कबीर दास के गुरु कौन थे?
मोहसिन फानी 17वीं शताब्दी के एक इतिहासकार यात्री थे। उन्होंने सिखों के छठे गुरु हरगोबिंद सिंह के साथ भारत का भ्रमण किया था। इस भ्रमण में उन्होंने सभी धार्मिक सम्प्रदायों पर उन्होंने उस समय की यथास्थिति का विवरण लिखा था।
इस यात्रा-वृत्तान्त दबिस्ताँ का अंगरेजी अनुवाद डेविड शी और एंटॉनी ट्रॉयर ने किया जो 1840-44 के बीच पेरिस से तीन खण्डों में प्रकाशित हुआ। पुस्तक पढें>>
इसी दबिस्ताँ में वैरागी साधुओं के विवरण के क्रम में कबीर की दीक्षा का वृत्तान्त आया है। 17वीं शताब्दी में रामानन्दचार्य की लोकप्रियता का यह संकेत करता है-
“दबिस्ताँ” में रामानन्दाचार्य के विवरण का हिन्दी अनुवाद
“कबीर जन्म से जुलाहा थे और ऐसे वैरागी साधु थे, जो ईश्वर की एकता में विश्वास रखते थे।
लोग कहते हैं कि ऐसे समय में जब कबीर आध्यात्मिक गुरु की खोज में थे, वे मुसलमानों और हिन्दुओं के श्रेष्ठ सन्तों से मिले, लेकिन उनमें ऐसा कुछ नहीं पाया, जिनकी खोज उन्हें थी।
अन्त में किसी ने उन्हें एक तेजोमय वृद्ध ब्राह्मण रामानन्द के पास जाने की सलाह दी। रामानन्द ने न तो कभी मुसलमान का चेहरा देखा था, न ही किसी अन्य धर्म के व्यक्ति का।
कबीर यह सोचते हुए कि रामानन्द एक जुलाहा से बात नहीं करेंगे, उनके आने-जाने के परिचित मार्ग पर एक गढ़ा खोदकर उसमें समा गये।
रात्रि के अवसान पर रामानन्द स्नान के लिए नदी के तट पर जाया करते थे। उसी समय नदी के पवित्र जल से अपने शरीर का प्रक्षालन एवं आत्मा को पवित्र करने के लिए उन्होंने कदम जब प्रार्थना-गृह की ओर मोड़े वे कबीर-निर्मित गढ़े की सीमा पर पहुँचे और कबीर ने रामानन्द के पाँव पकड़ लिये।
स्वामी रामानन्द का मन ‘राम’मय हो चुका था
उस ब्राह्मण के मन में तो परमेश्वर राम-नाम के सिवाय कुछ नहीं था, अतः वे चिल्ला उठे– ‘राम!’ जब कबीर ने रामानन्द की जिह्वा से उच्चरित ‘राम’ का नाम सुना, तब उन्होंने उस ब्राह्मण के पैर से अपना हाथ खींच लिया और वे अविराम “राम-राम” इस प्रकार कहने लगे कि इसके अलावा और कुछ भी इनकी तथा रामानन्द की आँखों के सामने नहीं था।
गुरु से राम-मन्त्र पाकर धन्य हो उठे कबीर दास
तब उन्होंने (रामानन्द ने) ईश्वर के ऐक्य पर ऐसी उदात्त वाणी में उपदेश दिया, जो सबसे बड़े विद्वानों के मुख से सुने जाते हैं।
जब कबीर को ख्याति मिली, तब लोगों ने रामानन्द से कहा– “इस नगर में एक जुलाहा रहता है और वह आपका शिष्य बनना चाहता है लेकिन खेद है कि आप एक जुलाहे से सम्बन्ध नहीं बना सकते, जो हीन जाति का है।
“जाति-पाँत पूछै नहिं कोय। हरि को भजै सो हरि को होय।”
रामानन्द ने कहा – “उसे मेरे पास बुलाओ।” ऐसा ही किया गया।
जब कबीर की आँखें रामानन्द की आँखों से मिलीं, तब कबीर चिल्ला उठे– “राम, राम”
इसपर रामानन्द ने भी “राम, राम” कहते हुए कबीर को अपनी बाँहों में जकड़ लिया, जिससे वहाँ चारों ओर खड़े लोगों को महान् कुतूहल और आश्चर्य हुआ।
जो ब्रह्म को जानता हो वही है ब्राह्मण
जब उन लोगों ने इस स्नेह का कारण पूछा, तब रामानन्द ने उत्तर दिया – “अब कबीर ब्राह्मण है; क्योंकि इसने उस परम ब्रह्म को जान लिया है, जो परम सत्ता है।”
Dharmayan-vol.-103-Ramanandacharya-Ank
महावीर मन्दिर प्रकाशन
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धर्मायण, अंक संख्या 114, परमहंस विष्णुपुरी विशेषांक