए पूरे विश्व में ख्यात है। बृहत्तर बिहार यानी बिहार और झारखण्ड में सूर्य मन्दिर निम्न स्थानों में पाये जाते हैं- सूर्य मन्दिर औरंगाबाद जिले में 110 फीट ऊँचा देव नामक स्थान में विद्यमान है जो सम्भवतः 8वीं शताब्दी से भी पूर्व का माना जाता है। उमगा पहाड़ी पर का सूर्य मन्दिर भी इसी काल का कहा जाता है क्योंकि स्थापत्य, शिल्प आदि में समानता है। गया में विष्णुपद के पास एक सूर्यकुण्ड है एवं सूर्यनारायण की अति प्राचीन चतुर्भुज मूर्त्ति भी शोभायमान है। फल्गु नदी के तट पर ‘गयादित्य’ नामक मन्दिर है। गया जिले के शेरघाटी अनुमंडल में खुदाई से प्राप्त सूर्य मन्दिर बड़ा ही चित्ताकर्षक है। यह 5वीं शताब्दी का माना जाता है। सहरसा जिले का ‘कन्दाहा’ सूर्य मन्दिर 1453 ई0 का है। नालन्दा जिले में बिहार श्री(शरीफ) के पास ‘बड़गाँव’ का सूर्य मन्दिर अत्यन्त प्रसिद्ध है। उस मन्दिर से थोड़ी दूरी पर एक विशाल तालाब है। कहा जाता है कि जिसमें स्नान करने से कोई भी चर्म रोग सद्यः नष्ट हो जाता है। जिला बाढ़ के पास ‘पुनारख स्टेशन है वहाँ पुण्ड्रार्क (पुण्यार्क) देवता का अति प्राचीन भव्य मन्दिर है। ‘मग’ ब्राह्मणों का एक ‘पुर’ ‘पुण्यार्क’ भी इसी गाँव के नाम पर पड़ा है। शेखपुरा जिले के ‘बलवापर’ गाँव में सूर्य देवता का मन्दिर है जिसमें सूर्य देवता सात घोड़ों से जुते रथ पर सवार हैं। जमुई जिले में मलयपुर गाँव के पास नदी तट पर सूर्यमन्दिर है जहाँ प्रतिवर्ष माघ में सूर्यसप्तमी के दिन दूर-दूर से आकर लोग पीली धोती पहन ‘आदित्यहृदय-स्तोत्र’ का सस्वर पाठ करते हैं। दरभंगा जिले के लहेरियासराय के पास राघोपुरा गाँव में 9वीं शताब्दी की एक सूर्य प्रतिमा प्राप्त हुई है। यह 4’6’’ की है।
साम्बपुराण के इस अंश की पाण्डुलिपि
साम्बपुराण जिसे उपपुराण कहा जाता है, सूर्योपासना का प्राचीनतम ग्रन्थ है। ‘साम्ब-पुराण’ सम्पादक पं. श्री गौरीकान्त झा, एकेडमी प्रेस, दारागंज, इलाहाबाद में पं. भवनाथ झा द्वारा लिखित भूमिका से पता चलता है कि हेमाद्रि एवं लक्ष्मीधर के द्वारा उधृत होने के कारण यह 12 वीं शताब्दी पूर्व की रचना मानी है।
इससे पूर्व प्रकाशित साम्ब-पुराण में 84 (चौरासी) अध्याय हैं परन्तु इसके 27वें अध्याय में 1-23 तथा 85-92 तक के श्लोक ही उपलब्ध है, शेष बीच के 24-84 तक के श्लोक (कुल 61) अनुपलब्ध हैं।
यह अतिशय सौभाग्य की बात है कि पुण्यश्लोक पं. अमरनाथ झा के पुत्र पं. शम्भुनाथ झा एवं पं. भवनाथ झा को इन अनुपलब्ध श्लोकों की पाण्डुलिपि इनके घर में में प्राप्त हुई। इन्होंने इसका प्रकाशन पं. गौरीकान्त झा के सहयोग से करबाया। इसके लिए हम सनातन धर्मावलम्बियों की ओर से इन्हें कोटि-कोटि धन्यवाद एवं पाण्डुलिपि संचयन के प्रति इनके अदम्य उत्साह को साधुवाद।
यों पूर्व के अन्य अध्यायों से ही यह बात खुलकर साफ हो गई हे कि सूर्योपासक विप्र शाकद्वीप से जम्बूद्वीप भगवान् कृष्ण की प्रेरणा से उनके पुत्र साम्ब द्वारा लाये गये। साम्ब का कुष्ठ रोग दूर हुआ और उन्होंने भगवान् सूर्य का एक विशाल मन्दिर साम्ब पुर में बनवाया। पद्म पुराण में उल्लेख है कि उक्त मन्दिर जहाँ बना उसका पुराना नाम कश्यपपुर था। वह नगर कश्यप ऋषि ने बनवाया था। बाद उसका नाम साम्बपुर पड़ा। परन्तु 1024 ई0 में जब गजनबी ने आक्रमण किया एवं अपने अधीन किया तब इसका नाम ‘मुलतान’ पड़ा। मुलतान में बहनेवाली नदी सरस्वती नदी की बहन चन्द्रभागा नदी थी। साम्ब पुराण में भी चन्द्रभागा नदी के तट पर ही मन्दिर बनाने की बात आई है।
शाकद्वीपी के अर्थ
साम्बपुराण के इस प्रक्षिप्त अंश से भी स्पष्ट है कि सूर्य के उपासक विप्र शाकद्वीप से आनीत होने के कारण शाकद्वीपीय कहलाये। ये कई नामों से ख्यात हैं, जिनकी व्याख्या निम्न प्रकार है-
- मग – (आगम-शास्त्रीय व्याख्या) ‘म’ से मंत्र उत्पादक और ‘ग’ से गुरु। (पौराणिक व्याख्या)’ ‘म’ से मार्तण्ड और ‘ग’ से ज्ञान।
- भोजक- भाष्कर को भोग (नैवेद्य) चढ़ाकर भोजन करनेवाले।
- ऋतव्रत- यज्ञों को शास्त्रेक्त विधि से सम्पन्न करानेवाले आचार्य।
- याजक- यज्ञ करानेवाले को ‘यज्वन’ भी कहा जाता है, इसलिए ‘याजक’।
- योगेन्द्र- गिरि-कन्दराओं में ध्यानस्थ हो योग सम्पन्न करने के कारण ‘योगेन्द्र’
- मृग – मंत्र का सस्वर पाठ करने से ‘मृग’।
- भूदेव- भूमि पर श्रेष्ठ होने के कारण ‘भूदेव’।
- सेवक (सेवग)- देवताओं, अतिथियों के प्रति सेवा का भाव रखने के कारण सेवक या सेवग।
- ग्रहविप्र- सूर्य ग्रहों में श्रेष्ठ हैं। इसके उपासक होने के कारण।
सताइसवें अध्याय की कथा
बृहद्वल ने कहा- हे भगवन्! शाकद्वीप में निवास करनेवाले ब्राह्मणों के जन्म एवं उनके आश्रित पुण्य कर्म को आप विस्तार पूर्वक मुझसे कहें। सुन्दर शाकद्वीप को छोड़कर वे क्यों यहाँ आये, कब तक ठहरे और फिर कहाँ चले गये।
वसिष्ठ ने कहा- कृष्ण की आज्ञा से विनम्र साम्ब उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों के पास जाकर, उनकी पूजा कर उन्हें गरुड़ पर बैठाकर ले आये। द्वारिका में आये हुए उन ब्राह्मणों को कृष्ण ने पाद्य, अर्घ आचमन आदि से पूजा की और मधुपर्क भी निवेदित किया। उन ब्राह्मणों को आसन देकर स्वागत कर एवं कुशल पूछ कर तथा दोनों हाथ जोड़कर स्वयं भगवान् ने उन्हें कहा-
आप ब्राह्मणों की कृपा से साम्ब निश्चित स्वस्थ हो जायेंगे। सूर्य की प्रतिमा जो सुमेरु पर्वत की चोटी पर देदीप्यमान है, जो अपने तेज से लोकों को बार-बार प्रकाशित कर रही है, आपसब की ब्रह्म तेज युक्त विद्या के प्रभाव से महान् सूर्य देव की वह तेजमयी प्रतिमा निश्चित आयेगी। ब्राह्मणों के इस विस्तृत यश के बारे में स्वतः सूर्य ने साम्ब से कहा है।
बाद वे सभी ब्राह्मण चन्द्रभागा नदी के तट पर गये। वहाँ जाकर सनातन सूर्य का जप करते हुए ब्राह्मणों ने सूर्य का आवाहन किया। तब उन ब्राह्मणों के मंत्र प्रभाव से दसो दिशाओं को चमत्कृत करती हुई नदी के जल के मध्य से भगवान् सूर्य की मूर्त्ति प्रकट हुई। उस मूर्त्ति के असह्य तेजःपुञ्ज को बर्दाश्त कर सकने में वहाँ कोई समर्थ नहीं हो सका। सभी आँखे मूँद खड़े हो गये और उनकी स्तुति करने लगे-
हे संसार के स्वामी देवता, हे संसार को प्रकाशित करने वाले, हे प्रभाकर, हे विश्वसर्जक, हे जगत्पति आपकी जय हो, ऐसा कहते हुए ब्राह्मणों ने उन्हें सन्तुष्ट किया और कहा- हे भगवान् आप प्रसन्न हो और लोकहित में अपने इस असह्य तेज को समेट लें। सभी प्राणी जल रहे हैं, समूचा संसार व्याकुल है। ऐसी स्तुतिपरक प्रार्थना से भगवान् सूर्य प्रसन्न हुए और अमृतदायी किरणवाले हो गये।
बाद वे सभी ब्राह्मण आसन पर बैठे हुए उस महान् सूर्य देवता को यत्न पूर्वक स्वर्ण जड़ित मठ में ले आये। ब्राह्मणों ने धूप, दीप आदिकों से सूर्य देवता की विधिवत् पूजा की और उनके चरण कमल के जल से उन्होंने (ब्राह्मणों ने) साम्ब को अलग से स्नान कराया। तब साम्ब का पाप दूर हो गया और शीघ्र वे दिव्य शरीर वाले हो गये। उनके सारे अंग अत्यन्त आकर्षक और सुन्दर हो गये।
बृहद्वल ने कहा- हे मुनि, उनके प्रभाव मैंने विस्तार से सुन लिये अब उनके पूजकों के नाम और उत्पत्ति विस्तार से कहें।
वसिष्ठ ने कहा- उन विप्रों के शुभ और पवित्र नामों को सुनें- मिहिरांशु, शुभांशु, सुधर्मा, सुमति, वसु, श्रुतकीर्त्ति, श्रुतायु, भरद्वाज, पराशर, कौण्डिन्य, कश्यप, गर्ग, भृगु, भव्यमति, नल, सूर्यदत्त, अर्कदत्त और कौशिक- इन नामों से ये जाने जाते हैं।
बाद उन ब्राह्मणों ने कृष्ण से कहा कि हे विभु, हमसब कृतकार्य हो गये। हे हृषीकेश, हमलोगों को पुनः लौट जाने की आप आज्ञा दें। हे विष्णु, हमलोग अपने नगर को जायेंगे। हमलोग यहाँ ठहरना नहीं चाहते हैं।
तब कृष्ण ने उन ब्राह्मण-श्रेष्ठों को प्रणाम कर कहा- हे विप्र, जबतक मैं इस मर्त्यलोक में कार्यवश हूँ तबतक आप सभी सूर्य देवता की पूजा करते हुए रहें। यह सूर्य की पूजित मूर्त्ति भी तब तक ही रहेगी। उनके तेज के समान कोई दूसरा विप्र नहीं है। जब मैं पृथ्वी लोक का परित्याग करूँगा, यह मूर्त्ति भी चली जायेगी। हे विप्र, आपलोगों को द्वीपान्त तक पहुँचा दिया जायगा। बाद गरुड़ को बुलाकर भगवान् गरुड़ध्वज चले गये।
भगवान् ने गरुड़ से कहा कि आप ब्राह्मणों को इच्छित स्थान पर पहुँचा देंगे।
इसपर गरुड़ बोला- “मैं इन ब्राह्मणों को इच्छित स्थान पर पहुँचा दूँगा। किन्तु यदि ये विप्र पृथ्वी पर कहीं उतरना चाहें तो इन्हें वहीं उतार देंगे। ऐसा ही होगा।” ऐसा कह कर गरुड़ अपनी यथेष्ट गति से चल पड़ा।
नियमित कर्म करनेवाले याज्ञिक, भगवान् सूर्य की पूजा और तपस्या करते हुए योगीजन, एकमना (निर्द्वन्द्व), धन संचय की कुंठा से मुक्त (निष्परिग्रह) योगसिद्ध महात्मा वहीं ठहर गये। साम्ब वहीं ठहर गये और नित्य भगवान् भास्कर की पूजा करते हुए उन्हें सन्तुष्ट किया। इस तरह वहाँ रहते हुए उनलोंगों को तीन सौ वर्ष बीत गये।
अनेक स्तुतियों से प्रार्थित तेजस्विनी वह कला देखते हुए उनलोगों के आगे से ऊपर उड़कर आकाश चली गई। जनार्दन भगवान् विष्णु, पृथ्वीलोक छोड़ कर चले गये हैं ऐसा जानकर वे (याक्षिक) अपने में अन्त्यन्त चिन्तित हो गये कि भगवान् विष्णु भू-लोक छोड़कर चले गये। कलियुग आनेवाला है (आयेगा)। इस पापग्रस्त कलियुग में हम ब्राह्मण कैसे रहेंगे। इसके बाद उन विप्रों ने पूर्व कथित गरुढ़ का ध्यान किया। स्मरण मात्र से ही गरुढ़ वहाँ उपस्थित हो गया।
उन ब्राह्मणों को प्रणाम कर गरुड़ ने कहा- “हे बाह्मण श्रेष्ठ, आप व्यर्थ ही विषाद करते हैं, मैं क्षणभर में ही शाकद्वीप पहुँचा दूँगा।”
उसके बाद सभी ब्राह्मण श्रेष्ठ गरुड़ पर सवार हो कर चल पड़े। रास्ते में जाते हुए उनलोगों ने एक जगह अत्यन्त व्याकुल जनता को देखा। उन्होंने गरुड़ से कहा- “क्यों ये अत्यन्त व्याकुल हैं और बार-बार रो रहे हैं?
गरुड़ ने उन विप्रों से कहा- “वहाँ धृष्टकेतु नामक प्रसिद्ध मगध का राजा है। वह कुष्ठ रोग से ग्रसित है और वह यहाँ अग्नि में प्रवेश करने के लिए आया है। इसीलिए नगर के लोग व्याकुल होकर रो रहे हैं।”
ब्राह्मण ने कहा- “क्या यहाँ ऐसे कोई ब्राह्मण नहीं है, जिनके चरणोदक का पान राजा कर सकें और वे इन्हे पूर्ण स्वस्थ कर सकें। क्यों राजा अग्नि में व्यर्थ प्राण त्याग करते हैं।”
गरुड़ ने कहा- “आपके समान यहाँ यदि कोई ब्राह्मण होते तो शाकद्वीप से आपका आना ही क्यों होता। यदि आप ठीक कर देते हैं तो
यह अच्छी बाट होगी।” ऐसा कहकर उन सिद्ध एवं गुणज्ञ ब्राह्मणों को गरुड़ ने वहीं उतार दिया।
राजा गरुड़ को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए- “प्राणत्याग के समय मैंने गरुड़ देखा। त्रिलोक के स्वामी भगवान् विष्णु का वाहन पुण्य को बढ़ाने वाला होता है।
(राजा ने) हर्ष से प्रणाम कर और स्वागत कर गरुड़ से कहा। बाद गरुड़ ने राजा से कहा- “क्यों शरीर त्याग करना चाहते हो। तुम इन ब्राह्मणों के चरणोदक का पान करो। शीघ्र इस रोग से मुक्त हो जाओगे और उत्तम स्वास्थ्य प्राप्त हो जायेगा।” बाद में राजा ने उन ब्राह्मणों को सिर झुका कर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा, मैं इस समय धन्य हो गया।
वसिष्ठ ने कहा- इसी समय सूर्य के समान तेज वाले उन ब्राह्मणों ने प्रसन्नतापूर्वक चरणोदक दिये। राजा ने चरणोदक पान किया और वह शीघ्र कान्तिमान हो गया। नीरोग हो गया। क्षणभर में ही राजा के साफ-सुथरे रूप को देखकर लोगों ने प्रशंसा की। राजा ने हर्ष से बार-बार नतमस्तक हो ब्राह्मणों को सन्तुष्ट किया।
राजा ने प्रणत हो कर ब्राह्मणों से कहा- मुनिश्रेष्ठ, पुण्यात्मा, उत्तम आचार-विचार वाले, संसार को पवित्र करनेवाले, मुनि सत्तम (मुनि श्रेष्ठ) आपसबों का आज मैं दास हो चुका हूँ। आज्ञा कीजिए, मेरा सारा राज्य आपका ही है।
उन ब्राह्मणों ने राजा से कहा- ”आपकी सारी बातें सुन्दर हैं। आप धर्मपूर्वक लोगों का पालन-पाषण करें और राज्य को निष्कण्टक करें। हे राजन! हमसबों की आज्ञा से आप यहाँ विधानपूर्वक सूर्यप्रतिमा की स्थापना करें और उनकी पूजा में मग्न हो जायें। हे मागधश्रेष्ठ! आपको सदा सूर्य की भक्ति करनी चाहिये। सूर्य देवता की पूजा कर लेने पर सभी देवता पूजित समझे जाते हैं। आप आज्ञा दें। इसके बाद हमलोग शाकद्वीप जाना चाहते हैं।“
उन याज्ञिकों को जाने का इच्छुक समझकर गरुड़ ने कहा- “आपलोगों को स्वयं समय का स्मरण करते हुए यहाँ ठहरना चाहिये। वस्तुतः कृष्ण की भी आज्ञा है कि आप सभी यहाँ ही ठहरें। आप जैसे लोग अपनी पूर्व की गई प्रतिज्ञा को नहीं तोड़ते हैं।” ऐसा कहकर गरुड़ उनसब को प्रणाम कर आकाश मार्ग से तेज गति से चल पड़ा।
वसिष्ठ ने कहा- वे सभी गरुड़ से अपने को ठगा हुआ समक्ष कर अत्यन्त विषाद-ग्रसित हो गये। हमलोगों को यहाँ नहीं ठहरना चाहिये, हे राजा, हमलोग कैसे जायें?।
तब व्यास आदि मुनि उनसब को अत्यन्त व्याकुल देखकर धीरे से वहाँ आये और सान्त्वना दी- “हे ब्राह्मण! आपलोग दुखी न हों। मुक्ति चाहनेवाले लोगों को यहाँ ठहरना चाहिये। यह पुण्यमय भरतखण्ड है, आपलोगों को यहाँ निश्चित सिद्धि मिलेगी। पवित्र करने के लिए पृथ्वी पर निश्चित आपकी संतति सन्तति वास करती रहेगी।”
राजा ने होकर, हाथ जोड़कर उन ब्राह्मणों से कहा- “आपसब का आगमन यहाँ संसार को (मनुष्यों को) पवित्र करने के लिये हुआ है। पवित्र (शुभ) गंगा के किनारे आप सबको गाँव दूँगा।”
इस प्रक्षिप्त अंश का ऐतिहासिक महत्त्व देखते हुए सुधी पाठकों के लिए प्रकाशित किया गया।
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक